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दलाई लामा: तिब्बत की आत्मा को कौन नियंत्रित करेगा? सत्ता अक्सर धर्मनिष्ठता को रौंदती है, पुनर्जन्म का मतलब...
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दलाई लामा
- फोटो :
अमर उजाला नेटवर्क
विस्तार
चौदहवें दलाई लामा की उम्र 90 साल पूरी होने पर दुनिया न केवल एक अाध्यात्मिक प्रतीक के जन्मोत्सव का जश्न मना रही है, बल्कि तिब्बत के बर्फीले पठारों, धर्मशाला के भीड़-भाड़ युक्त शरणार्थी शिविरों तथा बीजिंग और वाशिंगटन के अपारदर्शी सत्ता गलियारों तक फैले भू-राजनीतिक टकराव के रूप में भी देख रही है। उनकी बढ़ती उम्र मौलिक सवाल खड़ा करती है : तिब्बत की आत्मा को कौन नियंत्रित करेगा-निर्वासित आस्था या उस पर कब्जा करने वाली ताकत?
वैचारिक नियंत्रण से आसक्त चीन पुनर्जन्म की प्रक्रिया के बहाने एक छद्म दलाई लामा को उनकी जगह पर स्थापित करने की तैयारी कर रहा है, जो बीजिंग की धार्मिक कठपुतली के रूप में काम करेगा। पश्चिम, विशेषकर अमेरिका इस पर करीब से नजर रखे हुए है, जो जानता है कि यह केवल धार्मिक विवाद न होकर वैश्विक सिद्धांतों-धार्मिक स्वतंत्रता, स्वाधीनता और नैतिक नेतृत्व का मसला है।
दलाई लामा का उत्तराधिकार 21वीं सदी में निरंकुशता और आध्यात्मिक स्वायत्तता, चीन की निष्ठुर और भारत की सौम्य शक्ति तथा तिब्बती आस्था और वैश्विक मौन के बीच शक्ति संतुलन की निर्णायक परीक्षा बनने जा रहा है। 1980 के दशक के मध्य में उनसे (दलाई लामा) हुई मुलाकातों को याद करते हुए कह सकता हूं कि लोकतंत्र की भावना उनके व्यक्तित्व में गहरे तक समाई हुई है। यह बात तब स्पष्ट नजर आई, जब उन्होंने स्वेच्छा से तिब्बत की निर्वासित सरकार के राजनीतिक मुखिया का पद त्याग दिया था, जिससे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त हुआ।
दलाई लामा : क्रूर दुनिया में नैतिक शक्ति : 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो बीते छह दशकों से भी ज्यादा समय से पराधीन लोगों की उम्मीदों और तिब्बत पर नजर गड़ाए विश्व की अंतरात्मा को संभाले हुए हैं। तिब्बत में चीन के क्रूर दमन के कारण 1959 में भारत आने के बाद से ही वह अहिंसक प्रतिरोध की जीवंत प्रतिमूर्ति बने हुए हैं। उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार तो मिला ही है, धार्मिक और राष्ट्रीय सीमाओं से परे लाखों लोग उनका सम्मान करते हैं।
हालांकि, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी उन्हें अलगाववादी खतरा मानती है। बीजिंग द्वारा दशकों तक उन्हें बदनाम करने के बावजूद उनकी वैश्विक नैतिक प्रतिष्ठा पर रत्ती भर आंच नहीं आई है, लेकिन इससे तिब्बती बौद्ध धर्म के भविष्य को नियंत्रित करने की चीन की दृढ़ता में भी कोई कमी नहीं आई है। बीजिंग अपनी 1995 की पंचेन लामा वाली रणनीति दोहराकर आध्यात्मिक वैधता की जगह राजनीतिक अनुपालन को स्थापित करने की तैयारी में है।
पुनर्जन्म की रस्साकशी : पारंपरिक रूप से दलाई लामा के उत्तराधिकारी को वरिष्ठ भिक्षुओं द्वारा अनुष्ठानों, संकेतों और अंतर्दृष्टि के जरिये पहचाना जाता है, लेकिन इस वक्त चीन ने आध्यात्मिक परंपरा और अंतरराष्ट्रीय मानक, दोनों को धता बताते हुए घोषणा कर दी है कि केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही उनके पुनर्जन्म को स्वीकृति दे सकती है। हालांकि, दलाई लामा ने इसे रोकने की कोशिश की है और जीवित रहते हुए ही उत्तराधिकारी चुनने से लेकर संभवत: परंपरा को समाप्त करने तक के विचार व्यक्त किए हैं। उनका लक्ष्य स्पष्ट है : बीजिंग को वह वैधता न देना, जिसकी वह लालसा रखता है।
भारत का नाजुक संतुलन : दलाई लामा और एक लाख से अधिक निर्वासित तिब्बतियों को आश्रय देने की वजह से भारत कूटनीतिक दुविधा में फंसा हुआ है। दशकों से भारत ने न केवल उन्हें आश्रय दिया, बल्कि करुणा का प्रतीक भी मानता रहा है। फिर भी, हाल के वर्षों में नई दिल्ली ने बीजिंग को उकसाने के बजाय कूटनीतिक नरमी के संकेत दिए हैं-तिब्बती आयोजनों में अधिकारियों की सहभागिता को कम किया है, तो उत्तराधिकार के मसले पर संयम बरत रहा है। भारत का भूगोल और इतिहास उसे इस मुद्दे से जोड़े रखता है। निर्वासित तिब्बती भिक्षुओं द्वारा चुने जाने वाले किसी भी भावी दलाई लामा के भारत में ही रहने की संभावना है। उस आध्यात्मिक नेता को मान्यता देने या नकारने से भारत वैश्विक बहस के केंद्र में होगा। नई दिल्ली संशय में नहीं रह सकती : बीजिंग द्वारा बनाए जाने वाले लामा का पक्ष लेने से दशकों की नैतिक पूंजी नष्ट होगी, तो तिब्बती परंपरा के साथ खड़ा होना आध्यात्मिक स्वतंत्रता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि होगी।
अमेरिकी दृढ़ता : भारत के विपरीत अमेरिका ने सैद्धांतिक और सक्रिय रुख अपनाया है। 2020 का तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम दृढ़ता से कहता है कि अगले दलाई लामा का चुनाव पूरी तरह से तिब्बती धार्मिक समुदाय करेगा। अगर चीन इसमें कोई दखल देता है, तो उस पर प्रतिबंध लगाए जाएंगे-जो वैश्विक मामलों में विधायी नैतिक स्पष्टता का एक दुर्लभ उदाहरण है। वाशिंगटन और धर्मशाला के बीच यह गठजोड़ तिब्बती धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ की रीढ़ बन सकता है। लेकिन इसकी सफलता के लिए भारत को खुलकर सामने आना होगा। रणनीतिक अस्पष्टता के जोखिम बहुत हैं।
वैश्विक दांव पर आध्यात्मिक संकट : दलाई लामा का 90वां जन्मदिन सिर्फ उत्सव का क्षण नहीं है, बल्कि चेतावनी की घंटी भी है। उनके बाद वाली शून्यता को भरने के लिए चीन उतावला है। लेकिन दुनिया को निर्णय लेना होगा कि वह राज्य प्रायोजित मुखौटे को स्वीकार करेगी या फिर आस्था पर आधारित आध्यात्मिक वंश की प्रामाणिकता की रक्षा करेगी? दलाई लामा का पुनर्जन्म चीन के लिए संप्रभुता, तिब्बतियों के लिए अस्तित्व और दुनिया के लिए उस युग में सिद्धांतों के पक्ष में खड़े होना है, जहां सत्ता अक्सर धर्मनिष्ठता को रौंद देती है।
राजनीति से परे विरासत का संरक्षण : दलाई लामा के जीवन ने सदियों के आध्यात्मिक ज्ञान और दशकों के राजनीतिक निर्वासन के बीच सेतु का काम किया है। उनकी शिक्षाएं सीमाओं से परे हैं, तो आवाज इस अराजक दुनिया में अंतिम नैतिक दिशा-सूचकों में से एक है, लेकिन उनका उत्तराधिकार वैश्विक समुदाय की परीक्षा लेगा कि वह सत्ता या सिद्धांत और ताकत या आस्था में से किसे चुनता है। भारत के पास कर्तव्य और मौका, दोनों हैं। अगले दलाई लामा की मान्यता की आध्यात्मिक पवित्रता की रक्षा करके वह चीन के दबाव वाले क्षेत्र में नैतिक अधिकार के साथ नेतृत्व कर सकता है। पश्चिम को भी कानून से आगे बढ़कर तिब्बती धार्मिक स्वायत्तता को स्पष्ट समर्थन देना होगा। 90 वर्ष की उम्र में भी दलाई लामा गरिमा का जीवंत उदाहरण बने हुए हैं। विश्व बिरादरी को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी विरासत को बीजिंग की स्याही से दोबारा न लिखा जाए।