सब्सक्राइब करें
Hindi News ›   Columns ›   Opinion ›   Artist Preserving tradition with Indigenous Basket Environment Protection

समाज: टोकरियों के साथ परंपरा सहेजतीं कलाकार और पर्यावरण के सरोकार

Shefali Martins शेफाली मार्टिन्स
Updated Fri, 17 Mar 2023 06:08 AM IST
विज्ञापन
सार
सरधना गांव में पारंपरिक टोकरी निर्माताओं का समुदाय न केवल पारंपरिक शिल्प को बचाता है, बल्कि प्रदूषण कम करने में भी योगदान देता है।
loader
Artist Preserving tradition with Indigenous Basket Environment Protection
Indigenous Basket - फोटो : सोशल मीडिया

विस्तार
Follow Us

ग्रामीण भारत के लोग, विशेष रूप से खानाबदोश समुदाय, अनादि काल से परंपराओं को अपने जीवन और जीविका के रूप में जीते रहे हैं। लेकिन दुखद है कि अक्सर उन्हें नजर अंदाज कर दिया जाता है। और ऐसा तब है, जब हस्तशिल्प के नाम पर पूरे देश में मेले, प्रदर्शनियां और तरह-तरह के बाजार लगते हैं। उनका व्यवसाय पूरी तरह से प्लास्टिक मुक्त है। राजस्थान के प्रमुख पर्यटन स्थल अजमेर के बाहरी इलाके में आबाद सरधना गांव में पारंपरिक टोकरी निर्माताओं का एक खानाबदोश समुदाय है, जो कच्चे और अस्थायी घरों में रहता है और ये लोग खुद को जोगी मानते हैं। इस समुदाय के पुरुष आमतौर पर बांस को महीन पट्टियों में विभाजित करते हैं, जिनका उपयोग कर महिलाएं जमीन पर टोकरी बुनती हैं और बेचती हैं।



सात परिवारों वाली सरधना की इस बस्ती में 20 साल की इंदिरा जोगी पिछले चार साल से टोकरी बनाकर बेच रही हैं। उन्होंने बताया कि करीब 400-500 साल से हमारे पूर्वज यही काम करते रहे हैं। हम टोकरियां बनाकर सड़क किनारे बेचते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से टोकरियों की बिक्री न के बराबर रह गई है, क्योंकि स्थानीय दुकानदार इनसे टोकरियां खरीदने के बजाय असम से मंगवाते हैं, जहां बांस की उपलब्धता के कारण टोकरियों की लागत कम पड़ती है। सरधना में टोकरी बनाने वाले समुदाय को अपनी एक टोकरी को तीस रुपये से कम में बेचने पर मुनाफा नहीं होगा। इंदिरा की सास मुंगो जोगी कहती हैं कि यदि हम छोटी टोकरी भी दस रुपये में बेच दें, तो लागत खर्च भी नहीं निकल पाता है। पूरा परिवार मिलकर एक दिन में करीब चार से पांच टोकरी ही बना पाता है। इसमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री और बांस की कीमत करीब दो सौ रुपये पड़ती है।


इंदिरा के पति मुकेश ने बताया कि कई बार उन्हें होटलों के अंदर झोपड़ी जैसी संरचनाएं बनाने के ऑर्डर मिलते हैं। इसके अलावा इस समुदाय के पुरुष मजदूरी और अन्य काम भी करते हैं, लेकिन महिलाएं केवल टोकरियां ही बनाती हैं। डेढ़-दो दशक पूर्व इस समुदाय द्वारा बनाई गई टोकरियों का उपयोग पशु चारा खिलाने के लिए किया जाता था। लेकिन अब सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली प्लास्टिक की टोकरी आ जाने से लोग बांस की टोकरी नहीं खरीदते हैं। इससे इनके व्यवसाय को जबर्दस्त नुकसान हुआ है। मुंगो जोगी कहती हैं कि हम और क्या कर सकते हैं? हमारे पूर्वजों ने हमें केवल यही काम सिखाया है। हमें उनका अनुसरण करना है। हमें कोई दूसरा काम भी नहीं देता है। हम कभी स्कूल नहीं जा पाए, न ही हमारे पास करने के लिए कोई और काम या खेती है।'

मुंगो के घर के ठीक बगल में 30 वर्षीय जमना रहती है, जिसकी 12 वर्षीय बेटी एकुम पास के एक सरकारी स्कूल में पांचवीं की छात्रा है। एकुम ने अभी टोकरियां बनाना शुरू नहीं किया है, लेकिन जमना का मानना है कि वह भी यह काम सीख लेगी। फिलहाल एकुम और उनके छोटे भाई-बहन और अन्य बच्चे कूड़ा बीनने का काम करते हैं।

नवरात्रि के दौरान इनकी ठीक-ठाक कमाई हो जाती है, जब वे रावण के पुतले बनाकर शहर में बेचते हैं। जमना जोगी ने बताया कि शादियों में इन टोकरियों की मांग आज भी है। इन टोकरियों का उपयोग विवाह के अवसर पर सामान और कपड़े आदि भेजने के लिए किया जाता है। बांस की टोकरी बनाना आसान नहीं है। टोकरी के फ्रेम के चारों ओर लपेटने से पहले बांस के स्टैंड को पानी में डुबाया जाता है, फिर बुनाई शुरू होती है। फ्रेम के चौड़े किनारों को जोड़ने के लिए उसे चाकू से पतली पट्टियों में काटा जाता है। कई बार बांस की किरचें उंगलियों में चुभ जाती हैं, जिससे बहुत दर्द होता है।

अब मवेशियों को खिलाने के लिए प्लास्टिक की टोकरियों की मांग अधिक हो गई है, क्योंकि वे मजबूत और सस्ती होती हैं। इसके बावजूद सरधना समुदाय की महिलाएं टोकरियां बनाती हैं, क्योंकि वे न केवल पारिवारिक शिल्प और कला की रक्षा करती हैं, बल्कि देश को प्रदूषण से भी बचाती हैं। ऐसे में बांस की टोकरियों की उपेक्षा प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त हस्तकलाओं की उपेक्षा ही मानी जाएगी।

विज्ञापन
विज्ञापन
Trending Videos
विज्ञापन
विज्ञापन

Next Article

Followed