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Supreme Court: 'महाराष्ट्र में तीन साल का गठबंधन एक रात में कैसे टूटा?' राज्यपाल की भूमिका पर भी सुप्रीम सवाल
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: शिव शरण शुक्ला
Updated Wed, 15 Mar 2023 09:00 PM IST
सार
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा एक पार्टी के भीतर विधायकों के बीच मतभेद किसी भी आधार पर हो सकता है जैसे कि विकास निधि का भुगतान या पार्टी लोकाचार से विचलन, लेकिन क्या यह राज्यपाल के लिए शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने के लिए पर्याप्त आधार हो सकता है?
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महाराष्ट्र सियासी संकट पर सुप्रीम सुनवाई
- फोटो : Amar Ujala
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विस्तार
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बीते साल जून में हुए महाराष्ट्र के सियासी संकट में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठाते हुए बुधवार को अहम टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सत्ताधारी दल के विधायकों के बीच मतभेद राज्यपाल की ओर से मुख्यमंत्री को शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने का आधार नहीं हो सकता। राज्यपाल के ऐसा करने से निर्वाचित सरकार गिर भी सकती है। राज्यपाल एक विशेष परिणाम के लिए अपने दफ्तर के प्रभाव का इस्तेमाल नहीं होने दे सकते। ऐसा करना लोकतंत्र के लिए एक दुखद तमाशा होगा।
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मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि पार्टी के भीतर विधायकों के बीच मतभेद किसी भी आधार पर हो सकता है, जैसे-विकास निधि का भुगतान या पार्टी लोकाचार से विचलन। लेकिन, क्या यह राज्यपाल के लिए शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने का पर्याप्त आधार हो सकता है?
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सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल बीएस कोश्यारी की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, राज्यपाल के सामने शक्ति परीक्षण कराने के कई आधार थे। इनमें शिवसेना के 34 विधायकों के दस्तखत वाला पत्र, उद्धव ठाकरे सरकार से समर्थन वापसी की निर्दलीय विधायकों की चिट्ठी और विपक्ष के नेता का आवेदन, इन सबने उन्हें शक्ति परीक्षण का आदेश देने के लिए प्रेरित किया। हालांकि कोश्यारी के शक्ति परीक्षण के न्योते से पहले ही उद्धव ठाकरे ने हार के डर से इस्तीफा दे दिया था, जिससे एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता साफ हो गया।
राज्यपाल को अपनी शक्तियों का इस्तेमाल सावधानी से करना चाहिए
सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा, यह मामला सिर्फ राज्यपाल की शक्तियों के मुद्दे पर है। राज्यपाल को इन शक्तियों का इस्तेमाल बड़ी सावधानी से करना चाहिए। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि 34 विधायक शिवसेना का हिस्सा थे, चाहे उनका आंतरिक मामला कुछ भी हो। राज्यपाल यह नहीं कह सकते कि इन 34 विधायकों का पत्र सरकार के विश्वास को डगमगाने का आधार है। राज्यपाल को 34 विधायकों के पत्र का अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि उन्होंने समर्थन वापस ले लिया है। अब, यदि 34 विधायक शिवसेना का हिस्सा हैं, तो राज्यपाल के सामने कौन सा ठोस आधार है जो शक्ति परीक्षण की मांग करता। पीठ ने कहा, राज्यपालों को विशेष ध्यान देना होगा और ऐसे मामले में पर्याप्त मशक्कत करनी चाहिए।
आयोग ने कहा, अपनी शक्ति का किया प्रयोग
चुनाव आयोग ने अपने आदेश में एकनाथ शिंदे गुट को शिवसेना के रूप में मान्यता और उसे ‘धनुष और तीर’ चिह्न आवंटित किया था। विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) पर नोटिस के जवाब में आयोग ने कहा, मामलों की एक शृंखला में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि जब अर्ध-न्यायिक निकाय से पारित आदेश को अपीलीय अदालत के समक्ष चुनौती दी जाती है तो ऐसे निकाय को अपील में पक्षकार के रूप में रखना जरूरी नहीं है। आयोग ने यह भी बताया कि प्रतीक आदेश आयोग ने संविधान के अनुच्छेद- 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा- 29ए के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए पारित किया है।
1994 के नौ सदस्यीय पीठ के फैसले का हवाला दिया
मेहता ने 1994 के नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ के एसआर बोम्मई मामले के फैसले का उल्लेख किया। उन्होंने कहा, यह एक स्थापित कानून है कि राज्यपाल मूकदर्शक नहीं रह सकते हैं और उन्हें मीडिया रिपोर्टों समेत पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए कार्य करना होगा। इस पर सीजेआई ने कहा, मान लीजिए कि विधायकों के एक समूह को लगता है कि उनके नेता ने पार्टी के लोकाचार और अनुशासन का पालन नहीं किया है, तो वे हमेशा पार्टी फोरम के भीतर नेतृत्व परिवर्तन के लिए कह सकते हैं।
राज्यपाल का पत्र देखिये...उन्हें भरोसा था कि ठाकरे ने विश्वास खो दिया है
तत्कालीन राज्यपाल बीएस कोश्यारी की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, राज्यपाल ने यह कतई निर्धारित नहीं किया था कि उद्धव ठाकरे ने विश्वास खोया है या नहीं। उन्होंने उनसे सिर्फ अपने सामने पेश विकल्पों के आधार पर बहुमत साबित करने के लिए बुलाया था। इस पर सीजेआई जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, राज्यपाल का पत्र देखें। उससे स्पष्ट होता है कि उन्हें पहले से ही विश्वास है कि ठाकरे ने सदन के अंदर विश्वास खो दिया है। आखिर राज्यपाल यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हैं? क्या राज्यपाल इस बात से बेखबर हो सकते हैं कि पिछले तीन साल से सरकार चल रही है और गठबंधन की तीन में से दो पार्टियां चट्टान की तरह मजबूत हैं? पूरे समय कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) एक ठोस गुट बने रहे। यह केवल शिवसेना में है जहां व्यवधान और असंतोष था।
सीजेआई ने कहा, शिवसेना कोई पिछलग्गू दल नहीं, बल्कि गठबंधन के समान रूप से महत्वपूर्ण दल में से एक था। क्या गठबंधन की एक पार्टी में असंतोष मुख्यमंत्री को शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने की खातिर पर्याप्त हो सकता है। यही हमारी चिंता है और यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है।
राज्यपाल की जिम्मेदारी है स्थिर सरकार
मेहता ने कहा, राज्यपाल की प्राथमिक जिम्मेदारी यह देखना है कि राज्य में एक स्थिर सरकार बनी रहे। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं को अपने कार्यकाल के दौरान सदन का विश्वास प्राप्त करना जारी रखना चाहिए अन्यथा कोई जवाबदेही नहीं होगी। इस पर पीठ ने कहा, विधानसभा का मानसून सत्र इसी समय शुरू होने वाला था। अपने बहुमत को परखने का पक्का तरीका तब होता जब सरकार अनुपूरक मांगों को सदन के समक्ष रखती। अगर यह धन विधेयक को पारित कराने में नाकाम रही होती तो नतीजा अपने आप सामने आ जाता।
हम फिर आया राम गया राम की स्थिति में : सिब्बल
ठाकरे गुट के वकील कपिल सिब्बल ने अपने प्रत्युत्तर में कहा, हम फिर से ‘आया राम-गया राम’ की स्थिति में आ गए हैं। क्यों? क्योंकि आप कहते हैं कि अब आपकी राजनीतिक संबद्धता कोई मायने नहीं रखती, जो मायने रखता है वह संख्या है। लोकतंत्र संख्या के बारे में नहीं है। वक्ता, राज्यपाल जिसे पहचानते हैं वह राजनीतिक दल है और वे राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं। न कुछ कम है और न अधिक।
नेता प्रतिपक्ष और सत्तारूढ़ विधायकों का पत्र प्रासंगिक नहीं
पीठ ने कहा, मौजूदा मामले में नेता प्रतिपक्ष का पत्र मायने नहीं रखता, क्योंकि वह हमेशा यही लिखेगा कि सरकार बहुमत खो चुकी है या विधायक खुश नहीं हैं। सत्ताधारी विधायकों का पत्र भी प्रासंगिक नहीं है कि उनकी सुरक्षा को खतरा था। यहां सिर्फ यह बात कि 34 विधायकों ने कहा, पार्टी कार्यकर्ताओं व विधायकों के बीच व्यापक असंतोष है, प्रासंगिक हो सकती है, पर क्या यह विश्वास मत हासिल करने का पर्याप्त आधार है? हालांकि बाद में यह कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे का गणित बिगड़ चुका था।
लोकतंत्र के लिए दुखद तमाशा
पीठ ने कहा, तथ्य यह है कि राज्यपाल इसमें दाखिल नहीं हो सकते थे, क्योंकि ऐसा करना मामले को तूल देता। इससे लोग सत्तारूढ़ पार्टी को धोखा देना शुरू कर देंगे और राज्यपाल सत्ताधारी पार्टी को खत्म कर देंगे। यह लोकतंत्र के लिए दुखद तमाशा होगा।
खुशहाल विवाह, फिर अचानक तलाक क्यों
पीठ ने कहा, राज्यपाल को (शिवसेना) विधायकों से सवाल करना चाहिए था कि वे तीन साल तक कांग्रेस व एनसीपी के साथ ‘खुशहाल विवाह’ में थे, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे गठजोड़ से बाहर जाना चाहते थे। पीठ ने कहा, राज्यपाल को (शिवसेना) विधायकों से सवाल करना चाहिए था कि वे तीन साल तक कांग्रेस व एनसीपी के साथ ‘खुशहाल विवाह’ में थे, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे गठजोड़ से बाहर जाना चाहते थे। तीन साल आप साथ रहे, एक दिन, आपने तलाक का निर्णय कर लिया। बागी विधायक दूसरी सरकार में मंत्री बन गए, राज्यपाल को खुद से भी प्रश्न पूछने चाहिए थे। लंबे समय से सब साथ थे, तब क्या कर रहे थे, अब अचानक क्या हुआ जो अलग हो रहे?
गौरतलब है कि बी एस कोश्यारी, उस समय महाराष्ट्र के राज्यपाल थे, उन्होंने उद्धव ठाकरे से बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट का सामना करने के लिए कहा था। हालांकि, फ्लोर टेस्ट में अपनी हार को देख उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया था। जिससे एकनाथ शिंदे के लिए मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ।