विश्व साहित्य का आकाश: टू वीमेन- युद्ध परिवेश में स्त्रियां
- ‘टू वीमेन उपन्यास युद्ध काल में स्त्री जीवन की विभीषिका का सचित्र, उत्कृष्ट एवं भयावह चित्रण करता है।
विस्तार
युद्ध विषय पर विभिन्न भाषाओं में बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं। मगर युद्ध का प्रभाव दिखाने वाली किताबें गिनी-चुनी हैं। उसमें भी युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली किताबें तो और भी कम हैं। युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली अच्छी किताबों की संख्या और भी कम है। ‘टू वीमेन’ उन्हीं कुछ बहुत अच्छी किताबों में से एक है।
युद्ध की आर्थिक मार झेलती एक स्त्री सिसेरा अपनी बेटी रोजेट्टाकी सुरक्षा के प्रति बहुत सतर्क है। क्या वह इस क्रूर दुनिया से उसे बचा पाती है? इटली के पत्रकार, नाटककार, फिल्म समीक्षक, उपन्यासकार एल्बर्टो पिंचरले मोराविया इसी कथा को अपने उपन्यास ‘टू वीमेन’ में 350 पन्नों में बताते हैं। निर्देशक विटोरिओ डि सिका ने किताब के करीब रहते हुए इसी नाम से फिल्म बनाई है, जिसमें सोफिया लॉरेन मां तथा एलिओनोरा ब्राउन ने किशोरी बेटी रोजेट्टा की भूमिका की है।
1907 में जन्मे मोराविया अलगाव एवं नैतिक द्विविधा का अपना उपन्यास ‘टू वीमेन’ में पूरा उपन्यास प्रथम पुरुष में बुनते हैं। यह सारी शक्तिशाली कथा मजबूत इरादों वाली नायिका सेसिरा की आंख द्वारा कही गई है। वे ड्रीम टेक्निक, आंतरिक एकालाप द्वारा मनोवैज्ञानिक पैठ बनाते हैं। इटली में युद्ध की पृष्ठभूमि में जटिल मानवीय भावनाओं और अस्तित्व की छान-बीन करते हैं। ग्रामीण श्रमिक वर्ग के जीवन की युद्ध काल में कठोर सच्चाई चित्रित मात्र इटली की कथा न रह कर वैश्विक कथा बन जाती है, आज के संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण तथा विचारपूर्ण बन जाती है। पढ़ते हुए मुझे बार-बार बांग्लादेश में हुए सैनिक अत्याचार का स्मरण होता रहा। आज यह न मालूम कितने स्थानों पर हो रहा है।
‘टू वीमेन उपन्यास युद्ध काल में स्त्री जीवन की विभीषिका का सचित्र, उत्कृष्ट एवं भयावह चित्रण करता है।
विधवा सेसिरा रोम में परचून की एक दुकान चला कर अपना और अपनी बेटी का जीवन चला रही है।
सेसिरा अपनी बेटी के संग रोम छोड़ कर अपने गांव जाने का निश्चय करती है। उसका विचार था कुछ दिन गांव में रहेगी और जब युद्ध रुकेगा, रोम शांत हो जाएगा वह वापस अपने घर लौट आएगी। मां-बेटी यात्रा पर चल पड़ती हैं। लेकिन रास्ते में क्या होता है?
सेसिरा बची-खुची दो बैंच के करीब गई, एक को घुमाया ताकि वह वेदी की ओर हो जाए, उस पर अपना बक्सा रखा और रोजेट्टा से कहा, ‘देखो, यह है युद्ध, वे चर्चों का भी सम्मान नहीं करते हैं।’ (306)
फिर उसने रोजेट्टा की तीखी चीख सुनी, आगे उसी से सुनिए, ‘मैंने अपनी पूरी ताकत से खुद को छुड़ाने की कोशिश की और उसकी सहायता केलिए भागना चाहा। लेकिन उस आदमी ने मुझे कस कर पकड़ा हुआ था, मेरी कोशिश बेकार थी। मैंने अपना हाथ उसकी ठुड्ड़ी में अड़ा कर उसके चेहरे को दूर करना चाहा पर वह ताकतवर था। मैंने अनुभव किया वह मुझे घसीट कर दाहिने दरवाजे, चर्च के अंधेरे कोने की ओर ले जा रहा था। तब मैंने रोजेट्टा के और जोर से चीखने को सुना।’... वह बेहोश हो गई। (302)
लेकिन रोजेट्टा बेहोश नहीं हुई, उसने वह सब कुछ अपनी आंखों से देखा जो उसके साथ हो रहा था, अपनी इंद्रियों से सब कुछ अनुभव किया। उन लोगों ने उसके कौमार्य का संहार कर दिया था। उसके कौमार्य की हत्या कर वे जिले के दूसरे स्थानों में यही करने चल दिए थे। अब चर्च में उन मोरोक्को सैनिकों का नामो-निशान न था। बाद में जब वह बेटी से बार बार उस बात को न सोचने केलिए कहती है तो बेटी का उत्तर है, ‘अगर तुम चाहती हो मैं उसे न सोचूं, तो बेहतर है तुम उसके विषय में बात मत करो।’
सामाजिक यथार्थ का उपन्यास ‘टू वीमेन’ कहता है, बात नहीं करने से बात समाप्त नहीं होती है। जब मोरोक्को सैनिकों ने रोजेट्टा का बलात्कार किया, उसकी इच्छा शक्ति कुचल गई, उसी समय एक अनजान चीज उसके शरीर में आग की तरह घुस गई, अब वह उससे जल रही थी। अब वह जल रही थी ताकि उसके अरस्ते में आने वाले सारे आदमी उसे मोरोक्को सैनिकों की तरह बरतें। वह मां से कहती है, ‘मैं संभोग करना चाहती हूं क्योंकि यही एक चीज अहि जो मुझे पसंद है, यौन-क्रिया करने का मेरा मन करता है।’
मां जब रोजेट्टा को आदमियों के पास जाने से रोकना चाहती है वह बिल्कुल नहीं सुनती है। एक अन्य स्त्री कोन्सेटा कहती है, ‘एक मां का अधिकार है, वह जो चाहती है उसके लिए बेटी को मना करे। लेकिन क्या बेटी का भी यह अधिकार नहीं कि जिसे वह चाहे उसके साथ जाए?’...हम माताओं को समझना चाहिए और माफ कर देना चाहिए।’
युद्ध क्या करता है? मोराविया के अनुसार, युद्ध सदा साहसियों, नि:स्वार्थियों, ईमानदार को नष्ट करता है। कुछ मारे जाते हैं, कुछ रोजेट्टा की तरह गूंगे बना दिए जाते हैं। दूसरी ओर सबसे बुरे, स्वार्थी लोग जिनके पास न साहस होता है, न धर्म, न गर्व होता है, वे हत्या करते हैं, चोरी करते हैं। ये सुरक्षित निकल आते हैं, और यहां तककि पहले से और अधिक निर्लज तथा भ्रष्ट हो जाते हैं। (पेज 345) वह जीती चली जाती है। जीवन मृत्यु से प्रमुख है, यह उसे कभी पता नहीं चलता है। वह मरना चाहती है, कैसे बचती है, क्यों बचती है, यह बताना मेरा काम नहीं है। आप खुद पेज 340-341 पढ़ कर देखें।
ग्यारह अध्याय में विभाजित 1957 में लिखे उपन्यास का 1958 में प्रकाशित अंगस डेविडसन का इंग्लिश संस्करण मेरे पास है। प्रसिद्ध एल्बर्टो मोराविया ने तपेदिक से जूझते हुए ‘टाइम ऑफ इनडिफरेंस’, ‘द फैंसी ड्रेस पार्टी’, ‘द वूमन ऑफ रोम’, ‘टू अडोलसेंट्स’, ‘ए घोस्ट एट नून’, ‘दि एम्टी कैनवास’, ‘द लाई’, ‘टाइम ऑफ डेसक्रेशन’ तथा कई कहानियों जैसी कई उत्कृष्ट रचनाएं कीं। अपने युद्ध काल के अनुभवों पर आधारित यह उपन्यास वे एक सकारात्मक नोट पर समाप्त करते हैं।
यात्रा में हुई घटनाओं के बाद रोती हुई रोजेट्टा को देख कर सिसेरा को अचानक पक्का विश्वास होता है, रोजेट्टा मूल रूप में परिवर्तित नहीं हुई है, साथ ही रोजारियो के पैसे चुराने के बावजूद वह खुद भी नहीं बदली है। उसने चैन अनुभव किया, इस आश्वासन से उसके मन में विचार आया, ‘ज्योंहि मैं रोम पहुंचूगी, मैं इस रकम को रोजारियो की मां को लौटा दूंगी।’ बिना कुछ कहे वह रोजेट्टा की बांह-में-बांह डाल देती है और उसका हाथ कस कर थाम लेती है।
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