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Rupee vs Dollar: रुपया 90 पार; क्या कभी डॉलर जितनी मूल्यवान थी भारतीय मुद्रा? जानिए गिरावट की अनकही कहानी

बिजनेस डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: कुमार विवेक Updated Wed, 03 Dec 2025 04:01 PM IST
सार

Rupee vs Dollar: अक्सर सुनने को मिलता है कि जब देश आजाद हुआ एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। अब एक डॉलर 90 रुपये से भी अधिक मूल्यवान हो गया। रुपये में आई इस गिरावट का क्या कारण है? 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के बाद रुपये में कब-कब कितनी गिरावट आई और क्यों? आइए जानते हैं रुपये में गिरावट से जुड़ी वह कहानी जिससे आप अब तक अंजान हैं।

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The Rupee's Journey: Uncovering the Story Behind its Decline Against the Dollar
रुपया बनाम डॉलर - फोटो : Amar Ujala

बुधवार की सुबह भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की दो महीने के अंतराल पर होने वाली बैठक बस शुरू होने वाली थी। इसी बीच एक ऐसी खबर आई जिस पर आरबीआई के साथ-साथ पूरे बाजार की नजर थम गई। रुपया पहली बार डॉलर के मुकाबले 90 का स्तर पार कर गया। रुपये में बीते आठ महीनों से गिरावट का दौर जारी है और अब यह अपने अब तक के नए निचले स्तर पर पहुंच गया। लंबी अवधि में स्थिर प्रकृति का रुपया पिछले एक वर्ष में ही 85 से  90 के स्तर के पार पहुंच गया। बुधवार को रुपया डॉलर के मुकाबले 25 पैसे गिरकर अपने नए ऑल टाइम लो 90.21 पर बंद हुआ।

क्या कभी एक डॉलर एक रुपये के बराबर था?

व्यापार और अर्थशास्त्र की दुनिया में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि आजादी के समय यानी 15 अगस्त 1947 को एक डॉलर 1 रुपये के बराबर था। यह ख्याल सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन आर्थिक तथ्य और ऐतिहासिक रिकॉर्ड कुछ और ही कहानी कहते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो असल में जब देश आजाद हुआ उस समय का एक रुपया एक डॉलर के बराबर था, यह तथ्य सही नहीं है। 

केंद्रीय बैंक के दस्तावेज 'आरबीआई द 1991 प्रोजेक्ट डेटा' के अनुसार आजादी के समय भारतीय रुपया 'अमेरिकी डॉलर' से नहीं, बल्कि 'ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग' से जुड़ा था। रुपये की विनिमय दर पाउंड से ही तय होती थी। एक पाउंड उस समय 13.33 रुपये के बराबर था। चूंकि उस समय ब्रिटिश पाउंड की वैल्यू अमेरिकी डॉलर के मुकाबले $4.03 थी, इस गणना के हिसाब से 1 डॉलर की कीमत लगभग ₹3.30 बनती थी। इसलिए सच्चाई यह है कि जब देश आजाद हुए एक डॉलर एक रुपये नहीं बल्कि 3.30 रुपये के बराबर था।  

1966 में रुपये में आई पहली बड़ी गिरावट

भारतीय मुद्रा को गिरावट के लिहाज से पहला बड़ा झटका लगा साल 1966 में। इस दौरान एक डॉलर के मुकाबले रुपया ₹4.76 से गिरकर सीधा 7.50 रुपये पर पहुंच गया। इस कारण था उस समय का उथल-पुथल भरा दौर। देश चीन (1962)  और पाकिस्तान (1965)  से युद्ध के कारण परेशानियों से जूझ रहा थ। इन लड़ाइयों ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। बजट घाटा बहुत बढ़ गया था। 

इसी बीच, 1965-66 में देश में भयंकर सूखा पड़ा, जिससे खाद्य उत्पादन गिर गया और महंगाई आसमान छूने लगी। इस कठिन दौर में भारत को विदेशी मदद की सख्त जरूरत थी। वर्ल्ड बैंक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने मदद देने के लिए शर्त रखी कि भारत को अपनी मुद्रा का 'अवमूल्यन' करना होगा ताकि निर्यात बढ़ सकें। इसके बाद, 6 जून 1966 को इंदिरा गांधी की सरकार ने रुपये का 57.5% अवमूल्यन किया। इसके बाद डॉलर के मुकबले रुपया टूटकर 7.50 रुपये पर पहुंच गया।

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रुपया बनाम डॉलर - फोटो : Amar Ujala

1991 का आर्थिक संकट, उदारीकरण और रुपया फिर फिसला

रुपये में गिरावट के लिहाज से साल 1991 भी देश के लिए काफी अहम साबित हुआ। यह वहीं साल था जब आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे देश ने आर्थिक उदारीकरण का रास्ता अपनाया। इस समय रुपया 21 से गिरकर 26 के करीब पहुंच गया। यह भारत के आर्थिक इतिहास का सबसे नाजुक मोड़ था। भुगतान संतुलन के संकट के कारण भारत के पास आयात (तेल, जरूरी सामान) खरीदने के लिए सिर्फ तीन हफ्ते का विदेशी मुद्रा भंडार (Forex) बचा था।

दूसरी ओर, खाड़ी युद्ध यानी इराक-कुवैत युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गईं, जिससे भारत का आयात बहुत बिल भारी हो गया। इससे रुपया और कमजोर पड़ने लगा। देश में राजनीतिक उथल-पुथल थी, निवेशकों का भरोसा भी घटता जा रहा था। इस संकट से निकलने के लिए, तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अर्थव्यवस्था को खोलने (Liberalization) का फैसला लिया और रुपये को दो चरणों में अवमूल्यित किया ताकि निर्यात सस्ते हो सकें और विदेशी मुद्रा देश में आ सके।

2008 की आर्थिक मंदी के दौरान फिर टूटा रुपया

1991 के बाद देश में गठबंधन की सरकारों का दौर चला। रुपये को इसका बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा। 1991 से 2008 के बीच रुपया कमजोर होकर ₹39 पर पहुंच गया। 2008 की मंदी के बाद रुपये में फिर एक बड़ी गिरावट आई और यह  टूटकर एक डॉलर के मुकाबले 51 रुपये के पार पहुंच गया। हालांकि, यह गिरावट भारत की वजह से नहीं, बल्कि वैश्विक कारणों से थी। अमेरिका में लेहमन ब्रदर्स बैंक डूबने से पूरी दुनिया में मंदी (Recession) आ गई। विदेशी निवेशकों (FIIs) ने जोखिम से बचने के लिए भारत जैसे उभरते बाजारों से अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया और वापस अमेरिकी डॉलर में निवेश करने लगे। जब डॉलर की मांग बढ़ी, तो रुपया और कमजोर पड़ गया।

2013 में 'टेपर टैन्ट्रम' से रुपये को फिर झेलना पड़ा नुकसान

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से पहले रुपये में आखिरी बड़ी गिरावट आई साल 2013 में। इस दौरान रुपया एक डॉलर के मुकाबले 55 रुपये से फिसलकर ₹68.80 तक पहुंच गया। इसके क्या कारण थे ये भी जान लीजिए। दरअसल, इस वर्ष यूएस फेडरल रिजर्व ने घोषणा की कि वे बाजार में पैसा डालना कम (Taper) करेंगे। इस टेपर टैन्ट्रम की खबर से डरकर निवेशकों ने भारत से भारी मात्रा में पैसा निकाल लिया। इसी दौरान में मॉर्गन स्टेनली ने भारत को 'फ्रेजाइल फाइव' अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया था क्योंकि हमारा चालू खाता घाटा (CAD) और महंगाई बहुत अधिक हो गया था। 

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रुपया बनाम डॉलर। - फोटो : अमर उजाला

2025 में 85 से 90 के पार पहुंच गया रुपया

बीते दो-तीन वर्षों में रुपया डॉलर के मुकाबले 84-85 के स्तर पर कारोबार करता दिख रहा था। फिर 2025 में डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने शुरू हुआ जवाबी टैरिफ का खेला। अैर अब रुपया एक डॉलर के मुकाबले अपने अब तक के सबसे निचले स्तर 90 रुपये के पार चला गया है। अमेरिका ने दुनिया भर के देशों को टैरिफ का डर दिखाकर व्यापार समझौते के लिए दबाव बनाया। कुछ देश झुक गए उन पर टैरिफ कम हो गए या हट गए। हालांकि, भारत ने अपने व्यापारिक हितों से समझौता करने से मना कर दिया। यह बात ट्रंप सरकार को नागवार गुजरी।

अमेरिका ने अगस्त में भारत पर 50% टैरिफ लगाने का लगाने का एलान किया। इसके बाद अमेरिका में भारतीय उत्पादों के निर्यात पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा। विदेशी निवेशकों ने भी इस बीच जमकर बिकवाली की। इसके असर से रुपया कमजोर होता गया। हालांकि सरकार का मानना है कि रुपये की हालिया कमजोरी से देश की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक प्रभावित होने से बची हुई है। कुछ जानकार मानते हैं कि रुपये का गिरना हमेशा कमजोरी नहीं होती। 1991 के बाद से रुपये की वैल्यू बाज़ार तय करता है। कई बार रुपये का गिरना निर्यातकों (Exporters) (जैसे आईटी कंपनियां, फार्मा) के लिए फायदेमंद होता है क्योंकि उन्हें डॉलर में कमाई होती है और रुपये में बदलने पर ज्यादा पैसा मिलता है।

अब आगे क्या?

भारत अपनी जरूरत का 80% से ज्यादा तेल आयात करता है, जिसके भुगतान के लिए डॉलर चाहिए होता है। दुनिया भर में अनिश्चितता (जैसे रूस-यूक्रेन युद्ध) के चलते डॉलर को 'सुरक्षित निवेश'  माना जा रहा है, इसलिए डॉलर मजबूत हो रहा है। इन कारणों से भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर हो  रहा है। अगर रुपये को में स्थिरता लानी है तो सरकार और रिजर्व बैंक को अमेरिका के साथ व्यापार समझौते के विकल्प पर बढ़ने के अलावे अन्य तरीकों से रुपये को थामने के लिए मजबूत रणनीति बनानी होगी। देश में निर्यात के लिए आधारभूत ढांचे को सुधारने और बेलगाम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने से भी रुपये को स्थिर करने में आंशिक तौर पर ही सही पर मदद मिल सकती है। क्यों अगर देश में सिस्टम भरोसेमंद होता तो निवेशक भी हमारे बाजार में बने रहेंगे और इसका फायदा अर्थव्यवस्था और रुपया दोनों को मिलेगा। फिलहाल, एमपीसी की बैठक के बाद आरबीआई रुपये की गिरावट को थामने के लिए किसी बड़े कदम का एलान करता है या नहीं इस पर सबकी नजर बनी हुई है।

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