Homebound Movie Review: दोस्ती, दर्द और समाज की बेड़ियों में जिंदा बची उम्मीद; एक कहानी जो आपको रुला देगी
Homebound Movie Review: फिल्म 'होमबाउंड' लगातार चर्चा में है। यह फिल्म विदेशों में आयोजित हुए कई प्रतिष्ठित फिल्म समारोह में प्रदर्शित हो चुकी है। अब भारतीय दर्शकों के बीच भी यह पहुंचने वाली है। भारत में 'होमबाउंड' 26 सितंबर 2025 को रिलीज होगी। इससे पहले पढ़िए इसका रिव्यू...

विस्तार
कभी कभी कुछ फिल्मे हमारे साथ चलती हैं, हमें सवाल देती हैं और हमें भीतर से झकझोर जाती हैं। 'होमबाउंड' ऐसी ही फिल्म है। नीरज घेवान की 2015 की 'मसान' ने हमें गंगा किनारे के दर्द से मिलवाया था, जहां सपने और हकीकत टकराते हैं। लगभग एक दशक बाद, 'होमबाउंड' उसी संवेदनशील नजर से हमारी जिंदगी के दूसरे सच सामने रखती है... छोटे कस्बों की दीवारें, जात-पात और धर्म की बेड़ियां और सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद।

कहानी
कहानी दो दोस्तों की है - मोहम्मद शोएब (ईशान खट्टर) और चंदन कुमार (विशाल जेठवा)। दोनों का सपना है पुलिस की वर्दी पहनना। लेकिन समाज की पुरानी दीवारें बार-बार उनके रास्ते में आ खड़ी होती हैं - शोएब को उसकी धार्मिक पहचान रोकती है और चंदन को उसकी जाति। यह संघर्ष हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या मेहनत और लगन सचमुच काफी हैं, या हमारे सपनों से भी बड़ी समाज की ये पुरानी जंजीरें हैं। कहानी में सुधा भारती (जान्हवी कपूर) का किरदार रोशनी की तरह आता है। वह हालात से लड़ते हुए भी बड़े सपने देखती है और उम्मीद का प्रतीक बनती है।

अभिनय
अभिनय 'होमबाउंड' की सबसे बड़ी ताकत है। ईशान खट्टर ने मोहम्मद शोएब के किरदार में जान डाल दी है। उनकी आंखों में कभी सपनों की चमक दिखती है, तो कभी टूटी उम्मीदों का दर्द। उनके चेहरे की खामोशी कई बार उन शब्दों से ज्यादा बोलती है, जो जुबान पर नहीं आते। विशाल जेठवा चंदन के रूप में पूरी फिल्म का दिल हैं। उनकी सादगी, उनकी चुप्पी और भीतर की आग इतनी सच्ची लगती है कि हर सीन आपको झकझोर देता है। उनकी अदाकारी हमें बार-बार 'मसान' के दीपक (विक्की कौशल) की याद दिलाती है... वही दर्द और वही सपनों की जिद।
जान्हवी कपूर सुधा भारती के किरदार में कम लेकिन असरदार मौजूदगी दर्ज कराती हैं। उनकी सादगी कहानी में एक ताजगी भर देती है। बस अफसोस यही है कि उनके किरदार को और गहराई दी जाती तो वह और भी यादगार बन सकती थीं। वहीं सपोर्टिंग कास्ट ने भी पूरी फिल्म को असली रंग दिया है.. हर छोटा किरदार कहानी को और रियल बना देता है।
निर्देशन
निर्देशन की बात करें तो नीरज घेवान फिर साबित करते हैं कि वह आम इंसानों की कहानियों को असली जमीन पर उतारना जानते हैं। 'मसान' में जहां गंगा घाट और जलती चिताओं के बीच की जिंदगी दिखाई थी, वहीं 'होमबाउंड' में लॉकडाउन, जहां की गलियां और छोटे घरों की तंग खामोशियां दिखती हैं। हर सीन बिल्कुल हकीकत जैसा लगता है। कैमरे की नजर इतनी सच्ची है कि आप खुद को वहीं खड़ा महसूस करते हैं।

संगीत
फिल्म का संगीत सादा, लेकिन असरदार है। गाने अमित त्रिवेदी ने बनाए हैं और बैकग्राउंड म्यूजिक नारायण चंद्रवर्खर और बेनेडिक्ट टेलर का है। गाने कम हैं... पर जहां आते हैं वहां कहानी में गहराई और भावनाओं को और मजबूत कर देते हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक भी दिल को छू जाता है... खामोश पलों में दर्द और उम्मीद दोनों का एहसास कराता है।

कमियां
फिल्म में कुछ बारीकी कमियां भी हैं। बीच-बीच में इसकी गति हल्की धीमी हो जाती है। जान्हवी कपूर का किरदार खूबसूरत है, मगर उसे और जगह दी जाती तो कहानी और बेहतर हो सकती थी। चूंकि यह फिल्म हल्की-फुल्की नहीं, बल्कि भारी और सोचने पर मजबूर करने वाली है, हर दर्शक के लिए आसान नहीं होगी।

देखे कि नहीं
'होमबाउंड' जरूर देखनी चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि समाज का आईना है... जहां दोस्ती, जात-पात, धर्म और सपनों की जद्दोजहद एक साथ टकराते हैं। नीरज घेवान का निर्देशन हर सीन को असली और संवेदनशील बना देता है। हां, फिल्म थोड़ी धीमी और भारी लग सकती है, लेकिन अगर आप सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एहसास और अनुभव मानते हैं, तो यह फिल्म आपके दिल में जरूर घर बना लेगी।