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जी 20 सम्मेलन का संदेश: अमेरिका के पास अब 'ट्रंप' कार्ड नहीं रहा
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डोनाल्ड ट्रंप
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जापान में जी -20 की बैठक के बाद निष्कर्ष क्या? सबने सबसे बात की। सदस्य देशों के आर्थिक मतभेद जस के तस हैं। हां उनको हवा नहीं दी गई। अलबत्ता द्विपक्षीय मुलाकातें होती रहीं। पर उनसे कुछ ठोस निकलकर आया नहीं। उपलब्धियों के कुछ संकेत देखने ही हों तो चीन के सामने अमेरिका की जबान से थोड़ा कलफ उतर गया। जापान, अमेरिका और भारत के चाय के प्यालों में थोड़ी चीनी और घुल गई। रूस का दबदबा बरकरार रहा। ईरान को लेकर भी कोई बहुत बात आगे नहीं बढ़ी। अमेरिका में अगले साल राष्ट्रपति चुनाव होंगे। डोनाल्ड ट्रंप दूसरी पारी खेलने के लिए उतावले हैं। ऐसे में उनका ध्यान अपने चेहरे की कठोरता कम करने और कोई नरम क्रीम लगाकर चमक बनाए रखने पर ही रहा। ट्रंप को भी अब अहसास हो चला है कि कुल मिलाकर उनकी पारी बराक ओबामा की तरह नहीं रही है। इसीलिए जी -20 के दरम्यान वे यू टर्न लेते नजर आए।
दरअसल वजह यह है कि अमेरिकी चौधराहट भी अब पहले जैसी नहीं रही है। नई सदी के दौरान हुए अमेरिकी राष्ट्रपतियों में डोनाल्ड ट्रंप पहले हैं, जिनका इतना कठोर विरोध उनके अपने देश में ही हो रहा है। अपनी कंपनी की तरह मुल्क को चलाने का खामियाजा भुगतने का डर भी ट्रंप महसूस कर रहे हैं। चुनाव के नतीज़े ट्रंप के अनुकूल नहीं रहे तो अनेक देशों में बिखरा कारोबार संभालने के लिए सेठ डोनाल्ड ट्रंप को तो उनसे रिश्ते बनाकर रखना ही पड़ेगा। यही कारण हो सकता है कि चीन पर नए शुल्क बढ़ाने से ट्रंप बचे। उन्होंने कहा, फिलहाल चीनी उत्पादों पर नए शुल्क नहीं लगाएंगे और कारोबार जारी रखने पर चर्चाएं जारी रहेंगीं।
अमेरिकी राष्ट्रपति रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से गुर्राने वाली भाषा भी नहीं बोले। ईरान को रूसी समर्थन से अब तक वे भड़कते रहे हैं। इसी तरह भारत और ईरान के कारोबार पर कोई जल्दबाजी नहीं दिखाने की बात कही। उन्होंने कहा कि ईरान के बारे में भारत समय ले सकता है। गौरतलब है कि ईरान के मसले पर कनाडा समेत कई यूरोपीय मित्र देश अमेरिका का पहले ही साथ छोड़ चुके हैं। भारत के रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदने पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई। इससे पहले वे भारत को इसके लिए प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दे रहे थे। माना जा सकता है कि अब अमेरिका ने भारत के अंतर्राष्ट्रीय हितों को पहली बार समझने का प्रयास किया है।
जापान सम्मेलन से एक और महत्वपूर्ण बात निकली। अमेरिकी खेमे से इसी सम्मेलन के दौरान उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन से तीसरी बार मिलने का ऐलान हुआ। ट्रंप ने खुद ही किम को बातचीत का न्यौता दिया। यह अमेरिकी रवैये में बड़ा परिवर्तन है। इस सम्मेलन से ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग भी उत्तर कोरिया गए थे। वहां उनका जिस तरह से स्वागत हुआ, उसने भी अमेरिकी हुकूमत की नींद उड़ा दी थी। बहुत संभव हो चीनी राष्ट्रपति ने ही डोनाल्ड ट्रंप को उत्तर कोरिया से एक बार फिर तार जोड़ने की बात कही हो। हालांकि दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति भी ट्रंप पर किम से बात करने के लिए जोर डालते रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ओसाका सम्मेलन के तुरंत बाद डोनाल्ड ट्रंप दक्षिण कोरिया जा पहुंचे हैं। कुल मिलाकर अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में डोनाल्ड ट्रंप किसी भी बड़े मुल्क से बिगाड़ करने के मूड में नहीं दिखाई दिए।
लब्बोलुआब यह कि ओसाका सम्मेलन की उपलब्धियां भले ही कुछ नहीं हों, मगर दुनिया के स्वयंभू दादा अमेरिका का बैकफुट पर आना आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव की ओर इशारे करता है।

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दरअसल वजह यह है कि अमेरिकी चौधराहट भी अब पहले जैसी नहीं रही है। नई सदी के दौरान हुए अमेरिकी राष्ट्रपतियों में डोनाल्ड ट्रंप पहले हैं, जिनका इतना कठोर विरोध उनके अपने देश में ही हो रहा है। अपनी कंपनी की तरह मुल्क को चलाने का खामियाजा भुगतने का डर भी ट्रंप महसूस कर रहे हैं। चुनाव के नतीज़े ट्रंप के अनुकूल नहीं रहे तो अनेक देशों में बिखरा कारोबार संभालने के लिए सेठ डोनाल्ड ट्रंप को तो उनसे रिश्ते बनाकर रखना ही पड़ेगा। यही कारण हो सकता है कि चीन पर नए शुल्क बढ़ाने से ट्रंप बचे। उन्होंने कहा, फिलहाल चीनी उत्पादों पर नए शुल्क नहीं लगाएंगे और कारोबार जारी रखने पर चर्चाएं जारी रहेंगीं।
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अमेरिकी राष्ट्रपति रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से गुर्राने वाली भाषा भी नहीं बोले। ईरान को रूसी समर्थन से अब तक वे भड़कते रहे हैं। इसी तरह भारत और ईरान के कारोबार पर कोई जल्दबाजी नहीं दिखाने की बात कही। उन्होंने कहा कि ईरान के बारे में भारत समय ले सकता है। गौरतलब है कि ईरान के मसले पर कनाडा समेत कई यूरोपीय मित्र देश अमेरिका का पहले ही साथ छोड़ चुके हैं। भारत के रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदने पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई। इससे पहले वे भारत को इसके लिए प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दे रहे थे। माना जा सकता है कि अब अमेरिका ने भारत के अंतर्राष्ट्रीय हितों को पहली बार समझने का प्रयास किया है।
जापान सम्मेलन से एक और महत्वपूर्ण बात निकली। अमेरिकी खेमे से इसी सम्मेलन के दौरान उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन से तीसरी बार मिलने का ऐलान हुआ। ट्रंप ने खुद ही किम को बातचीत का न्यौता दिया। यह अमेरिकी रवैये में बड़ा परिवर्तन है। इस सम्मेलन से ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग भी उत्तर कोरिया गए थे। वहां उनका जिस तरह से स्वागत हुआ, उसने भी अमेरिकी हुकूमत की नींद उड़ा दी थी। बहुत संभव हो चीनी राष्ट्रपति ने ही डोनाल्ड ट्रंप को उत्तर कोरिया से एक बार फिर तार जोड़ने की बात कही हो। हालांकि दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति भी ट्रंप पर किम से बात करने के लिए जोर डालते रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि ओसाका सम्मेलन के तुरंत बाद डोनाल्ड ट्रंप दक्षिण कोरिया जा पहुंचे हैं। कुल मिलाकर अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में डोनाल्ड ट्रंप किसी भी बड़े मुल्क से बिगाड़ करने के मूड में नहीं दिखाई दिए।
लब्बोलुआब यह कि ओसाका सम्मेलन की उपलब्धियां भले ही कुछ नहीं हों, मगर दुनिया के स्वयंभू दादा अमेरिका का बैकफुट पर आना आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव की ओर इशारे करता है।