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नेपाल: भारत विरोधी सरकार की विदाई, पर कड़ी नजर बनाए रखना जरूरी
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सार
के.पी. शर्मा ओली का रुख शुरू से भारत विरोधी रहा था। उनके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव गहराता चला गया।

नेपाल में सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ प्रदर्शन।
- फोटो : एएनआई
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विस्तार
नेपाल में जेनरेशन-जेड के आंदोलन के 24 घंटे के भीतर प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को पद छोड़ना पड़ा। नेपाल सरकार के कई मंत्रियों और सांसदों ने भी इस्तीफा दे दिया। भारत पर नेपाल के हालातों का क्या असर पड़ेगा? यह आगे देखने वाला होगा, क्योंकि के.पी. शर्मा ओली का रुख अब तक भारत विरोधी रहा था।

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जैसा, भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘भारत सरकार नेपाल की परिस्थितियों पर नजर रख रही है।‘ उम्मीद यही की जानी चाहिए कि नेपाल में अब एक स्थिर सरकार बनेगी, जो वहां लंबे समय से चल रही राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सुलझाएगी और वो चीन परस्त नहीं होगी।
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के.पी. शर्मा ओली का रुख शुरू से भारत विरोधी रहा था। उनके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव गहराता चला गया। विशेष कर वर्ष 2020 में नेपाल ने जब अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें भारत के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को अपना हिस्सा बताया गया तो दोनों देशों के संबंध बिगड़ते चले गए। के.पी. शर्मा ओली के चीन की ओर झुकाव के कारण भी भारत के साथ नेपाल के संबंधों में खटास बढ़ी।
के.पी. शर्मा ओली ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) समेत चीन के साथ कई बुनियादी ढांचे एवं व्यापारिक समझौते कर भारत को एक तरह से चिढ़ाने का काम किया। यह भी माना जाता है कि के.पी. शर्मा ओली ने अपनी घरेलू राजनीति को साधने के लिए भारत विरोध को राष्ट्रवाद का हथियार बनाते थे।
हाल में, के.पी. शर्मा ओली ने भारत के साथ सीमा विवाद को लेकर चीन से हस्तक्षेप की गुहार तक लगाई थी। हालांकि, चीन ने इसे नकार दिया। के.पी. शर्मा ओली का चीन की ओर अत्यधिक झुकाव नेपाल की विदेश नीति को असंतुलित कर रहा था।
भारत की तरह नेपाल एक हिंदू बाहुल्य देश है। वर्ष 2008 तक नेपाल हिंदू राष्ट्र था, लेकिन वहां राजशाही के हटने एवं लोकतंत्र की स्थापना के बाद वो धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित कर दिया गया। नेपाल के भारत के साथ न केवल ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक रिश्ते हैं, बल्कि नेपाल के राजा को विष्णु अवतार तक माना जाता है। रामायण से लेकर बौद्ध धरोहर तक, दोनों देशों की सभ्यता एक-दूसरे से जुड़ी हुई है।
करोड़ों नेपाली रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भारत पर ही निर्भर हैं। भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार और निवेशक भी है। भारतीय सेना में नेपाल के गोरखा भर्ती होते रहे हैं। हालांकि, अग्निवीर योजना के बाद यह प्रक्रिया रुकी हुई है, लेकिन अब के.पी. शर्मा ओली की विदाई से संभवतः इसे पुनः बहाल किया जा सकता है।
हालांकि, भारत को नेपाल के ताजा आंदोलन के पीछे कोई भू-राजनीतिक खेल तो नहीं है, डीप स्टेट की कोई चाल तो नहीं है, इसे लेकर सतर्क रहना होगा। भारत को नेपाल में जारी अस्थितरता पर संयम एवं शांति की नीति अपनानी होगी। एक उत्तरदायी पड़ोसी के रूप में अपनी भूमिका को दर्शना होगा।
फिलहाल, भारत को नेपाल में अपने दूतावास एवं नागरिक सहायता तंत्र को और मजबूत करने की आवश्यकता है। चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए कूटनीतिक सतर्कता भी बढ़ानी होगी। सीमाई क्षेत्रों में सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग को बढ़ाना होगा।
यह तो साफ है कि भारत के साथ चीन की नजर भी नेपाल के हालातों पर बनी होगी। चूंकि, चीन से ज्यादा नेपाल के लोग भारत के करीबी हैं तो भारत को इस मौके को दोनों देशों की दोस्ती को फिर से नई ऊंचाई देने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।
के.पी. शर्मा ओली का सत्ता से हट जाना भारत और नेपाल के रिश्तों को फिर से पटरी पर लाने का एक मौका है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।