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बिहार चुनाव परिणाम 2025: हार के लिए बहुत कुछ समझना और जानना होगा महागठबंधन को

Hari Verma हरि वर्मा
Updated Fri, 14 Nov 2025 08:09 PM IST
सार

लोकतंत्र की धरती बिहार ने बंपर मतदान के बाद प्रचंड जनादेश के जरिये अपना नया संदेश दे दिया है। एनडीए की जीत की अनेक वजहें गिनाईं जा सकती हैं लेकिन विपक्ष की इस दुर्गति के दस कदम भी अहम हैं।

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bihar election result 2025 five reasons behind MGB's historic loss in hindi
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और राहुल गांधी - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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बिहार चुनाव से ठीक पहले राहुल और तेजस्वी ने वोट अधिकार यात्रा निकाली। बेतहाशा भीड़ जुटी। दोनों युवा तुर्क तब भीड़ और वोट का फर्क नहीं भांप पाए। वे आश्वस्त हो गए कि बिहार में बाजी मार ली। वोट अधिकार यात्रा के बाद चुनाव की घोषणा तक विपक्ष निश्चिंत सा दिखा।

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महिला मतदाताओं का गुस्सा
वोट अधिकार यात्रा के दौरान मोदी की मां को अपशब्द को बिहार में मोदी ने नारी सम्मान का मुद्दा बनाया। बिहार की महिला मतदाताओं की मोदी के प्रति सहानुभूति जागी और विपक्ष के प्रति गुस्सा बढ़ा। नीतीश-मोदी में महिला मतदाताओं का जादू पहले से ही है। मां को गाली और छठी मईया के अपमान को मुद्दा बनाकर मोदी ने बिहार की हर जनसभाओं में नारी सम्मान को जगाया। इसका नतीजा यह रहा कि पिछले तीन चुनावों की तरह इस बार भी बिहार की मतदाताओं ने चुनाव की चाबी अपने हाथ में ले ली। समूचे बिहार में महिला मतदाताओं ने पुरुष मतदाताओं के मुकाबले ज्यादा मतदान किया और विपक्ष को नारी अपमान का खामियाजा भुगतना पड़ा।
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वादे व भरोसे का संकट
एनडीए के आक्रामक प्रचार की तुलना में विपक्ष बेबस दिखा। नीतीश-मोदी की महिला मतदाताओं को 10-10 हजार रुपये के बदले तेजस्वी ने 30 हजार रुपये देने का वादा किया। युवाओं को लुभाने के लिए हर परिवार से एक को सरकारी नौकरी का वादा भी। वादों की झड़ी लगाकर भी मोदी की गारंटी के आगे तेजस्वी के वादों पर मतदाताओं ने भरोसा नहीं किया। बुजुर्ग पीढ़ियों को जंगल राज की याद दिलाई गई तो इसका काट भी राजद के पास नहीं था। अलबत्ता 40 साल से अधिक के आयु वर्ग के मतदाताओं में लालू के जंगलराज का भय पैदा हो गया। वह समय था जब कानून-व्यवस्था का संकट तो था ही, कर्मचारियों को वेतन के लाले पड़ गए थे। राज्य व केंद्रीय कर्मचारियों को भी किस्तों में वेतन दिए जाते थे। बुजुर्ग मतदाता इसे याद कर फिर से महागठबंधन राज की संभावना पर सिहर जाते।

महागठबंधन की गांठ
चुनाव से पहले वोट अधिकार यात्रा के दौरान राजद और कांग्रेस में जो एकजुटता दिखी, वह चुनाव आते-आते महागठबंधन के भीतर गांठ में बदलती चली गई। तेजस्वी को सीएम चेहरा घोषित करने की बात हो या सीट बंटवारे की स्थिति, दोनों जुदा दिखे। आनाकानी के बाद जब तेजस्वी को सीएम चेहरा घोषित करने पर कांग्रेस राजी हुई, तो मोदी ने इसे भी कट्टा रखकर सीएम चेहरा घोषित कराने की बात कर विपक्ष को घेर लिया। राजद, कांग्रेस और वाम दलों में ही सीट बंटवारे को लेकर ऐसी नौबत आई कि कम से कम 10-12 सीटों पर दोस्ताना लड़ाई
छिड़ गई। इसका नुकसान भी विपक्ष को ही झेलना पड़ा। विपक्ष के घटक दल एक-दूसरे के हक में वोट हस्तांतरित नहीं करा सके।


पानी में मछली नहीं, नौ-नौ कुटिया बखड़ा
बिहार में एक कहावत है, पानी में मछली नहीं, नौ-नौ कुटिया बखड़ा यानी पानी में मछली ही नहीं और नौ-नौ टुकड़े की हिस्सेदारी। यह नौबत तब आई जब जबरन राजद ने सीएम चेहरा
तेजस्वी को घोषित कराया तो वीआईपी के मुकेश सहनी ने राजद से खुद को डिप्टी सीएम घोषित करा लिया। राजद को भी लगा कि मुस्लिम यादव के साथ यदि मल्लाह वोट बैंक जुड़
जाए तो कुर्सी की राह आसान हो जाएगी। इस दौरान कांग्रेस को भाव नहीं मिला। राहुल को बेगूसराय के तालाब में उतारकर मल्लाह वोट बैंक पर जाल फेंकने की कोशिश भी नाकाम साबित हुई। राहुल के तालाब में छलांग को भले निषाद मतदाताओं की राजनीति से जोड़कर देखा गया लेकिन मुकेश सहनी महागठबंधन में राजद के लिए मुंबईया फिल्मी सेट तैयार करने वाले ही साबित हो कर रह गए और खुद सहनी का ही इस चुनाव में प्रदर्शन खराब रहा। जो लालू के समय की राजनीति से वाकिफ है, उन्हें एक किस्सा याद होगा। तब बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रामाश्रय प्रसाद सिंह (भूमिहार) जाति से थे और कांग्रेस को केवल चार सीटें मिली थीं। लालू ने कहा था- अर्थी (कंधा) देने के लिए चार लोग जरूरी हैं। कांग्रेस बिहार में सिमट गई थी।
हालांकि, पिछली बार उसने 19 सीटें जीतकर अपना हाथ हद तक मजबूत भी किया। लेकिन इस चुनाव में उसे पुराना प्रदर्शन दोहराने की चुनौती का सामना करना पड़ा।

मोदी बनाम लालू
एनडीए ने विपक्ष को निशाना बनाते हुए उस लालू को सामने रखा जो पर्दे के पीछे से महागठबंधन के असली रणनीतिकार थे। ठीक इसके उलट कांग्रेस ने नीतीश से ज्यादा मोदी पर
सीधा वार-प्रहार कर उलटा संदेश दे डाला। बिहार की सभाओं में कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने बार-बार यही कहा कि बिहार का शासन नीतीश नहीं, मोदी और दिल्ली के नेता चला रहे
हैं, इसका उलट संदेश गया कि बिहार पर मोदी मेहरबान हैं। भाजपा भी बिहार में नीतीश के अलावा मोदी के चेहरे को ही आगे कर चुनाव लड़ रही थी क्योंकि बिहार भाजपा के पास अपना कोई दमदार और असरदार चेहरा नहीं था। ऐसे में यही संदेश गया कि बिहार के मतदाताओं के लिए मोदी-नीतीश की जोड़ी ही ज्यादा बेहतर कर सकती है। विपक्ष का मोदी पर हमलावर
होना भी एनडीए के लिए फायदेमंद साबित हो गया।

पुलवामा बनाम सेना
कभी जात पर, न पात पर, मुहर लगाएं हाथ पर.... का नारा गढ़ने वाली कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व जातीय गणना और जात-पात में उलझ कर रह गया। जिस बिहार से पहलगाम का बदला लेने की मोदी ने सौगंध खाई और ऑपरेशन सिंदूर के जरिये पाकिस्तान को धूल चटाकर चुनाव के पहले सैन्य पराक्रम की गौरव गाथा बिहार के साथ-साथ देश-दुनिया को सुनाई, उसी बिहार
में जाकर राहुल गांधी ने सेना में जात-पात का मसला उठा दिया। वह उलझ गए या यूं कहें अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। राहुल ने कहा, सेना में 10 फीसदी का कब्जा है। वह ऊंची जातियों की ओर इशारा कर रहे थे। इसे भी बिहार में अरसे पहले लालू के भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ करो के नारे से जोड़कर देखा गया।  अगड़ी जातियां पहले से ही भाजपा के पक्ष में लामबंद रहीं। जात-पात के लिए बदनाम बिहार के मतदाताओं को पहलगाम के बदले पाकिस्तान पर हमला करने वाले जवानों के जात-पात का सवाल उठाना नागवार गुजरा। और विपक्ष को इसका बड़ा नुकसान झेलना पड़ा।

तेजस्वी-राहुल बनाम नीतीश मोदी
लालू ने एक बार कहा था, नीतीश के पेट में दांत है। यह इस चुनाव में भी दिखा। तेजस्वी-राहुल जहां अपनी दोस्ती (गठबंधन) की एका का इजहार नहीं कर सके और मोदी ने बार-बार जनसभाओं में उनके खटपट को उजागर किया, वहीं जब बिहार में मोदी के रोड शो से नीतीश एकाएक नदारद हो गए तो सियासी गलियारे में यह कयास लगने लगा कि मोदी-नीतीश
भी एकजुट नहीं रहे। हालांकि इसका दूसरा पहलू यह भी था कि नीतीश को अपने उदार मुस्लिम वोट बैंक की चिंता थी। और यह चिंता मुस्लिम बाहुल्य सीमांचल के नतीजे से साफ हो गया कि वहां राजद-महागठबंधन को समेटते हुए जदयू ने शानदार प्रदर्शन किया। नीतीश ने शुरुआती प्रचार के बाद दूसरे चरण के मतदान के लिए मोदी की रैलियों-रोड शो से दूरी बनाकर खुद को सबके (सोशल इंजीनियरिंग के अलावा मुस्लिम मतदाता) हैं का ख्याल रखा। ऐसे में लोकतंत्र और चाणक्य की धरती बिहार के प्रचंड जनादेश का विपक्ष को खास संदेश है कि उसे जनता-जनार्दन और जमीन से जुड़ना ही होगा।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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