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38 साल का इंतजार: जवानों के पार्थिव शरीर पहुंचे तो दो और परिवारों की बंधी आस, झकझोर देंगे पत्नियों के ये शब्द

संवाद न्यूज एजेंसी, हल्द्वानी Published by: रेनू सकलानी Updated Wed, 17 Aug 2022 01:55 PM IST
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Uttarakhan: Martyr Daya Kishan and Hayat Singh family Siachen Indo Pakistan War
नायक दया किशन जोशी, सिपाही हयात सिंह और उनकी पत्नियां - फोटो : अमर उजाला
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वर्ष 1984 में सियाचिन की चोटी पर गई यूनिट में कई जवानों के पार्थिव शरीर उनके घरों तक पहुंच चुके हैं। अब भी दो परिवार ऐसे हैं जो उम्मीदों के सहारे अपनों का इंतजार कर रहे हैं। शहीद लांस नायक चंद्रशेखर हर्बोला के साथ नायक दया किशन जोशी और सिपाही हयात सिंह भी शहीद हुए थे। 

हर्बोला के साथ सियाचिन की चोटी पर जा रही कंपनी में सिपाही हयात सिंह भी शामिल थे। उनकी वीरांगना बच्ची देवी ने बताया कि उनके घर पर पहुंचे दो टेलीग्राम ने उनकी जिंदगी को सूना कर दिया था। पहले टेलीग्राम में सैन्य अधिकारियों ने उनके पति समेत 20 जवानों के लापता होने की सूचना दी थी। करीब एक महीने बाद पहुंचे दूसरे टेलीग्राम को पढ़ने के बाद तो मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था। उसमें उनके पति के शहीद होने की खबर थी लेकिन पार्थिव शरीर मिलने की पुष्टि नहीं हुई थी। 

हयात 24 साल की उम्र में ही हो गए शहीद
बच्ची देवी ने बताया कि जब सिपाही हयात सिंह शहीद हुए थे तब उनकी उम्र 24 साल थी और उनकी नौकरी को पांच साल छह महीने ही हुए थे। उस समय उनका बेटा राजेंद्र तीन साल का था। बेटी गर्भ में थी। पिता की शहादत के पांच माह बाद पुष्पा इस दुनिया में आई थी। बच्ची देवी ने बताया कि वह मूल रूप से रीठा साहिब की हैं। 16 साल से हल्द्वानी के भट्ट विहार स्थित कृष्णा कॉलोनी में रह रही हैं। वर्ष 1978 में शहीद हयात सिंह फौज में भर्ती हुए थे और 29 मई 1984 को सियाचिन में शहीद हो गए।
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नायक दया किशन जोशी और सिपाही हयात सिंह - फोटो : अमर उजाला
पोता पूछता है कि अब तो दादा जी मिल जाएंगे
बच्ची देवी ने बताया कि हयात सिंह दो महीने की छुट्टी पर घर आए थे। एक महीने की छुट्टी के बाद अचानक चिट्ठी आई और छुट्टी रद्द करके उन्हें बुला लिया गया था। अब उनका 14 वर्षीय पोता हर्षित नौवीं कक्षा में पढ़ता है। 14 अगस्त को शहीद लांसनायक चंद्रशेखर हर्बोला का पार्थिव शरीर मिलने के बाद हर्षित कहता है कि दादी अब तो दादा जी भी मिल जाएंगे। बच्ची देवी इस समय अपने बेटे राजेंद्र के साथ रहती हैं। बेटी पुष्पा शादी के बाद लखनऊ में रह रही हैं। 
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शहीद हुए सिपाही हयात सिंह की पत्नी बच्ची देवी। - फोटो : अमर उजाला

‘मैं कैसे मान लूं कि वह मेरे साथ नहीं’

सियाचिन गई यूनिट में हल्द्वानी के आवास-विकास निवासी नायक दयाकिशन जोशी भी शामिल थे। उनकी पत्नी विमला जोशी ने कहा कि जब तक पार्थिव शरीर नहीं मिल जाता तब तक वह नहीं मान सकती कि वह मेरे साथ नहीं हैं।
 विमला के अनुसार वर्ष 1984 में उनके पति छुट्टी पर आने वाले थे। एक दिन टेलीग्राम पहुंचा और उनके जीवन के सबसे बड़े सुख को उनसे छीन लिया। टेलीग्राम में उनके पति नायक दयाकिशन जोशी के शहीद होने की सूचना थी लेकिन पार्थिव शरीर न मिलने की बात कही गई थी। उन्होंने बताया कि इसके बाद उन्होंने रानीखेत से लेकर बरेली तक के सैन्य अधिकारियों के कार्यालय छाने लेकिन कहीं से भी पति के पार्थिव शरीर मिलने की पुष्टि नहीं हुई। उस दौरान उनके दो बेटे थे, बड़ा बेटा संजय जोशी तीन साल का और छोटा भास्कर जोशी एक साल का था।
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शहीद हुए नायक दया किशन जोशी की पत्नी विमला देवी - फोटो : अमर उजाला
दोबारा कभी बेटों को लाड़ ही नहीं कर पाए
अंतिम बार जब शहीद नायक घर पहुंचे थे तो जाते समय पत्नी से बच्चों का ख्याल रखने और उनकी पढ़ाई-लिखाई कराने की बात कहकर अलविदा कहा था। क्या पता था कि दोबारा कभी बेटों को लाड़ ही नहीं कर पाएंगे। विमला जोशी ने बताया कि पति के मिलने का विश्वास और उनकी बहादुरी ने हिम्मत दी और उन्होंने बेटे के पालन-पोषण और परवरिश पर ध्यान देना शुरू किया। वर्तमान में बड़े बेटे संजय 9-कुमाऊं रेजीमेंट (लखनऊ) में तैनात हैं और छोटे भास्कर आईटीआई करने के बाद निजी क्षेत्र में नौकरी कर रहे हैं। विमला जोशी कहती हैं कि आज भी उन्हें उनके पति के मिलने की पूरी आस है। 

ये भी पढ़ें...शहीद चंद्रशेखर: पिता की शहादत पर बेटी को गर्व, बोली- 38 साल से पार्थिव शरीर भी सियाचिन में ड्यूटी निभा रहा

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शहीद दया किशन जोशी - फोटो : अमर उजाला
सरकारी वादे पूरे नहीं हुए
शहीद नायक दया किशन जोशी के छोटे बेटे भास्कर जोशी ने कहा कि जब उनके पिता के शहीद होने की खबर दी गई थी उस समय उनके परिवार की आर्थिक स्थित ठीक नहीं थी। उन्होंने अपनी मां से जाना और परिस्थितियों को बड़े होकर समझा। वह बताते हैं कि उस समय सरकार ने उनके पिता के नाम पर ट्रांसपोर्ट नगर में एक दुकान देने का वादा किया था लेकिन वह वादा हवा-हवाई हो गया। उसके लिए उन्होंने राज्य स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक भाग-दौड़ की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। न दुकान का सहारा मिला और न ही अन्य कोई सरकारी मदद। मां करती भी तो क्या, पिता की शहादत के बाद मिलने वाली पेंशन भी इतनी न थी कि दोनों भाइयों की परवरिश, पढ़ाई और घर का खर्च ठीक से हो पाता। फिर भी मां ने किसी तरह हमें पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया। अभी भी सरकार से मदद की कोई उम्मीद तो नहीं है लेकिन पिता का पार्थिव शरीर मिलने की आस है।
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