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बिहार चुनाव 2025: महिलाओं की निर्णायक भूमिका और ‘कैश पॉलिटिक्स’ का बदलता परिदृश्य
सार
इस चुनाव का सबसे बड़ा तथ्य महिलाओं की भागीदारी रही। कुल 7.43 करोड़ मतदाताओं में से करीब 3.5 करोड़ महिलाओं ने मतदान किया और उनका मतदान प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले लगभग नौ प्रतिशत अधिक रहा।
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बिहार चुनाव 2025 परिणाम।
- फोटो : Adobe Stock
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विस्तार
बिहार की राजनीति ने इस बार एक ऐसा मोड़ लिया है जिसकी गूंज आने वाले वर्षों तक देश भर के चुनावी परिदृश्य में सुनाई देगी। 243 में से 200 से अधिक सीटें जीतकर एनडीए ने न सिर्फ भारी जनादेश हासिल किया बल्कि नीतीश कुमार के लिए लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता भी साफ कर दिया।
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यह परिणाम जातिगत राजनीति की जकड़न को ढीला करने के साथ-साथ महिलाओं की अभूतपूर्व राजनीतिक सक्रियता का संदेश भी देता है। हालांकि इस चुनाव ने यह बहस भी तेज कर दी है कि क्या यह बदलाव सच में सामाजिक चेतना का परिणाम है या फिर सीधे खातों में डाले गए 10 हजार रुपये के प्रभाव का।
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महिलाओं का बढ़ता असर और वोटिंग व्यवहार की नई दिशा
इस चुनाव का सबसे बड़ा तथ्य महिलाओं की भागीदारी रही। कुल 7.43 करोड़ मतदाताओं में से करीब 3.5 करोड़ महिलाओं ने मतदान किया और उनका मतदान प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले लगभग नौ प्रतिशत अधिक रहा।
यह पहली बार है जब महिलाओं का मतदान पूरे राज्य में पुरुषों से अधिक रहा। चुनाव पश्चात सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि करीब दो तिहाई महिला मतदाताओं ने एनडीए को समर्थन दिया, जिसने बड़े पैमाने पर सीटों के अंतर को प्रभावित किया।
इसके पीछे कई कारण रहे। पिछले वर्षों में नीतीश सरकार ने महिला हितैषी योजनाओं का जो आधार तैयार किया था, उसने मजबूत पृष्ठभूमि उपलब्ध कराई। इस आधार पर 2025 की ‘मुख्यमंत्री महिला उद्यमिता योजना’ ने निर्णायक भूमिका निभाई, जिसके तहत 1.51 करोड़ महिलाओं के खातों में चुनाव से पहले 10 हजार रुपये की राशि भेजी गई।
विपक्ष ने इसे वोट खरीदने का तरीका बताया, जबकि लाभार्थी महिलाओं ने इसे सम्मान और भरोसे का प्रतीक माना। सोशल मीडिया पर भी यह बहस पूरे चुनाव के दौरान छाई रही।
जाति समीकरणों का कमजोर पड़ना और नया ‘महिला-युवा’ संयोग
बिहार में जाति एक मजबूत राजनीतिक परंपरा रही है, लेकिन इस चुनाव में उसका असर सीमित दिखाई दिया। एनडीए ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग, दलित और ऊपरी जातियों का एक व्यापक गठजोड़ कायम किया। इसके विपरीत महागठबंधन का मुस्लिम–यादव समीकरण उतना प्रभावी नहीं रहा।
महिलाओं और युवाओं की बड़ी संख्या ने एक नया सामाजिक-राजनीतिक संयोग बनाया, जिसने चुनाव का झुकाव बदल दिया। तेजस्वी यादव की परंपरागत सीट पर पिछड़ना इसी परिवर्तन का संकेत है।
हालाँकि बेरोजगारी और विकास जैसे मूल मुद्दे इस चुनाव में पीछे छूट गये। यह भी चर्चा में रहा कि नकद हस्तांतरण योजनाओं की चमक ने इन गंभीर प्रश्नों को हाशिये पर धकेल दिया, जो आने वाले समय में राज्य सरकार के लिए चुनौती बन सकते हैं।
राष्ट्रीय राजनीति पर असर और बदलती चुनावी रणनीतियां
बिहार का यह जनादेश किसी एक प्रदेश तक सीमित नहीं रहने वाला है। 2026 में यूपी, पंजाब और असम तथा 2027 में बंगाल, तमिलनाडु और केरल के चुनावों पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यह अंदेशा भी मजबूत हुआ है कि विभिन्न राज्य सरकारें महिलाओं और कमजोर तबकों के लिए नकद सहायता योजनाओं को चुनावी रणनीति के रूप में और बढ़ाएंगी।
कई राज्यों में पहले से चल रही योजनाओं में संशोधन की चर्चा शुरू हो गई है। ममता बनर्जी की लक्ष्मीर भंडार योजना हो या यूपी में चल रही महिला सम्मान योजनाएँ, सभी पर बिहार के मॉडल का प्रभाव दिखाई देगा। आने वाले लोकसभा चुनावों में भी महिला मतदाताओं को केंद्र में रखकर रणनीतियाँ तय होने की संभावना है।
डीबीटी का बढ़ता चलन और लोकतांत्रिक ढांचे पर बहस
सीधे खातों में धन अंतरण अब भारतीय चुनावों में एक निर्णायक तत्व बनता जा रहा है। विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि ऐसी योजनाओं का प्रभाव वोटिंग व्यवहार पर पड़ता है और यह सत्ताधारी दलों के पक्ष में झुकाव पैदा करता है। बिहार में इसका असर अत्यधिक दिखाई दिया।
लेकिन इसके साथ कई गंभीर सवाल भी जुड़े हैं। राज्य की अर्थव्यवस्था पर वेलफेयर योजनाओं का दबाव बढ़ता जा रहा है। बिहार का कल्याणकारी व्यय जीएसडीपी के लगभग तीन प्रतिशत तक पहुँच चुका है, जिससे वित्तीय असंतुलन बढ़ने की आशंका है। लोकतांत्रिक दृष्टि से यह चिंता भी सामने है कि कहीं चुनावी राजनीति नकद हस्तांतरण की प्रतियोगिता तक सीमित न हो जाए।
सशक्तिकरण या निर्भरता का मार्ग
बिहार का यह चुनाव भारतीय राजनीति में महिलाओं की निर्णायक भूमिका को स्थापित करता है। यह भी सच है कि वर्षों से बनी नीतिगत जमीन के साथ 10 हजार रुपये की सहायता ने उनकी भागीदारी को ऊर्जावान बनाया। लेकिन यह प्रश्न अभी खुला है कि यह बदलाव सशक्तिकरण की दिशा में स्थायी कदम है या राजनीति में निर्भरता का एक नया स्वरूप।
अगर आगामी चुनावों में नकद योजनाओं की यह प्रतिस्पर्धा बढ़ती रही, तो भारतीय राजनीति एक नई दिशा में बढ़ेगी, जहाँ मुद्दे और नीतियां पीछे और सीधे लाभ आगे हो सकते हैं। यह लोकतंत्र के लिए अवसर भी है और चेतावनी भी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।