मंथन: कब दूर होगी मजहबी-वैचारिक असहिष्णुता और प्रभुत्व की बीमारी, बहुत कुछ कहता है मानव जाति का खूनी इतिहास
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विस्तार
बीते दिनों पश्चिम एशिया एक बार फिर युद्ध की आग में झुलसने से बचा, जब ईरान-इस्राइल के बीच अस्थायी युद्ध विराम हुआ। यह कोई पहला संघर्ष नहीं था, न ही यह आखिरी। हालिया घटनाक्रम इतिहास का वह दर्पण है, जिसमें मनुष्य की अंतहीन शांति-कामना और उसकी रक्तरंजित प्रवृत्तियों का विरोधाभास साफ दिखता है। विडंबना यह है कि एक ओर मानव जाति विश्व शांति के स्वप्न देखती है, वहीं दूसरी ओर उसका इतिहास खून-खराबे और नरसंहारों से अटा पड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक, सन 1800 से अब तक लगभग चार करोड़ लोग सशस्त्र संघर्षों में मारे जा चुके हैं, जबकि समस्त इतिहास में हिंसा और युद्धों के चलते मृत्यु का आंकड़ा इससे कहीं अधिक गुना में पहुंच जाता है। ये आंकड़े चीत्कार कर कहते हैं-मानवता को सबसे बड़ा खतरा किसी प्राकृतिक आपदा या महामारी से नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य और उसकी विकृत मानसिकता से है।
इस वैश्विक संकट की जड़ तीन स्थायी विकृतियों में निहित है-पहला, असीमित व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं; दूसरा, साम्राज्यवादी सोच; और तीसरा, मजहबी असहिष्णुता। ये तीनों या फिर इन तीनों का घातक मेल ही मानव सभ्यता को बार-बार विनाश की ओर धकेलता है। विशेष रूप से वे मजहबी चिंतन जो एक ही ईश्वर, एक ही ग्रंथ, एक ही मार्ग की बात करते हैं और बाकी सभी आस्थाओं को झूठा, काफिर-कुफ्र, पेगन-हीथेन और दंडनीय मानते हैं-वे वैश्विक सौहार्द के सबसे बड़े अवरोधक हैं।
विश्व की सबसे पुरानी अब्राहमिक परंपरा यहूदी मजहब से शुरू होती है, जिसका आधार ग्रंथ ‘तोरा’ है। सैकड़ों वर्ष पहले इसी समाज में ईसा मसीह का जन्म हुआ, जिन्होंने भाईचारे और प्रेम का संदेश दिया। परंतु लाखों ईसाई मानते हैं कि यहूदी षड्यंत्रों के चलते ही ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया। यही आरोप सदियों तक दो मजहबों के बीच खाई बनाता गया। चर्च के प्रभुत्व के बाद रोमन साम्राज्य में यहूदियों का दमन शुरू हुआ-उन्हें कानूनी, सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेल दिया गया, जो कि मध्यकाल तक बदस्तूर जारी रहा। यहूदियों की इस पीड़ा का चरम उदाहरण एडोल्फ हिटलर के नाजी शासन में देखा गया, जिसने 60 लाख से अधिक यहूदियों का नरसंहार किया। सातवीं शताब्दी में इस्लाम का उदय हुआ, और मजहबी-राजनीतिक कारणों से यहूदी-विरोध एक नई सूरत में उभरा।
इतिहासकार और इस्लामी विशेषज्ञ प्रो. इश्तियाक अहमद जिल्ली द्वारा अनुवादित तारीख-ए-फिरोजशाही के अनुसार, खलीफा उमर ने अरब, सीरिया, मिस्र, खुरासान और रोम तक इस्लाम को तलवार के बल पर फैलाया। मूर्तिपूजा और अग्निपूजा का समूल नाश किया गया। भारत में भी मोहम्मद बिन कासिम, गजनवी, गोरी, बाबर और टीपू सुल्तान जैसे इस्लामी आक्रांताओं के आक्रमणों का एक रक्तरंजित इतिहास है, जिसकी गवाही खुद उनके दरबारी और समकालीन इतिहासकार देते हैं।
यह कट्टरता केवल एक मजहब तक सीमित नहीं। ईसाइयत ने भी अपने इतिहास में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। 1095 से 1291 तक चले क्रूसेड्स में ईसाई सेनाओं ने यरुशलम के नाम पर लाखों लोगों (मुस्लिम सहित) का संहार किया। चर्च की ‘इंक्विजिशन’ नीतियों ने स्पेन, पुर्तगाल, गोवा, मेक्सिको में रक्त से क्रूरता की नई परिभाषाएं गढ़ीं। चुड़ैल बताकर हजारों महिलाओं को जीवित जलाना, चर्च की मान्यताओं से असहमत लोगों की जीभ काटना, अंग-भंग करना-ये सब मजहब प्रेरित हिंसा को वैधता प्रदान करने की भयावह मिसालें हैं। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और गांधी जी सहित अनेक महान स्वतंत्रता सेनानियों ने भी चर्च प्रेरित अत्याचारों का संज्ञान लिया है।
बीसवीं सदी आते-आते यह सोचा गया कि शायद सभ्यता अब युद्धों से ऊपर उठ चुकी है। परंतु इतिहास ने एक बार फिर गलत साबित किया। पहला विश्वयुद्ध (1914-18) मानवता के लिए घातक सिद्ध हुआ। इसके बाद वैश्विक शांति के लिए ‘लीग ऑफ नेशंस’ बनाई गई, पर वह ध्वस्त हो गई। 1939 से 1945 तक दूसरा विश्वयुद्ध और भी अधिक भयानक रूप में आया। तब जाकर 1945 में ‘संयुक्त राष्ट्र’ की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य वैश्विक युद्ध रोकना था। लेकिन क्या वास्तव में वह उद्देश्य पूरा हुआ?
यदि हम तथ्यों की आंखों से देखें, तो उत्तर नकारात्मक है। कोरिया युद्ध (1950–53), अरब-इस्राइल युद्ध (1948, 1967), भारत-चीन युद्ध (1962), भारत से चार प्रत्यक्ष युद्धों में पराजित पाकिस्तान की आतंकवाद आधारित नीति (1971 के बाद), सोवियत-अफगान संघर्ष (1978–89), 2001 का न्यूयॉर्क 9/11 आतंकवादी हमला, इराक युद्ध (2003-11), अफगानिस्तान युद्ध (2001-21), जिहाद और हालिया ईरान-इस्राइल-अमेरिका टकराव-ये सभी उस सच्चाई की गवाही देते हैं कि मजहब, भूखंड और सत्ता का संगम विश्व को लगातार हिंसक बनाए हुए है और ऐसा शायद आगे भी जारी रहेगा। यह आश्चर्य नहीं कि इन सभी संघर्षों का केंद्रबिंदु मजहबी अवधारणाएं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और साम्राज्यवादी चिंतन हैं। प्रश्न उठता है कि क्या मजहब के बिना, यानी नास्तिक या मजहब-विहीन समाज ही शांति का विकल्प हो सकता है? वामपंथी विचारधारा इसी भ्रम को फैलाती है। पर सोवियत संघ, चीन और उत्तर कोरिया जैसे कम्युनिस्ट शासन ने मजहब के साथ मौलिक मानवाधिकारों को भी निर्ममता से कुचला-और बावजूद इसके संतुष्ट और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सके। चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों पर हो रहा राज्य प्रायोजित दमन आज की दुनिया का सबसे बड़ा और मुखर मजहबी अत्याचार है। लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल पोट और किम जोंग जैसे कम्युनिस्ट तानाशाहों ने वामपंथी सनक में असंख्य लोगों की हत्या करवाई। स्पष्ट है-न तो मजहबी कट्टरता और न ही नास्तिकता अपने आप में शांति की गारंटी है।
असल समस्या यह है कि दुनिया अब तक अपनी सबसे बड़ी बीमारी की पहचान नहीं कर पाई-वह बीमारी है मजहबी-वैचारिक असहिष्णुता और प्रभुत्व की लालसा, जब तक हम इस बीमारी के लक्षणों को पहचानकर उसका साहसी और वस्तुनिष्ठ उपचार नहीं करेंगे, तब तक कोई ‘संयुक्त राष्ट्र’ या इस जैसा कोई भी बड़ा वैश्विक मंच दुनिया को अमन की राह पर नहीं ला पाएगा। विश्व शांति की राह तब ही प्रशस्त हो सकती है, जब हम एकेश्वरवाद, वैचारिक आतंकवाद और औपनिवेशिक मानसिकता से ऊपर उठकर बहुलतावाद, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और पारस्परिक सम्मान को अपनाएं। एकपक्षीय सत्य, चाहे वह मजहबी हो या वैचारिक-उसने हमेशा लहू बहाया है और ऐसा आज भी जारी है। क्या इसका अंत संभव है? शायद नहीं।