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3 लोक गायिकाओं ने बयां किया दर्द, बोली- पंजाब के लोक गीतों से न करें छेड़छाड़, दिल दुखता है
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, चंडीगढ़
Updated Sun, 23 Sep 2018 12:35 AM IST
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डॉली गुलेरिया
मावां ते धियां रल बैठियां नी माये...सड़के सड़के जान्दिये मुटियारे नी...लट्ठे दी चादर उत्ते सलेटी रंग माहिया...नन्द ते भाबो रल मिल बेठियां ते...जैसे लोक गीतों का एक जमाना था। अब ऐसा नहीं रहा। लोक गीत स्टेज पर स्पेशल लोक गीत के कार्यक्रम के दौरान सुनने को मिल जाते हैं या फिर ग्रामीण इलाके में बड़े शादी समारोह में। चंद आर्टिस्ट हैं, जो इसे बचाने में लगे हैं।
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जब समय मिलता है तो वह लोकगीतों की महत्ता तो बताते ही हैं साथ ही प्रयास करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को इससे जोड़ें। लोक गायकों का दर्द यह है कि लोक गीतों के वास्तविक प्रारूप को बदल उनको नए अंदाज में पेश किया जा रहा है। अमर उजाला ने इसी विषय को लेकर प्रसिद्ध कलाकारों से बातचीत की। चंडीगढ़ में लोक गीतों को लेकर दो आयोजन हो रहे हैं। एक चंडीगढ़ के टैगोर थिएटर में और दूसरा पंजाब कला भवन में। इन आयोजनों में आए लोक गायकों से अमर उजाला ने बातचीत की।
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ऐसे तो न करें लोक गीतों का मिश्रण
लोक गीत यानी शादी समारोह या फिर बड़े आयोजनों के साथ घर में होने वाले छोटे मोटे समारोह में गाए जाने वाले गीत। सिर्फ मैं पंजाब की बात नहीं करूंगी। चाहे कोई भी राज्य हो, हरेक के लोक गीत इस तेज जिंदगी में मिक्स हो रहे हैं। मैंने अपनी मां से लोकगीत सीखे और अब मेरी बेटी और नातिन तीनों लोक गीत गाती हैं। यह देखकर हैरानी होती है कि लोक गीत शार्ट्स में गाए जा रहे हैं, तेज धुन के साथ गाए जा रहे हैं, ढोलक और तबला गायब हैं।
यह लोक गीत नहीं बल्कि म्यूजिक है। मेरी मां ने एक जोनर गाया और मैंने लोक गीतों के सभी जोनर गाए। क्लासिकल म्यूजिक की एक अलग पहचान है। वह भी एक दौर था, जिसमें शाम के समय अक्सर महिलाएं ढोलक लेकर एक साथ बैठकर गीत गाती थीं। उनकी चुहलबाजियों को ही शब्दों का रूप देकर लोक विधा जन्मी थी। आज इसका भविष्य चिंतनीय स्थिति में है। -डॉली गुलेरिया, लोक गायिका
सिर्फ स्पेशल कार्यक्रम में लोकगीत
अब तो पंजाब के लोक गीत स्पेशल कार्यक्रम के लिए रह गए हैं। मैं लोक गीतों पर लिखती हूं, कई बार मुझको किताब तक नहीं मिलती है। मिलेगी भी तो कैसे, ट्रेंड तक चेंज हो चुका है। ऐसी स्थिति में हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं। लोक गीतों में अर्थ होता था, उसमें कई शब्दों को ऐसे पिरोया जाता था, जिससे लोगों को जोड़ा जाए। मैंने कुछ समय पहले म्यूजिक सुना उसमें लोक गीत को रीमिक्स कर दिया।
किसी को समझ नहीं आया। ऐसा लगता है कि कुछ समय में यह म्यूजियम पीस बन जाएंगे। लोक गीत तो नियमित जिंदगी का हिस्सा थे। अब तो डीजे की धुन पर लोक गीत सुनने को मिल जाते हैं। रैप में मिक्स कर दिए जाते हैं। यह काफी गंभीर स्थिति है। लोक गीतों का मतलब शोर नहीं बल्कि मिठास होती है, जो अब रह नहीं गई है। शायद यही कारण है कि जब बेटियां विदा होती थीं या फिर घर में किसी का जन्म होता था तो ऐसे गीतों से ही खुशियां प्रकट की जाती थीं। पूनम बिंद्रा, लेखक
पंजाबी कल्चर से सीधे जुड़े हुए हैं लोक गीत
मुझको ऐसा लगता है कि लोक गीतों को अभी वक्त रहते सहेजा जा सकता है। पुराने लोग अभी ग्रामीण इलाकों में ऐसे ही गीतों को गाते हैं और पसंद भी करते हैं। पंजाबी कल्चर का यह अभिन्न अंग हैं। शादी समारोह के दौरान गाए जाने वाले यह गीत जिंदगी में मिठास घोलते थे। समय के साथ इन गीतों का प्रचार प्रसार तो हुआ पर म्यूजिक इंडस्ट्री में पहुंचने के बाद इसके ऊपर एक नया रंग चढ़ा दिया गया।
अब आप बताएं कि एक सॉफ्ट गाए जाने वाले गीत को तेज संगीत में मिक्स कर दिया जाए तो क्या होगा। ऐसा सिर्फ पंजाबी लोक गीतों के साथ नहीं हो रहा है हर जगह ऐसा ही है। मैं मानती हूं कि आडियंस बदल रही है लेकिन आडियंस को जो हम परोसेंगे वही ग्रहण करेगी, इसलिए ज्यादा जिम्मेदारी हमारी है न कि आडियंस की। आज का म्यूजिक भी ठीक है पर अपने कल्चर से दूर हो जाना समझदारी नहीं है।
कनाडा में बसे कई पंजाबी परिवारों में अभी भी लोक गीतों की धूम रहती है। वहां कई परिवार ऐसे हैं जिनके समारोहों में तेज संगीत के बजाय लोक गीत ही सुने जाते हैं। हम भी अपने प्रोग्राम करते हैं तो लोगों का जबरदस्त रिस्पांस आता है। अच्छी बात यह है कि पंजाब के कुछ इलाकों में यंगस्टर्स लोक गीतों को सीख तो रहे हैं साथ ही प्रचारित भी कर रहे हैं। जसमीत कौर, लोक गायिका