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नर्मदा बचाओ आंदोलन के 40 बरस: इतिहास इस 'विकास बनाम विनाश' के संघर्ष को जरूर याद करेगा

Abhilash Khandekar अभिलाष खांडेकर
Updated Sat, 28 Jun 2025 12:28 PM IST
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सार

सरदार सरोवर बांध परियोजना सबसे बडी और  विवादास्पद परियोजना रही है, जिसने 2.50 लाख से अधिक लोगों को बेघर कर दिया और विशाल सिंचित भूमि को मध्य प्रदेश में नुकसान पहुंचाया है। हां, गुजरात को काफी हद तक लाभ मिला। अस्थिरता से भरे इन चार दशकों के दौरान, 'एनबीए' आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। मुख्य रूप से मेधा पाटकर के नेतृत्व में, 'एनबीए' ने सबसे पहले बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी।

40 years of narmada bachao andolan know the facts political history and role of medha patkar
मेधा पाटकर - फोटो : सोशल मीडिया

विस्तार
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एक तरफ जहां शक्तिशाली और परमाणु बम संपन्न देशों के बीच अपने ‘अधिकारों’ के लिए तनाव और संघर्ष वैश्विक पटल पर छाया हुआ है, वहीं भारत के कुछ हिस्सों में गरीब आदिवासी और किसान बुनियादी आजीविका के अधिकारों के लिए अपार कष्ट झेल रहे हैं, जो  बड़ी विकास परियोजनाओं का नतीजा है। स्वतंत्र भारत में न्याय के लिए सबसे प्रभावी जनसंघर्षों में से एक नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) ने गुजरात की सरदार सरोवर बांध परियोजना (एसएसपी) के खिलाफ चली आ रही अपनी लंबी और अनवरत व शांतिपूर्ण लड़ाई के सफल 40 साल पूरे कर लिए हैं।

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सरदार सरोवर बांध परियोजना सबसे बडी और  विवादास्पद परियोजना रही है, जिसने 2.50 लाख से अधिक लोगों को बेघर कर दिया और विशाल सिंचित भूमि को मध्य प्रदेश में नुकसान पहुंचाया है। हां, गुजरात को काफी हद तक लाभ मिला। अस्थिरता से भरे इन चार दशकों के दौरान, 'एनबीए' आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। मुख्य रूप से मेधा पाटकर के नेतृत्व में, 'एनबीए' ने सबसे पहले बड़े बांधों के निर्माण के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी, और फिर परियोजना से विस्थापित हुए हजारों लोगों के कानूनी अधिकारों के लिए जंग अब भी जारी है। आंदोलन ने कई हजार परिवारों को पुनर्स्थापित भी किया। अपने संघर्ष के पहले 25 वर्षों में मेधा को पर्याप्त सामाजिक और राजनीतिक समर्थन हासिल हुआ था, लेकिन अंततः वे खुद को आज अकेला पाती हैं क्यों की समस्याओं का पूरा समाधान नहीं हुआ है।

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जाहिर है इस वजह से मेधा के अंदर शायद तंत्र के प्रति कड़वाहट भर गई है, हालांकि वह इसे अपने चेहरे पर कभी नहीं दिखाती। अथक परिश्रमी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा अभी भी नर्मदा घाटी में रहने वाले सीमांत किसानों, गरीबों और अशिक्षित आदिवासियों के लिए संघर्षरत है जो बेहद सराहनीय है। उनकी जिजीविषा को सलाम।


अनेक न्यायालयीन मामले, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, उनका उलंघन, सैकड़ों धरने, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बीच अधिकारों की लड़ाई, विश्व बैंक का प्रवेश और निर्गम 
ब्रैडफोर्ड मोर्स की रिपोर्ट, केंद्रीय तथ्य अन्वेषण समिति की रिपोर्ट (डूबती घाटी : सभ्यता का विनाश), परियोजना की स्वतंत्र समीक्षाएं, समय-समय पर लेखा नियंत्रक के प्रतिकूल निष्कर्ष, बांध की ऊंचाई पर विवाद और उसके  कारण डूब क्षेत्र की भूमि में वृद्धि, परियोजना की लगातार बढ़ती लागत, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की पर्यावरणीय अपरिमित क्षति, परिवारों के पुनर्वास की पीड़ा, निर्माण कार्यो में भयानक भ्रष्टाचार, नहरों का विलंबित और दोषपूर्ण कार्य, कच्छ क्षेत्र में सिंचाई के लिए घोषित उपयोग के बजाय नर्मदा के पानी को गुजरात के कोका कोला संयंत्र और अन्य उद्योगों को दिया जाना, नौकरशाही का अन्याय, बुद्धिजीवियों की उदासीनता, मेधा के सहयोगियों और नेताओं द्वारा धीमी-धीमी उपेक्षा - ये सब इन चालीस अशांत वर्षों में घटित हुआ।

महत्वपूर्ण बात है कि एक समय ऐसा भी था जब अधिकतर पर्यावरणविद, मानवाधिकार कार्यकर्ता, तटस्थ विचारक और लेखक जैसे दुर्गा भागवत, नाना पाटेकर, स्वामी अग्निवेश, अनुपम मिश्र, बाबा आमटे (वे अपनी पत्नी साधना ताई के साथ एक दशक से अधिक समय तक बड़वानी में रहे), प्रोफेसर राज काचरू, भाजपा नेता सत्य नारायण जटिया जैसे लोगों ने 'एनबीए' का समर्थन किया था। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में कतिपय  कारणों से यह समर्थन कम होता गया - मुख्य रूप से भाजपा सरकारों के अड़ियल रुख के कारण। 

वर्ष 2017 में, चौतरफा विरोध और वंचित वर्ग के लोगों और परिवारों के अपूर्ण, दोषपूर्ण पुनर्वास के बावजूद, अंततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर बडे बांध ( उँचाई 138 मीटर) का उद्घाटन कर दिया.

कई दशक पहले गुजरात के सूखे से जूझ रहे हिस्से को लाभ पहुंचाने के लिए इस बांध का सपना देखा गया था उस समय ऊंचाई 90 मीटर से ऊपर नही थी। इस बांध का काम 1987 में शुरू हुआ था (मूल लागत ₹ 6406 करोड़; अंतिम लागत करीब ₹ 80,000 करोड़)। बांध की योजना के अनुसार मध्य प्रदेश की पवित्र नदी के पानी से गुजरात की सिंचाई होगी और बिजली मिलेगी। इससे मप्र को कम लाभ था, महाराष्ट्र को तो और भी कम। बांध के उद्घाटन के बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) अप्रासंगिक हो गया है और इसकी भूमिका समाप्त हो गई है। लेकिन नहीं। पिछले कई माह से पर्यावरणवादी मेधा ने घाटी के प्रभावित किसानों के साथ मिलकर अपनी मांगों को फिर से उठाया है और इस तथ्य को दोहराया कि मध्य प्रदेश में हजारों परिवार अभी भी न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उच्च न्यायालय के उनके पक्ष में फैसले के बावजूद उनकी जायज शिकायतों को सरकारी अधिकारियों ने लगातार अनदेखा कर दिया।
 

मेधा का कहना है कि अब नर्मदा नदी को ही बचाने का समय आ गया है क्योंकि इसका पानी प्रदूषित हो रहा है और पीने योग्य नहीं रह गया है।


पाटकर बड़े बांधों की उपयोगिता, उनकी लागत और लाभों पर सवाल उठाती रहती हैं। वह उन लोगों की भयावह स्थिति को उजागर करती हैं जिन्हें मजबूरन अपने पुश्तैनी घर और कृषि भूमि को छोड़ना पड़ा और राज्य के बाहर बंजर जमीन के टुकड़ों पर बसना पड़ा, अपनी पैतृक संपत्ति से बेदखल होने की असीम पीड़ा के बारे में तो बात ही छोड़िए, आदिवासीयों  आंखों के अथाह आंसू सब बयान कर है।

चालीस वर्ष बाद, 'एनबीए' भले ही उतना मजबूत संगठन न बचा हो , मेधा का जज्बा अदम्य है. वह आदिवासियों और कमजोर वर्ग के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए अपनी आवाज दमदारी से उठा रही है। यह सब भी ऐसे कठिन समय में जब विरोध करना पाप-सा है, कुछ कम नहीं है।

इतिहास जरूर इस 'विकास बनाम विनाश' के संघर्ष को याद करेगा।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।


 

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