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अंधकार से जूझना है: दिवाली उस अंकुर को याद करने का मौका... जिससे मनुष्य की प्रार्थना को संकल्प का रूप मिला

हजारी प्रसाद द्विवेदी, साहित्यकार। Published by: ज्योति भास्कर Updated Mon, 20 Oct 2025 07:41 AM IST
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सार
दिवाली याद दिलाती है उस अंकुर की, जिसने मनुष्य की प्रार्थना को संकल्प का रूप दिया था-अंधकार से जूझना है, विघ्न-बाधाओं की उपेक्षा करके, संकटों का सामना करके।
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fighting darkness Diwali an opportunity to remember sprout that transformed human prayer in determination
दीपावली - फोटो : अमर उजाला ग्राफिक्स

विस्तार
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नजाने कब से मनुष्य के अंतरतर से ‘दीन रट’ निकलती रही : मैं अंधकार से घिर गया हूं, मुझे प्रकाश की ओर ले चलो-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ परंतु यह पुकार शायद सुनी नहीं गई-‘होत न श्याम सहाय।’ प्रकाश और अंधकार की आंखमिचौनी चलती ही रही, चलती ही रहेगी। यह तो विधि विधान है। कौन टाल सकता है इसे। लेकिन मनुष्य के अंतर्यामी निष्क्रिय नहीं हैं। वे थकते नहीं, रुकते नहीं, झुकते नहीं। वे अधीर भी नहीं होते। वैज्ञानिक का विश्वास है कि अनंत रूपों में विकसित होते-होते वे मनुष्य के विवेक रूप में प्रत्यक्ष हुए हैं। करोड़ों वर्ष लगे हैं इस रूप में प्रकट होने में। उन्होंने धीरज नहीं छोड़ा। वैज्ञानिक को ‘अंतर्यामी’ शब्द पसंद नहीं है। कदाचित वह प्राणशक्ति कहना पसंद करे। नाम का क्या झगड़ा है?



जीव का काम पुराकाल में स्पर्श से चल जाता था, बाद में उसने घ्राणशक्ति पाई। वह दूर-दूर की चीजों का अंदाजा लगाने लगा। पहले स्पर्श से भिन्न सब कुछ अंधकार था। अंतर्यामी रुके नहीं। घ्राण का जगत, फिर स्वाद का जगत, फिर रूप का जगत, फिर शब्द-शब्द का संसार। एक पर एक नए जगत उद्घाटित होते गए। कातर पुकार अब भी जारी है-‘तसमो मा ज्योतिर्गमय।’ न जाने कितने ज्योतिलोक उद्घाटित होने वाले हैं।


शब्द के बिंबों के विविक्तीकरण का परिणाम भाषा, काव्य और संगीत हैं, रूप बिंबों के विविक्तीकरण के फल रंग, उच्चावचता, ह्रस्व-दीर्घ वर्त्तुल आदि बिंब और फिर संकल्पशक्ति द्वारा विनियुक्त होने पर चित्र, मूर्ति, वास्तु, वस्त्र, अलंकरण, साज-सज्जा आदि। इसी तरह और भी इंद्रियगृहीत बिंबों का विवित्तीकरण, और संकल्प संयोजन से मानव सृष्ट सहस्रों नई चीजें। यह कोई मामूली बात नहीं है। अभ्यास के कारण इनका महत्व भुला दिया जाता है। पर भुलाना चाहिए नहीं। मनुष्य कुछ भुलक्कड़ हो गया है। लेकिन यह बहुत बड़ा दोष भी नहीं है। न भूले तो जीना ही दूभर हो जाए। मगर ऐसी बातों का भूलना जरूर बुरा है, जो उसे जीने की शक्ति देती हैं, सीधे खड़ा होने की प्रेरणा देती हैं।

किस दिन एक शुभ मुहूर्त में मनुष्य ने मिट्टी के दीये, रुई की बाती, चकमक की चिनगारी और बीजों से निकलने वाले स्रोत का संयोग देखा। अंधकार को जीता जा सकता है। दीया जलाया जा सकता है। घने अंधकार में डूबी धरती को आंशिक रूप में आलोकित किया जा सकता है। अंधकार से जूझने के संकल्प की जीत हुई। तब से मनुष्य ने इस दिशा में बड़ी प्रगति की है, पर वह आदिम प्रयास क्या भूलने की चीज है? वह मनुष्य की दीर्घकालीन कातर प्रार्थना का उज्ज्वल फल था।

दिवाली याद दिला जाती है उस ज्ञानलोक के अभिनव अंकुर की, जिसने मनुष्य की कातर प्रार्थना को दृढ़ संकल्प का रूप दिया था-अंधकार से जूझना है, विघ्न-बाधाओं की उपेक्षा करके, संकटों का सामना करके। इधर कुछ दिनों से शिथिल स्वर सुनाई देने लगे हैं। लोग कहते सुने जाते हैं-अंधकार महाबलवान है, उससे जूझने का संकल्प मूढ़ आदर्श मात्र है। सोचता हूं, यह क्या संकल्प शक्ति का पराभव है? क्या मनुष्यता की अवमानना है? दिवाली आकर कह जाती है, अंधकार से जूझने का संकल्प ही सही यथार्थ है। मृगमरीचिका में मत भटको। अंधकार की सैकड़ों परतें हैं। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी पूजा कहते हैं।

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