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रोशनी की यह यात्रा सदियों पुरानी: दीपावली महज लक्ष्मी-पूजन या धन-संपत्ति का पर्व नहीं, ज्ञान-विवेक का प्रकाश..

शास्त्री कोसलेंद्रदास (संस्कृत विद्वान) Published by: ज्योति भास्कर Updated Mon, 20 Oct 2025 06:48 AM IST
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सार
दीपावली केवल लक्ष्मी-पूजन या धन-संपत्ति का पर्व भर नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति की दीर्घ परंपरा का जीवंत प्रतीक है। यह पर्व ज्ञान और विवेक के प्रकाश का संदेश देता है।
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journey of light is centuries old Diwali not just festival of Lakshmi-worship spread knowledge and wisdom
दीपावली पर मां लक्ष्मी से आशीर्वाद की आकांक्षा - फोटो : अमर उजाला प्रिंट / एजेंसी

विस्तार
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अनादि काल से अंधेरे को हटाने के लिए नन्हे दीपों से प्रकाश का प्रसार करती दीपावली धर्म और संस्कृति का सबसे विराट निदर्शन है। दीप और आवली शब्दों के मेल से बने दीपावली शब्द का अर्थ है-दीपों की पंक्ति। अपभ्रंश और प्राकृत के कवियों ने इसे दिवाली, दीपाली व दीपालिका कहा है। विविध आस्थाओं वाले भारत में धार्मिक और सामाजिक पर्वों की बहुलता हर किसी को चकित करती है। इनमें भी रोशनी से जगमगाता प्रकाश पर्व दीपोत्सव अनूठा है।



भारतीय प्राच्य विद्याओं के महान अध्येता परशुराम कृष्ण गोडे ने 1952 में दीपावली पर तीन विद्वतापूर्ण आलेख लिखे, जो दीपावली और उसके उद्गम व विकास संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य बताते हैं। सन 1916 में ‘ऋग्वेदी’ नाम से लिखने वाले एक मराठी लेखक ने आर्यांच्या सणांचा इतिहास  ग्रंथ में बताया कि पर्वों ने समाज और धर्म को आपस में जोड़कर सांस्कृतिक परंपरा को अतीत से वर्तमान तक पहुंचाया है। बालकृष्ण आत्माराम गुप्ते ने अपनी पुस्तक हिंदू त्योहार और समारोह में दिवाली से संबंधित कई मत प्रस्तुत किए। एक मत यह है कि उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था। उन्होंने ही विक्रम संवत की गणना दीपावली के अगले दिन से शुरू की। गुजरात में आज भी नव संवत्सर का आरंभ इसी तिथि से होता है। जैनों के लिए पर्युषण के बाद दिवाली सबसे बड़ा पावन अवसर है। इसे महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है। कल्पसूत्र के अनुसार, जब महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, तब अठारह संघीय राजाओं और उपस्थित लोगों ने कहा, ‘जब ज्ञान का प्रकाश चला गया है, तो आइए हम अब भौतिक पदार्थों से निर्मित दीपों से उजाला करें।’


दीपावली से अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अर्थ जुड़े रहे हैं। यह सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने से हुए ऋतु परिवर्तन, धान की फसल की कटाई, अयोध्या में भगवान श्रीराम और उज्जैन में महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से जुड़ी हुई है। 1903 ईस्वी के बने एंग्लो-इंडियन शब्दकोश हॉब्सन-जॉब्सन के अनुसार, यह भगवान विष्णु के सम्मान में सजाई गई दीपों की पंक्तियों का पर्व है। इसे माता लक्ष्मी के सम्मान तथा श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर-वध और उसके अधीन 16 हजार कन्याओं की मुक्ति से जोड़ा गया है। राजस्थान के कोटा महाराव किशोर सिंह के राज्य में दीपावली पर होने वाली आतिशबाजी का अनोखा वर्णन भी इसमें है, जिसकी भव्यता का अनुकरण मराठा साम्राज्य के पेशवाओं ने भी किया। मेरुतुंग की ‘प्रबंध-चिंतामणि’ (1305 ईस्वी) में कोल्हापुर में हुई दिवाली का उल्लेख है, जिसमें दिवाली की शाम राजा व रानियों द्वारा महालक्ष्मी का पूजन किया गया है। महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी  (1290 ईस्वी) में दीपावली को अविवेकरूपी अंधकार को दूर कर विवेक के दीप प्रज्वलन में कहा है। 1260 ईस्वी में संपादित संस्कृत ग्रंथ हेमाद्रि ने दीपावली का उल्लेख आदित्य पुराण के हवाले से किया है और दीपावली को ‘सुख-सुप्तिका’ कहा है। इसमें भाई दूज पर यम द्वारा यमुना तट पर आकर भोजन करने का उल्लेख है। इससे यह भावना बनी कि भाई दूज पर भाई को बहन के घर जाकर भोजन करना चाहिए। हेमाद्रि ने दीपावली को ‘द्यूत-रात्रि’ भी कहा है। इसका संबंध दीपावली पर भगवान शिव और माता पार्वती द्वारा खेले गए द्यूत से है, जिसमें माता पार्वती की विजय हुई थी। शिव–पार्वती का पासा-खेल एलोरा की मूर्तियों में चित्रित है, जिसे राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम (757–772 ईस्वी) ने बनवाया था। वहां शिव–पार्वती पासा खेल रहे हैं और पासे के लिए ‘अक्ष’ शब्द है।
 
इटली से भारत भ्रमण पर आए निकोलो कोंटी ने 1420 और 1421 ईस्वी में विजयनगर में मनाई गई दीपावली का भावपूर्ण वर्णन किया है। वहीं, 1450 ईस्वी में लिखे आकाशभैरव ग्रंथ में दक्षिण भारत में मनाया गया दीपावली उत्सव है। अबुल फजल द्वारा फारसी में लिखी आइन-ए-अकबरी (1590 ईस्वी) में कार्तिक माह के त्योहारों का विवरण है। इसमें दीपावली को वैश्य वर्ग का खास उत्सव बताते हुए दीपों का पर्व कहा गया है। बादशाह अकबर दीपोत्सव में खुद भाग लेते थे। मुल्तान के कवि अब्दुल रहमान द्वारा 12वीं शताब्दी में अपभ्रंश में लिखी काव्य कृति संदेशरासक में दिवाली को ‘जोइक्खिहि’ पुकारा है। रहमान लिखते हैं-दिवाली पर भवन दीपों से ऐसे सजाए जाते हैं, मानो आकाश में चंद्रमा खिल उठा हो और स्त्रियां अंधेरे को अपनी आंखों में काजल के रूप में सजा रही हैं। भारत यात्रा पर आए अलबरूनी ने 1030 ईस्वी में वर्णन किया, ‘सूर्य के तुला राशि में होने पर कार्तिक की अमावस्या को दिवाली त्योहार आता है। इस दिन लोग एक-दूसरे को पान, सुपारी और मिठाई का उपहार देते हैं। मंदिरों में जाकर दान करते हैं और आपस में उल्लास से रहते हैं। रात में बड़ी संख्या में दीप जलाते हैं, जिससे वातावरण प्रकाशमय हो उठता है। हिंदुओं का विश्वास है कि यह समय सतयुग में भी शुभ माना जाता था।’ 960 ईस्वी में सोमदेव सूरी द्वारा संस्कृत में रचित चम्पू काव्य यशस्तिलक में दीपावली का वर्णन है, ‘स्त्रियों के सौंदर्य से उत्पन्न रमणीय उत्सव व भवनों से झलकती स्वर्ण आभा से आलोकित दीपोत्सव सभी को आनंद प्रदान करता है।’ महाराष्ट्र के श्रीपति द्वारा 1030 ईस्वी में लिखी ज्योतिष-रत्नमाला  में दिवाली की रात बनी ग्रह स्थिति का वर्णन है, जिससे इस रात्रि की विशिष्टता प्रकट होती है। कश्मीर में 6वीं ईस्वी में लिखे गए नीलमत पुराण में दीपावली का नाम दीपमाला है। श्रीहर्ष (ईस्वी 606-648) ने संस्कृत नाटक नागानंद में दीपावली को दीप-प्रतिपदुत्सव लिखा है।

ईस्वी 50 में वात्स्यायन के कामसूत्र में यक्षरात्रि एक महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में है। कामसूत्र पर 11वीं शती में भाष्य करते हुए आमेर (जयपुर) के यशोधर पंडित ने यक्षरात्रि की व्याख्या ‘सुखरात्रि’ के रूप में की है, जो यज्ञों और द्यूतक्रीड़ा से संपन्न होती थी। उन्होंने इसे ‘माहिमनी उत्सव’ (महान उद्देश्य से युक्त पर्व) कहा है। 12वीं शती के जैन आचार्य हेमचंद्र ने देशीनाममाला में यक्षरात्रि को प्राकृत में ‘जक्खरत्ती’ कहा है। इससे दीपावली की प्राचीनता वात्स्यायन के कामसूत्र तक जाती है। वहीं, ‘कंदर्पचूड़ामणि’ ने दीपावली की रात्रि को सुखरात्रि कहा है। दीपावली केवल लक्ष्मी-पूजन या धन-संपत्ति का पर्व भर नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति की दीर्घ परंपरा का जीवंत प्रतीक है। यह पर्व ज्ञान और विवेक के प्रकाश का संदेश देता है। समाज को एक सूत्र में बांधता है और अतीत से वर्तमान तक सांस्कृतिक निरंतरता को बनाए रखता है।

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