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Amar Ujala Samwad: योगेश्वर दत्त की संघर्ष, साहस और सपनों से भरी कहानी; हार, चोट और दर्द से लड़कर रचा इतिहास
स्पोर्ट्स डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: स्वप्निल शशांक
Updated Sun, 14 Dec 2025 05:12 PM IST
सार
योगेश्वर बताते हैं, 'कुश्ती मेरी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा है। मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह सब कुश्ती की वजह से है। मेरा ओलंपिक कांस्य पदक मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन पल रहेगा।पढ़ें कैसे योगेश्वर ने सूजी आंख, टूटे शरीर और अडिग हौसले से लंदन में कैसे किया था चमत्कार...
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अमर उजाला संवाद 2025 में योगेश्वर पहुंचेंगे
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
‘अमर उजाला संवाद’ इस बार हरियाणा पहुंचा है। गुरुग्राम में आयोजित इस खास आयोजन में मनोरंजन, खेल और राजनीति सहित अलग-अलग क्षेत्रों की तमाम दिग्गज हस्तियां हिस्सा लेंगी। इसी कड़ी में भारत के दिग्गज पहलवान योगेश्वर दत्त भी इस खास कार्यक्रम में शामिल होंगे। 2012 लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतते ही भारतीय पहलवान योगेश्वर दत्त देशभर में एक जाना-पहचाना नाम बन गए, लेकिन योगेश्वर के लिए यह पदक सिर्फ एक खेल उपलब्धि नहीं था, बल्कि एक ऐसे सपने की पूर्ति थी, जिसे उनके पिता राम मेहर दत्त ने हरियाणा के पारंपरिक मिट्टी के अखाड़ों में बोया था और जो लंदन के आधुनिक ओलंपिक मैट पर जाकर फलीभूत हुआ।
हरियाणा के गांव से निकली कुश्ती की चिंगारी
हरियाणा के सोनीपत जिले के भैंसवाल कलां गांव में जन्मे योगेश्वर दत्त एक शिक्षक परिवार से ताल्लुक रखते थे। गांव के ही प्रसिद्ध पहलवान बलराज पहलवान से प्रेरित होकर योगेश्वर का रुझान कुश्ती की ओर हुआ। शुरुआत में उनके माता-पिता इस खेल को करियर के रूप में अपनाने को लेकर आशंकित थे, लेकिन योगेश्वर की लगन और मेहनत ने जल्द ही उन्हें मना लिया। खासकर पिता राम मेहर दत्त उनके सबसे बड़े सहारे बन गए।
14 साल की उम्र में घर छोड़ा
महज 14 साल की उम्र में योगेश्वर ने घर छोड़कर दिल्ली के प्रसिद्ध छत्रसाल स्टेडियम में प्रशिक्षण लेना शुरू किया। यहीं से उन्होंने सीनियर स्तर तक पहुंचने की नींव रखी और भारतीय कुश्ती के भविष्य के रूप में उभरने लगे।
एथेंस 2004: कड़वी शुरुआत
साल 2004 एथेंस ओलंपिक में 21 वर्षीय योगेश्वर को बेहद कठिन ड्रॉ मिला। उनका सामना जापान के चिकार तनाबे और अज़रबैजान के नामिग अब्दुल्लायेव से हुआ, जो पहले ही ओलंपिक पदक विजेता थे। अनुभव की कमी के कारण योगेश्वर दोनों मुकाबले हार गए, लेकिन यह हार उनके संघर्ष की शुरुआत बनी।
पिता का निधन और दर्द के बीच कांस्य
2006 दोहा एशियाई खेलों से महज नौ दिन पहले योगेश्वर के पिता का अचानक निधन हो गया। भावनात्मक आघात और घुटने की चोट के बावजूद योगेश्वर ने हिम्मत नहीं हारी और कांस्य पदक जीतकर अपने पिता को सच्ची श्रद्धांजलि दी। हालांकि उन्होंने 2014 एशियाई खेलों में स्वर्ण जीता, लेकिन दोहा का कांस्य उनके करियर का सबसे प्रेरणादायक पल रहा।
बीजिंग 2008: टूटे सपने
2008 बीजिंग ओलंपिक से पहले योगेश्वर ने एशियाई चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता था। ओलंपिक में उन्होंने पहले दौर में बाई और फिर क्वार्टरफाइनल तक पहुंचकर उम्मीद जगाई, लेकिन जापान के केनिची युमोटो से हार के साथ उनका अभियान समाप्त हो गया। इस दौरान लगी चोट ने उनके करियर को खतरे में डाल दिया और उन्हें बताया गया कि उनका करियर लगभग खत्म हो चुका है।
वापसी की कहानी
इन तमाम आशंकाओं के बावजूद योगेश्वर ने 2010 दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण जीतकर ज़बरदस्त वापसी की। एक और चोट के बाद भी उनके भीतर ओलंपिक पदक की आग जलती रही।
लंदन 2012: संघर्ष का फल
2012 लंदन ओलंपिक से पहले उन्होंने दक्षिण कोरिया के गुमी में एशियाई चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता। ओलंपिक में पहले मुकाबले में उन्होंने बुल्गारिया के अनातोली गुइडिया को हराया। दूसरे दौर में वह रूस के चार बार के विश्व चैंपियन बेसिक कुदुखोव से हार गए और उनकी आंख बुरी तरह सूज गई, लेकिन कुदुखोव के फाइनल में पहुंचने से योगेश्वर को रेपेचेज के जरिये कांस्य पदक का मौका मिला।
सूजी आंख, अडिग हौसला
रेपेचेज में योगेश्वर ने पहले प्यूर्टो रिको के फ्रैंकलिन गोमेज़ और फिर ईरान के मसूद इस्माइलपुर को हराया। कांस्य मुकाबले में उत्तर कोरिया के री जोंग-म्योंग के खिलाफ उन्होंने पहला राउंड गंवाया, लेकिन आखिरी क्षणों में फितेले दांव लगाकर मैच 3-1 से जीत लिया।
इतिहास रचने वाला पदक
इस जीत के साथ योगेश्वर दत्त ओलंपिक पदक जीतने वाले के.डी. जाधव और सुशील कुमार के बाद तीसरे भारतीय पुरुष पहलवान बने। योगेश्वर ने कहा, 'कुश्ती मेरी जिंदगी का हिस्सा है। मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, कुश्ती की वजह से किया है। मेरा ओलंपिक कांस्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा पल रहेगा।'
विरासत आगे बढ़ी
योगेश्वर ने 2014 ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण जीता, लेकिन 2016 रियो ओलंपिक में वह क्वालिफिकेशन राउंड में हार गए। इसके बाद उन्होंने संन्यास लेकर बजरंग पुनिया को मेंटर करना शुरू किया। तोक्यो 2020 में बजरंग पुनिया ने कांस्य जीतकर अपने गुरु की विरासत को आगे बढ़ाया।
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हरियाणा के गांव से निकली कुश्ती की चिंगारी
हरियाणा के सोनीपत जिले के भैंसवाल कलां गांव में जन्मे योगेश्वर दत्त एक शिक्षक परिवार से ताल्लुक रखते थे। गांव के ही प्रसिद्ध पहलवान बलराज पहलवान से प्रेरित होकर योगेश्वर का रुझान कुश्ती की ओर हुआ। शुरुआत में उनके माता-पिता इस खेल को करियर के रूप में अपनाने को लेकर आशंकित थे, लेकिन योगेश्वर की लगन और मेहनत ने जल्द ही उन्हें मना लिया। खासकर पिता राम मेहर दत्त उनके सबसे बड़े सहारे बन गए।
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14 साल की उम्र में घर छोड़ा
महज 14 साल की उम्र में योगेश्वर ने घर छोड़कर दिल्ली के प्रसिद्ध छत्रसाल स्टेडियम में प्रशिक्षण लेना शुरू किया। यहीं से उन्होंने सीनियर स्तर तक पहुंचने की नींव रखी और भारतीय कुश्ती के भविष्य के रूप में उभरने लगे।
एथेंस 2004: कड़वी शुरुआत
साल 2004 एथेंस ओलंपिक में 21 वर्षीय योगेश्वर को बेहद कठिन ड्रॉ मिला। उनका सामना जापान के चिकार तनाबे और अज़रबैजान के नामिग अब्दुल्लायेव से हुआ, जो पहले ही ओलंपिक पदक विजेता थे। अनुभव की कमी के कारण योगेश्वर दोनों मुकाबले हार गए, लेकिन यह हार उनके संघर्ष की शुरुआत बनी।
पिता का निधन और दर्द के बीच कांस्य
2006 दोहा एशियाई खेलों से महज नौ दिन पहले योगेश्वर के पिता का अचानक निधन हो गया। भावनात्मक आघात और घुटने की चोट के बावजूद योगेश्वर ने हिम्मत नहीं हारी और कांस्य पदक जीतकर अपने पिता को सच्ची श्रद्धांजलि दी। हालांकि उन्होंने 2014 एशियाई खेलों में स्वर्ण जीता, लेकिन दोहा का कांस्य उनके करियर का सबसे प्रेरणादायक पल रहा।
बीजिंग 2008: टूटे सपने
2008 बीजिंग ओलंपिक से पहले योगेश्वर ने एशियाई चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता था। ओलंपिक में उन्होंने पहले दौर में बाई और फिर क्वार्टरफाइनल तक पहुंचकर उम्मीद जगाई, लेकिन जापान के केनिची युमोटो से हार के साथ उनका अभियान समाप्त हो गया। इस दौरान लगी चोट ने उनके करियर को खतरे में डाल दिया और उन्हें बताया गया कि उनका करियर लगभग खत्म हो चुका है।
वापसी की कहानी
इन तमाम आशंकाओं के बावजूद योगेश्वर ने 2010 दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण जीतकर ज़बरदस्त वापसी की। एक और चोट के बाद भी उनके भीतर ओलंपिक पदक की आग जलती रही।
लंदन 2012: संघर्ष का फल
2012 लंदन ओलंपिक से पहले उन्होंने दक्षिण कोरिया के गुमी में एशियाई चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता। ओलंपिक में पहले मुकाबले में उन्होंने बुल्गारिया के अनातोली गुइडिया को हराया। दूसरे दौर में वह रूस के चार बार के विश्व चैंपियन बेसिक कुदुखोव से हार गए और उनकी आंख बुरी तरह सूज गई, लेकिन कुदुखोव के फाइनल में पहुंचने से योगेश्वर को रेपेचेज के जरिये कांस्य पदक का मौका मिला।
सूजी आंख, अडिग हौसला
रेपेचेज में योगेश्वर ने पहले प्यूर्टो रिको के फ्रैंकलिन गोमेज़ और फिर ईरान के मसूद इस्माइलपुर को हराया। कांस्य मुकाबले में उत्तर कोरिया के री जोंग-म्योंग के खिलाफ उन्होंने पहला राउंड गंवाया, लेकिन आखिरी क्षणों में फितेले दांव लगाकर मैच 3-1 से जीत लिया।
इतिहास रचने वाला पदक
इस जीत के साथ योगेश्वर दत्त ओलंपिक पदक जीतने वाले के.डी. जाधव और सुशील कुमार के बाद तीसरे भारतीय पुरुष पहलवान बने। योगेश्वर ने कहा, 'कुश्ती मेरी जिंदगी का हिस्सा है। मैंने जो कुछ भी हासिल किया है, कुश्ती की वजह से किया है। मेरा ओलंपिक कांस्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा पल रहेगा।'
विरासत आगे बढ़ी
योगेश्वर ने 2014 ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण जीता, लेकिन 2016 रियो ओलंपिक में वह क्वालिफिकेशन राउंड में हार गए। इसके बाद उन्होंने संन्यास लेकर बजरंग पुनिया को मेंटर करना शुरू किया। तोक्यो 2020 में बजरंग पुनिया ने कांस्य जीतकर अपने गुरु की विरासत को आगे बढ़ाया।