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मराठी अस्मिता और सियासत: खोया जनाधार पाने की जद्दोजहद में ठाकरे... स्वार्थ के लिए भाषा को हथियार बनाना खतरनाक
अमर उजाला, नई दिल्ली।
Published by: ज्योति भास्कर
Updated Mon, 07 Jul 2025 02:37 PM IST
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मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे (फाइल)
- फोटो :
एएनआई
विस्तार
करीब दो दशकों बाद उद्धव और राज ठाकरे, दोनों का एक मंच पर आना और मराठी अस्मिता के नाम पर हिंदी विरोध का झंडा बुलंद करना अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाए रखने की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा तो प्रतीत होता ही है, यह कदम उनकी प्रतिबद्धताओं पर भी सवाल उठाता है, जो हमेशा से ही संदिग्ध रही हैं।ठाकरे बंधुओं ने केंद्र की शिक्षा नीति को निशाना बनाया
उल्लेखनीय है कि 1960 के दशक में महाराष्ट्र और गुजरात के विभाजन के बाद से महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता की राजनीति समय–समय पर उभरती रही है। फिलहाल ठाकरे बंधुओं ने केंद्र की शिक्षा नीति को निशाना बनाया, जिसमें हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव है। हालांकि उनकी रैली से पहले ही सरकार ने तीन भाषा नीति से जुड़े अपने आदेश वापस ले लिए, फिर भी रैली का आयोजन किया गया, तो इसकी वजह राजनीतिक ही है।
भावनाएं भड़काने की रणनीति नई नहीं, गुंडागर्दी को जायज साबित करने की कोशिश...
कर्नाटक और तमिलनाडु की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी हिंदी थोपने के आरोप के बहाने स्थानीय भाषा बोलने वालों की भावनाएं भड़काने की रणनीति नई नहीं हैं। यह एक तरह का राजनीतिक अवसरवाद है, जिसका इस्तेमाल वोटों की खातिर होता रहा है। जब राजनीतिक दलों और नेताओं का राजनीतिक अस्तित्व खतरे में हो, तो यह रणनीति ही एकमात्र राह बचती है, लेकिन उद्धव ठाकरे जिस तरह से गुंडागर्दी को जायज साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने भाषा को ही राजनीतिक हथियार बना लिया है। जब वह मुंबई व महाराष्ट्र की सत्ता हथियाने की बात करते हैं, तो यह बयान उनकी मंशा को और स्पष्टता के साथ उजागर करता है।
ठाकरे बंधु जिस तरह का विमर्श खड़ा कर रहे हैं...
दरअसल, अपनी सुविधा के लिए कभी उनका कांग्रेस के साथ खड़ा होना, तो कभी हिंदुत्व के मान बिंदु बन जाना उनकी राजनीति का तरीका है, जिसका भाषा व संस्कृति से कुछ लेना-देना नहीं है। हिंदी को थोपा गया बताकर ठाकरे बंधु जिस तरह का विमर्श खड़ा कर रहे हैं, वह भ्रामक होने के साथ राष्ट्रीय एकता को भी नुकसान पहुंचा सकता है।
संकीर्ण क्षेत्रीयता और भाषाई उन्माद लंबे समय तक नहीं टिकता
हिंदी निस्संदेह भारत की संपर्क भाषा है, जिसे अधिसंख्य जनता समझती है। हिंदी की ऐसी स्वाभाविक स्वीकार्यता के बावजूद उसे खतरे के रूप में पेश करना तर्कसंगत नहीं दिखता। इतिहास गवाह है कि संकीर्ण क्षेत्रीयता और भाषाई उन्माद लंबे समय तक नहीं टिकता।
स्वार्थ के लिए इस विषय को राजनीतिक बनाना खतरनाक
महाराष्ट्र की जनता समझदार है और उसकी नजर इस पर भी होगी कि इन नेताओं को आखिर क्यों मराठवाड़ा में किसानों की दुर्दशा नहीं दिखती। जनता को चाहिए कि वह ऐसी विभाजनकारी राजनीति को नकारे, क्योंकि भाषा जोड़ने का माध्यम होनी चाहिए, न कि समाज को तोड़ने का औजार। भाषाएं सभी अच्छी हैं। अपने स्वार्थ के लिए इस विषय को राजनीतिक बनाने से स्थितियां खतरनाक मोड़ ले सकती हैं।