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MP News: कैसे होती है बाघों की गिनती? कैमरा ट्रैप बताएंगे टाइगर की असल पहचान, सबसे बड़ी मुहिम शुरू
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, उमरिया
Published by: उमरिया ब्यूरो
Updated Tue, 18 Nov 2025 10:24 AM IST
सार
जंगल में बाघों की पहचान के लिए वन विभाग 'तीसरी आंख' लगा रहा है। इन कैमरों से बाघों को ट्रेस करने और उनकी पहचान करने में खासी मदद मिलती है। जानें कैसे हो रहा है ये काम
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बाघों की पहचान के लिए लग रहे हैं कैमरे
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
मध्य प्रदेश में 15 नवंबर से बाघों के आकलन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में भी यह मुहिम तेज हो गई है। जंगल में जगह-जगह कैमरा ट्रैप लगा दिए गए हैं, जिनकी मदद से बाघों की असल संख्या का पता लगाया जाएगा। यह काम जितना दिलचस्प लगता है, उतना ही एहतियात और मेहनत मांगता है। कैमरा ट्रैप जंगल की तीसरी आंख की तरह काम करते हैं, जो खामोशी से हर हलचल को रिकॉर्ड करते हैं।
कैमरा ट्रैप असल में है क्या?
बांधवगढ़ के खेतौली वन परिक्षेत्र अधिकारी स्वस्ति श्री जैन बताते हैं कि कैमरा ट्रैप में मोशन सेंसर कैमरे लगाए जाते हैं। जैसे ही कोई जानवर उसके सामने से गुजरता है, कैमरा अपने आप तस्वीर ले लेता है। इसे कैमरा ट्रैपिंग कहा जाता है।
पूरा वन क्षेत्र दो किलोमीटर के ग्रिड में बांटा जाता है और हर ग्रिड में कैमरों की एक जोड़ी लगती है। दोनों कैमरे आमने-सामने होते हैं ताकि बाघ के दाएं और बाएं हिस्से की धारियां साफ दिखाई दें। यही धारियां उसकी पहचान का सबूत मानी जाती हैं, जैसे इंसान के फिंगरप्रिंट।
कैसे लगाए जाते हैं ये कैमरे?
कैमरा ट्रैप लगाना कोई आसान काम नहीं है। कैमरा लगभग 45 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगाया जाता है, यानी एक वयस्क आदमी के घुटने के बराबर। इस ऊंचाई से बाघ का मिडिल हिस्सा और दोनों ओर की धारियां साफ दिखती हैं, जिन्हें क्रमशः राइट फ्लैंक और लेफ्ट फ्लैंक कहा जाता है।
जंगली रास्ता चुनते समय पूरी सावधानी रखनी होती है ताकि कैमरा गलत दिशा में न लग जाए और तस्वीरें बेकार न जाएं। वनकर्मियों के मुताबिक यह काम बेहद नाजुक है और गलत सेटिंग पूरी मेहनत को बेअसर कर सकती है।
ये भी पढ़ें: Indore: दिन में टूट रहे बीआरटीएस के बस स्टाॅप, रात को हटा रहे रैलिंग, 9 माह में एक किलोमीटर टूटा बीआरटीएस
तस्वीरों से कैसे होती है पहचान?
जब कैमरा ट्रैप 24 घंटे तस्वीरें लेना शुरू कर देता है तो ये तस्वीरें जबलपुर स्थित स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट और देहरादून स्थित वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया भेजी जाती हैं। यहां एक खास सॉफ्टवेयर बाघों की धारियों को स्कैन करता है।
हर बाघ की धारियां अलग होती हैं, बिल्कुल यूनिक। यही वजह है कि कोई भी दो बाघ एक जैसे नहीं दिखते। सॉफ्टवेयर पूरे देश की तस्वीरों का डेटाबेस तैयार करता है। इससे यह भी पता चलता है कि कोई बाघ अगर दूसरे जंगल में दिखाई दे रहा है तो वह कहां से आया है। कई बार किसी मृत बाघ के अवशेष मिलने पर भी इसी डेटाबेस से उसकी पहचान की जाती है।
बांधवगढ़ में कितने कैमरे और कितनी तैयारी?
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के डायरेक्टर अनुपम सहाय बताते हैं कि कुल 699 ग्रिड्स में कैमरा ट्रैप लगाने का काम दो चरणों में किया जा रहा है।
पहले चरण में मानपुर, धमोखर, मगधी और कल्लवाह परिक्षेत्र के 362 ग्रिड्स में कैमरे लगा दिए गए हैं। शेष 337 ग्रिड्स में जल्द ही कैमरे स्थापित होंगे।
एक बार लगाए जाने के बाद ये कैमरे 25 दिन तक लगातार तस्वीरें लेते हैं। बांधवगढ़, उमरिया वन मंडल और आसपास के कई वन मंडल मिलकर लगभग 3400 वर्ग किलोमीटर में 1300 कैमरों की मदद से सर्वे कर रहे हैं। कैमरे समय-समय पर बदले और दूसरी जगह शिफ्ट किए जाएंगे।
हर चार साल में होता है बड़ा सर्वे
अखिल भारतीय बाघ आकलन हर चार साल में किया जाता है। 2006 से शुरू हुई यह प्रक्रिया अब 2026 में अपने छठे संस्करण में है। बाघ आकलन 2022 में बांधवगढ़ लैंडस्केप में 165 बाघ दर्ज हुए थे, जो पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा हैं। इस बार भी उम्मीद है कि बांधवगढ़ की ताजपोशी बरकरार रहेगी।
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कैमरा ट्रैप असल में है क्या?
बांधवगढ़ के खेतौली वन परिक्षेत्र अधिकारी स्वस्ति श्री जैन बताते हैं कि कैमरा ट्रैप में मोशन सेंसर कैमरे लगाए जाते हैं। जैसे ही कोई जानवर उसके सामने से गुजरता है, कैमरा अपने आप तस्वीर ले लेता है। इसे कैमरा ट्रैपिंग कहा जाता है।
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पूरा वन क्षेत्र दो किलोमीटर के ग्रिड में बांटा जाता है और हर ग्रिड में कैमरों की एक जोड़ी लगती है। दोनों कैमरे आमने-सामने होते हैं ताकि बाघ के दाएं और बाएं हिस्से की धारियां साफ दिखाई दें। यही धारियां उसकी पहचान का सबूत मानी जाती हैं, जैसे इंसान के फिंगरप्रिंट।
कैसे लगाए जाते हैं ये कैमरे?
कैमरा ट्रैप लगाना कोई आसान काम नहीं है। कैमरा लगभग 45 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगाया जाता है, यानी एक वयस्क आदमी के घुटने के बराबर। इस ऊंचाई से बाघ का मिडिल हिस्सा और दोनों ओर की धारियां साफ दिखती हैं, जिन्हें क्रमशः राइट फ्लैंक और लेफ्ट फ्लैंक कहा जाता है।
जंगली रास्ता चुनते समय पूरी सावधानी रखनी होती है ताकि कैमरा गलत दिशा में न लग जाए और तस्वीरें बेकार न जाएं। वनकर्मियों के मुताबिक यह काम बेहद नाजुक है और गलत सेटिंग पूरी मेहनत को बेअसर कर सकती है।
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तस्वीरों से कैसे होती है पहचान?
जब कैमरा ट्रैप 24 घंटे तस्वीरें लेना शुरू कर देता है तो ये तस्वीरें जबलपुर स्थित स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट और देहरादून स्थित वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया भेजी जाती हैं। यहां एक खास सॉफ्टवेयर बाघों की धारियों को स्कैन करता है।
हर बाघ की धारियां अलग होती हैं, बिल्कुल यूनिक। यही वजह है कि कोई भी दो बाघ एक जैसे नहीं दिखते। सॉफ्टवेयर पूरे देश की तस्वीरों का डेटाबेस तैयार करता है। इससे यह भी पता चलता है कि कोई बाघ अगर दूसरे जंगल में दिखाई दे रहा है तो वह कहां से आया है। कई बार किसी मृत बाघ के अवशेष मिलने पर भी इसी डेटाबेस से उसकी पहचान की जाती है।
बांधवगढ़ में कितने कैमरे और कितनी तैयारी?
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के डायरेक्टर अनुपम सहाय बताते हैं कि कुल 699 ग्रिड्स में कैमरा ट्रैप लगाने का काम दो चरणों में किया जा रहा है।
पहले चरण में मानपुर, धमोखर, मगधी और कल्लवाह परिक्षेत्र के 362 ग्रिड्स में कैमरे लगा दिए गए हैं। शेष 337 ग्रिड्स में जल्द ही कैमरे स्थापित होंगे।
एक बार लगाए जाने के बाद ये कैमरे 25 दिन तक लगातार तस्वीरें लेते हैं। बांधवगढ़, उमरिया वन मंडल और आसपास के कई वन मंडल मिलकर लगभग 3400 वर्ग किलोमीटर में 1300 कैमरों की मदद से सर्वे कर रहे हैं। कैमरे समय-समय पर बदले और दूसरी जगह शिफ्ट किए जाएंगे।
हर चार साल में होता है बड़ा सर्वे
अखिल भारतीय बाघ आकलन हर चार साल में किया जाता है। 2006 से शुरू हुई यह प्रक्रिया अब 2026 में अपने छठे संस्करण में है। बाघ आकलन 2022 में बांधवगढ़ लैंडस्केप में 165 बाघ दर्ज हुए थे, जो पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा हैं। इस बार भी उम्मीद है कि बांधवगढ़ की ताजपोशी बरकरार रहेगी।

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