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टेम्स नदी और विवाद : सभ्यता, प्रदूषण और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह की बहस

Vinod Patahk विनोद पाठक
Updated Tue, 18 Nov 2025 02:58 PM IST
सार

  • लंदन की टेम्स नदी में एक भारतीय नागरिक द्वारा पैर धोने की घटना ने सोशल मीडिया पर सांस्कृतिक बहस छेड़ दी है।
  • पश्चिमी समाज ने इसे असभ्यता बताया, जबकि भारत में यह सहज सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। यह विवाद पश्चिमी समाजों के पाखंड को दर्शाता है, जहां प्रदूषित नदियों में सीवेज बहाना स्वीकार्य है, पर पैर धोना नहीं।
  • यह परस्पर सम्मान और सांस्कृतिक संवाद की कमी को उजागर करता है।

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Thames River Foot-Washing Row A Clash of Cultures or Reflection of Britain's Environmental Hypocrisy
लंदन की टेम्स नदी में पैर धोता युवक का वीडियो - फोटो : Twitter
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विस्तार
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लंदन की टेम्स नदी के किनारे घटी एक साधारण सी घटना ने एक गहरी बहस को जन्म दिया है। एक भारतीय नागरिक ने टेम्स में अपने पैर धोए और इस दृश्य के वीडियो ने ब्रिटेन में सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा कर दीं। हद तो यह हुई कि कुछ लोगों ने इसे अशोभनीय बताया तो कुछ ने भारतीय संस्कृति का उपहास किया। प्रश्न यह है कि क्या यह केवल शिष्टाचार का मामला है या फिर यह पश्चिमी समाज की उस सांस्कृतिक असहिष्णुता का प्रतिबिंब है? जो अब भी गैर-पश्चिमी सभ्यताओं को सभ्यता सीखने योग्य मानती है?

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भारतीय संस्कृति में जल और नदी का स्थान केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है। नदी हमारे यहां 'मां' के रूप में पूजी जाती हैं। ये हमारे जीवन का स्रोत और शुचिता का प्रतीक हैं। यात्रा के बाद या किसी नए स्थान पर प्रवेश से पहले जल से हाथ-पैर धोना केवल आदत नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। यह किसी अपमान का नहीं, बल्कि कृतज्ञता और स्वच्छता का भाव है। संभवतः भारतीय के लिए टेम्स में पैर धोना किसी धार्मिक या प्रतीकात्मक कारण से नहीं, बल्कि यात्रा की थकान मिटाने का सहज तरीका रहा होगा, लेकिन पश्चिमी दृष्टि से यह सार्वजनिक असभ्यता का प्रतीक बन गया, क्योंकि वहां नदी को धार्मिक नहीं, केवल दृश्य और औद्योगिक संपदा के रूप में देखा जाता है।
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यहां विवाद का एक हिस्सा स्थानीय दृष्टि से सही हो सकता है। टेम्स लंदन का प्रतीक और एक पर्यटन केंद्र भी है। वहां पानी में उतरना या व्यक्तिगत स्वच्छता करना असामान्य माना जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर नागरिक आचरण का पालन प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, लेकिन जो बात असहज करने वाली है, वह इस पर उभरा उपहास, व्यंग्य और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह वाली है। कई ब्रिटिश नागरिकों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि भारत की गंदगी यहां मत लाओ। यह केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता पर टिप्पणी थी। विडंबना यह है कि यह ब्रिटेन का वही समाज है, जो स्वयं को पर्यावरणीय नैतिकता का रक्षक मानता है, उसकी नदियां दशकों से सीवेज और औद्योगिक कचरे से भर चुकी हैं।

टेम्स को कभी लंदन की आत्मा कहा जाता था। आज वह यूरोप की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक मानी जाती है। ब्रिटेन की जल कंपनियां अब भी नियमित रूप से औद्योगिक अपशिष्ट और बिना उपचारित सीवेज इसमें छोड़ती हैं। स्वयं ब्रिटेन के पर्यावरण विभाग की रिपोर्ट कहती है कि वहां की केवल 14 प्रतिशत नदियां ही अच्छी पारिस्थितिक स्थिति में हैं। ऐसे में यह विरोध एक गहरी विडंबना रचता है, जहां पैर धोना तो अपराध बना दिया गया, लेकिन सीवेज बहाना नियमित प्रक्रिया माना जा रहा है।

यह भी याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन औद्योगिक क्रांति का जन्मस्थान रहा है। कोयले और जीवाश्म ईंधनों के पहले बड़े उपयोग ने वैश्विक जलवायु परिवर्तन की नींव उसी ने रखी।
आज जब विकासशील देशों से कहा जाता है कि वे उत्सर्जन घटाएं तो यह कहना कठिन नहीं कि जलवायु ऋण का सबसे बड़ा भार यूरोप और अमेरिका पर है। ब्रिटेन का पर्यावरणीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसने अपने औद्योगिक उत्थान की कीमत पूरी दुनिया की पारिस्थितिकी से वसूली। ऐसे में नैतिकता के ऊंचे मंच से किसी दूसरे देश की संस्कृति पर उपहास करना केवल पाखंड कहा जाएगा।

भारतीय दृष्टि में जल के प्रति आदर, गंगा आरती की परंपरा से लेकर हर आंगन में रखे जल-कलश तक, एक गहरी सभ्यता का हिस्सा है। हम जल को सजीव मानते हैं, जिसे छूना पवित्रता का संकेत है। यह दृष्टिकोण पश्चिमी समाज के प्रकृति उपभोग वाले दृष्टिकोण से भिन्न है। हम प्रकृति के स्वामी नहीं, सहयात्री हैं। यह अंतर केवल धार्मिक नहीं, बल्कि दार्शनिक भी है। पश्चिम की संस्कृति ने नदियों को उद्योगों के लिए दोहन किया, जबकि भारत ने उन्हें आस्था और जीवन का रूप माना।

फिर भी, इस घटना से भारत को भी आत्ममंथन की आवश्यकता है। जब हम किसी दूसरे देश में हों तो वहां की सामाजिक संवेदनाओं, नियमों और प्रतीकों का सम्मान करना भी हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। जैसे हम अपनी गंगा में किसी विदेशी के अनुचित व्यवहार पर आक्रोश व्यक्त करेंगे, वैसे ही दूसरों की सांस्कृतिक सीमाओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है। सांस्कृतिक संवाद तभी संभव है, जब दोनों पक्ष परस्पर सम्मान से पेश आएं, न कि एक सभ्य और दूसरा असभ्य ठहराया जाए। वैसे, वास्तविक चिंता यह है कि पश्चिमी विमर्श आज भी भारतीय संस्कृति को रहस्यमय या अव्यवस्थित मानने की पुरानी आदत से बाहर नहीं निकल पाया है। टेम्स में पैर धोने की घटना इसी मानसिकता का प्रतीक है, जहां किसी व्यक्ति का व्यवहार समझने से पहले उसका राष्ट्रीय या सांस्कृतिक लेबल लगा दिया जाता है। यही वह जगह है, जहां सभ्यता स्वयं असभ्य हो जाती है।

पश्चिम को यह समझना होगा कि भारतीय संस्कृति की जड़ें किसी औद्योगिक विस्तार में नहीं, बल्कि सहअस्तित्व में हैं। यह संस्कृति नदी, पर्वत और वृक्ष को उतना ही सम्मान देती है, जितना मनुष्य को। आज जब पूरी दुनिया जलवायु संकट और पर्यावरणीय क्षरण के दौर से गुजर रही है, तब शायद भारत का यह दृष्टिकोण, जहां प्रकृति पूज्य है, मानवता के भविष्य का मार्गदर्शन कर सकता है। यह विवाद हमें यही सिखाता है कि सभ्यता का असली मापदंड केवल बाहरी आचरण नहीं, बल्कि आंतरिक संवेदना है।

ब्रिटेन की नदियां तब तक स्वच्छ नहीं होंगी, जब तक उसकी सोच में सांस्कृतिक अहंकार का प्रदूषण बना रहेगा। भारत की सभ्यता तब तक प्रासंगिक नहीं होगी, जब तक वह अपनी पवित्रता को दूसरों की सीमाओं का सम्मान करते हुए व्यक्त नहीं करती। नदियां केवल जलधाराएं नहीं होतीं, बल्कि वे संस्कृतियों का दर्पण होती हैं। जब हम किसी नदी में पैर रखते हैं तो केवल पानी को नहीं, बल्कि अपनी सभ्यता के मूल्य को छूते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि अगली बार जब टेम्स या गंगा की बात हो तो हम एक-दूसरे पर हंसने के बजाय एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें, क्योंकि सभ्यता का असली प्रवाह सम्मान और संवाद की धारा में ही बहता है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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