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महाराष्ट्र और मराठी-हिंदी विवाद: क्षेत्रिय अस्मिता और राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई

Mohan singh मोहन सिंह
Updated Mon, 07 Jul 2025 12:09 PM IST
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सार

हालिया मराठी-हिन्दी विवाद की शुरुआत नई शिक्षा नीति 2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले  को चरणबद्ध तरीके से लागू  किए जाने को लेकर हुई। राज्य शिक्षा विभाग की ओर से यह प्रस्ताव आया कि- कक्षा एक से दसवीं कक्षा तक हिन्दी की पढ़ाई शुरू की जाए, ताकि विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा के लिए बेहतर रूप से तैयार किए जा सकें।

Maharashtra and the Marathi-Hindi Dispute: A Battle for Regional Identity and Political Existence
महाराष्ट्र में चल रहा है मराठी-हिंदी भाषा विवाद। - फोटो : ANI

विस्तार
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महाराष्ट्र में पचास के दशक से ही मराठी पहचान  को लेकर राजनीति जारी है। मराठी भाषा का सवाल उस दौर से ही बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है। यह केवल शिक्षा नीति से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि क्षेत्रीय अस्मिता से इस मुद्दे का नाभि -नाल सम्बन्ध है। इसे एक तरह से 'मराठी मानुष'  के वर्चस्व  से भी जोड़कर देखने -समझने की जरूरत है।

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स्वर्गीय बाला साहेब ठाकरे ने मराठी भाषा और मराठीमानुष के वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए ही शिवसेना की स्थापना किया था। ताकि मराठी अस्मिता का राजनीतिक वर्चस्व कायम रहें।उस दौर से आज तक  शिवसेना के निशाने पर  हिन्दी भाषी और दक्षिण भारतीयों के विरुद्ध   वैमनस्य की राजनीति बदस्तूर जारी है। आगे भी जारी रहेगा। 'आवाज़ मराठीचा ' के आन्दोलन को गति देने की यहीं  मुख्य वजह है।
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तर्क यह दिया जा रहा है कि - सन् 2001की जनगणना में हिन्दी भाषियों की जनसंख्या 25.9%थी, जो सन् 2011की जनगणना में बढ़कर 30.2% हो गयी। इस अवधि में मराठी भाषियों की जनसंख्या 42.9% से घटकर 41% रह गयी। शिवसेना की समझ यह है कि  यह सिर्फ आंकड़े  की दृष्टि से जनसंख्या का बदलाव नहीं हुआ है।

इससे सामाजिक -राजनीतिक समीकरण भी बदलने के आसार है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में इंडिया गठबंधन में शामिल शिवसेना को जिस तरह से हार का सामना करना पड़ा, उसके मद्देनजर शिवसेना को ऐसे मुद्दे की तलाश थी  जो उसे  आगामी मुम्बई महानगर महापालिका के चुनाव में जीत दिला सकें।

हालिया मराठी-हिन्दी विवाद की शुरुआत नई शिक्षा नीति 2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले  को चरणबद्ध तरीके से लागू  किए जाने को लेकर हुई। राज्य शिक्षा विभाग की ओर से यह प्रस्ताव आया कि- कक्षा एक से दसवीं कक्षा तक हिन्दी की पढ़ाई शुरू की जाए, ताकि विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा के लिए बेहतर रूप से तैयार किए जा सकें।

प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि - हिन्दी अनिवार्य होने के बजाय समान्य रूप से तीसरी भाषा होगी। अगर किसी विद्यालय में बीस से अधिक विद्यार्थी हिन्दी के अलावा कोई अन्य भाषा पढ़ना चाहते हैं, तो इसे छोड़ सकते हैं। अप्रैल में जारी एक आदेश में कहा गया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत महाराष्ट्र के  विघालयों में एक से पांचवीं तक  त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया है।

इससे पहले इन विद्यालय में केवल मराठी और अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य थी। ताज्जुब यह कि जिन राज्यों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिन्दी थोपे जाने का विरोध हो रहा हैं, उन राज्यों में शायद ही कभी अंग्रेजी थोपे जाने का  विरोध किया हों। इस मायने में अंग्रेजी ही आज सचमुच भारत की राष्ट्रीय भाषा हो गयी है और हिन्दी ( जिसे राष्ट्रीय भाषा होने  का संवैधानिक दर्जा हासिल है।) क्षेत्रीय अस्मिता की लड़ाई में निरन्तर अपनी बाजी हार रही है। बिना यह समझें कि भाषाई बहुलता हमारी थाती और ताकत है

आज वर्चस्व की राजनीति खड़ी करने की जो कोशिश है; उसका हस्र अन्तत: संघीय भाषा बनाम  क्षेत्रीय भाषाई  प्रभुत्व की बहस को एक बार फिर केन्द्र में ला खड़ा किया है। इस सन्दर्भ में हमें महान अफ्रीका लेखक न्गूगी वा थ्यांगो  को याद करना चाहिए " अनेक भाषाओं वाला विश्व  विभिन्न रंगों वाले मैदान जैसा होना चाहिए। कोई ऐसा फूल नहीं जो रंग और आकार के कारण दूसरे फूलों से बढ़कर हो।

ऐसे सभी फूल अपने रंगों और आकारों की विविधता में अपने सामूहिक पुष्पत्व  को व्यक्त करते है।"  हमें भाषाओं के लोकतंत्र को समझना चाहिए। तभी हम भाषा की निधि को नष्ट होने से बचा सकेंगे और उसे भावी पीढ़ी को सौंप सकेंगे। इस संदर्भ  में हमें  'मेरा दागिस्तान' पुस्तक के मशहूर लेखक रसूल हमजातोव का यह  कथन भी बेशक याद रखना होगा कि - (किसी) भाषा में बोलना  सीखने के लिए महज दो साल चाहिए, और इसे कैसे वश में रखा जाए, इसके लिए साठ साल चाहिए।"

जनपदीय भाषा और बोलियों का आन्दोलन चलाने की जरूरत: एक ऐसे समय में जब लगभग हर गैर - हिन्दी भाषी राज्यों में त्रिभाषा फार्मूले लागू किये जाने के विरुद्ध भाषाई अस्मिता और वर्चस्व का आंदोलन  कहीं उत्तर बनाम दक्षिण, तो कहीं हिन्दी बनाम क्षेत्रीय भाषा के अस्तित्व को बचाने के लिए तेज हो रहा हैं। ऐसे संवेदनशील मुद्दे के समाधान  के लिए ऐसे फार्मूले की तलाश जरूरी है; जिससे  वैमनस्य के बजाय सामंजस्य की जमीन तैयार किया जा सकें।

स्वाधीनता  आंदोलन के साथ ही इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल, राहुल सांकृत्यायन  आचार्य नरेन्द्र, और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी  जैसे मनीषियों ने जनपदीय आन्दोलन की बात की थी। इन मनीषियों की सोच यह थी कि जनपदों में  जो साहित्य, संगीत,  कला कौशल और ज्ञान - विज्ञान  का अनमोल  खजाना बिखरा पड़ा हैं; वह मानवीय अनुभव, संघर्ष और चेतना की संचित इतिहास संपदा है। उसका अध्ययन -अनुसंधान किया जाना चाहिए।

देखना यह चाहिए कि उस संचित निधि के भीतर ऐसा क्या है, जो हमारे जीवन को बेहतर बनाने के काम आ सकता है। इस सम्बन्ध में मनीषी इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल कहना है कि " जब हमारी भाषा का सम्बन्ध जनपदों से जोड़ा जाएगा , तभी उसे नया  प्राण और शक्ति  प्राप्त होगी।उस संचित कोष से वह धन प्राप्त  होगा जिससे समस्त भाषाओं के हर तरह के अभाव और  दलिद्दर  को मिटाया जा सकता है।

इसे विकसित करने के लिए उन्होंने ने तीन मुख्य द्वार बताया है -1 भूमि और उससे सम्बन्धित  वस्तुओं का अध्ययन। 2- भूमि पर बसने वाले जन का अध्ययन। 3- जन की संस्कृति या जीवन का अध्ययन।आगे वे कहते है कि - भूमि, जन और संस्कृति रुपी त्रिकोण में सारा जीवन समाहित है। इसका आश्रय लेकर हम अपने अध्ययन की पगडंडियों  को बिना पारस्परिक संकर के निर्दिष्ट स्थान तक ले जा सकते हैं। जनपदीय अध्ययन के केन्द्र में मनुष्य होगा। भगवान वेदव्यास की बतायी परिभाषा में भी कहा गया है कि - इस पृथ्वीलोक में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है:-
 

गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि। नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।।


जनपदीय अध्ययन से इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल को ऐसा अनुमान था कि अकेले हिन्दी भाषा को लगभग पचास सहस्र नये शब्द प्राप्त होंगे। इस शब्दकोश से  हम अपने अनेक मनोभावों को व्यक्त करने के लिए उचित शब्द के अभाव का जो टोटा पड़ा रहता है, वह मिट जाएगा।

आज भाषा सम्बन्धी  किसी  विवाद में अस्मिता की पहचान और क्षेत्रीय वर्चस्व की राजनीति तो बढ़-चढ़कर हो रही है। पर इसमें सांस्कृतिक एकता की सूत्रों की तलाश की कोशिश शायद ही कहीं दिख रही हों। भारतीय संविधान में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को लेकर तो  खूब बहस हो रही है। पर देश की एकता और अखंडता का मुद्दा सिरे से गायब है। हमारे ऋषियों ने  इस एकता और अखंडता के सूत्रों की तलाश किया हैं, जिसका आधार भारतीय संस्कृति में निहित है। कहा है:-
 

सत्यं बृहदृतमुग्रं  दीक्षा 
                तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति।
           सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी 
              उरं लोको पृथ्वी न:कृणोतु।।


अर्थात् सत्य बृहत और उग्र ऋत दीक्षा तप ब्रह्म और यज्ञ  ये पृथ्वी को धारण करते हैं। जो पृथ्वी हमारे भूत और भविष्य की पत्नी है, वह हमारे लिए विस्तृत लोक प्रदान करने वाली हों। यह हमारे आध्यात्मिक जीवन का आधार तो है ही, हमारे राष्ट्रीय जीवन का भी आधार है, इसी से संस्कृति का भी निर्माण होता है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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