सब्सक्राइब करें
Hindi News ›   Columns ›   Blog ›   west bengal bypoll election 2024 violence in bengal election know the history and facts of political violence

West Bengal bypolls 2024: बंगाल में चुनावी हिंसा और सियासत

सार

एनसीआरबी की उसी रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। इनमें सबसे ज्यादा 50 हत्याएं 2009 में हुईं। जबकि, उस साल अगस्त में सीपीएम ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि 2 मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने 62 काडरों की हत्या कर दी।

विज्ञापन
west bengal bypoll election 2024 violence in bengal election know the history and facts of political violence
बंगाल की राजनीति में जब 1980-1990 में बीजेपी और तृणमूल का अस्तित्व नहीं था तब भी कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच हिंसा चरम पर थी। - फोटो : एएनआई
विज्ञापन

विस्तार
Follow Us

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि चुनाव के वक्त सबसे ज्यादा हिंसा पश्चिम बंगाल में ही होती है। दरअसल, इस राज्य में दंभ के स्वरों की गिनती में हिंसा का शीर्ष स्थान है और हिंसा को हमेशा शक्ति प्रदर्शन की श्रेणी में रखा गया। चाहे वह लोकसभा चुनाव हो या पंचायत चुनाव हो! चाहे आम चुनाव हो या उप चुनाव ही क्यों न हो! चाहे वह प्री पोल वायलेंस हो या पोस्ट पोल वायलेंस! पश्चिम बंगाल में चुनाव और हिंसा की गठरी हमेशा बंधी रही। 

Trending Videos


नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी हालांकि पूरी तरह सटीक नहीं कहे जा सकते। विपक्षी दल व उसके नेता संख्या इससे ज्यादा बताते हैं। मसलन, एनसीआरबी ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि पूरे साल के दौरान देश में होने वाली 54 राजनीतिक हत्याओं के मामलों में से 12 बंगाल से जुड़े थे।
विज्ञापन
विज्ञापन


इसी बरस केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को एडवाइजरी भेजी। उसमें कहा गया कि पश्चिम बंगाल में हुई राजनीतिक हिंसा में 96 लोग मारे गए साथ ही लगातार होने वाली हिंसा गंभीर चिंता का विषय है। इसके बाद एनसीआरबी की ओर से सफाई आई। ये कहा गया कि उसे पश्चिम बंगाल समेत कुछ राज्यों से आंकड़ों पर स्पष्टीकरण नहीं मिला है। इसलिए उसके आंकड़ों को फ़ाइनल नहीं माना जाना चाहिए।
 

एनसीआरबी की उसी रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। इनमें सबसे ज्यादा 50 हत्याएं 2009 में हुईं। जबकि, उस साल अगस्त में सीपीएम ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि 2 मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने 62 काडरों की हत्या कर दी। हिंसा का जहां तक सवाल है, खासकर 2018 पंचायत चुनाव से 2021 के विधानसभा चुनाव तक राज्य में काफी हिंसा देखने को मिलीं। ख़ासकर विधानसभा चुनाव के बाद होने वाली हिंसा और कथित राजनीतिक हत्याओं की घटनाओं ने तो काफी सुर्खियां बटोरी थी। फिलहाल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी का राज है और विपक्ष की भूमिका में बीजेपी है।


बंगाल की राजनीति में जब 1980-1990 में बीजेपी और तृणमूल का अस्तित्व नहीं था तब भी कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच हिंसा चरम पर थी। 1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने विधानसभा में आंकड़ा पेश किया था जिसमें कहा गया कि 1988-89 के दौरान राजनीतिक हिंसा में 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हुई। इनमें 34 सीपीएम के थे और 19 कांग्रेस के। बंगाल की बदहाल स्थिति देख कांग्रेस ने राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा और राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग की। ज्ञापन में दावा था कि 1989 के पहले 50 दिनों में कांग्रेस के 26 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई है।

पश्चिम बंगाल में 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े प्रमाण के तौर पर पेश किए जाते हैं। एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि साल 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और देश में बंगाल इस मामले में पहले स्थान पर था।

दरअसल, पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा से जूझता रहा। 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे क्रूर अध्याय के तौर पर याद किया जाता है। साठ के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था। किसानों के हो रहे शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी।
 

आंकड़े और किस्से बताते हैं कि 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद राजनीतिक हत्याओं की रफ्तार तेज हो गई थी। 1977 विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन का कारण भी बना। सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है।


1998 में ममता बनर्जी की टीएमसी का गठन हुआ और यहां से वर्चस्व की एक और लड़ाई आरंभ हुई जिसने हिंसा को एक नया रूप दे दिया। पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा शुरू हुई। राज्य के विभिन्न इलाकों में बालू, पत्थर और कोयले के अवैध खनन और कारोबार पर वर्चस्व भी पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा की एक प्रमुख वजह है। यह तमाम कारोबार पंचायतों के ज़रिए ही नियंत्रित होते हैं।

पश्चिम बंगाल में हिंसा और राजनीति एक दूसरे के पूरक हैं। जब भी पश्चिम बंगाल में राजनीति की बात होती है तो पहले वहां की सियासी हिंसा की चर्चा होती है। वहां, हिंसा का नाता चुनाव से नहीं राजनीति से हो गया है। पश्चिम बंगाल में दशकों से राजनीतिक हिंसा का इतिहास है। राजनीतिक हिंसा की शुरुआत नक्सल आंदोलन के साथ हुई।

1960 से 1970 के बीच शुरू हुई नक्सली हिंसा धीरे-धीरे राजनीतिक हिंसा में बदल गई। 1977 में राज्य में लेफ्ट फ्रंट की सरकार आई जो 2011 तक यानी 34 साल तक रही। एक आंकड़े के मुताबिक इन 34 वर्षों के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा में 30 हजार लोग मारे गए। ममता बनर्जी के नेतृत्व में हुए नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन को पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस हिंसात्मक तरीके से दबाया वो ताबूत में आखिरी कील साबित हुई और 34 साल की सरकार का पतन हो गया। 

बहरहाल, 2011 में लेफ्ट सरकार के पतन के बाद लोगों को उम्मीद जगी कि अब सरकार बदलने के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पंचायत चुनाव हो या विधानसभा-लोकसभा चुनाव, पश्चिम बंगाल में हिंसा कम नहीं हुई। अब तो बिना किसी चुनाव के भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमला आम बात हो गई है। जबकि 1977 में कांग्रेस और 2011 में लेफ्ट फ्रंट सरकार की विदाई के पीछे कई वजहों में मुख्य वजह राजनीतिक हिंसा भी थी। ऐसे में आखिर कैसे बदलेगी यह तस्वीर!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन

एड फ्री अनुभव के लिए अमर उजाला प्रीमियम सब्सक्राइब करें

Next Article

Election
एप में पढ़ें

Followed