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दूसरा पहलू: ASI की खोदाई और गोवर्धन में छिपी सभ्यताएं, 1954-55 में जन्मभूमि के पास मिली धूसर मृदभांड संस्कृति
अमित मुद्गल
Published by: ज्योति भास्कर
Updated Wed, 02 Jul 2025 06:37 AM IST
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सार
एएसआई भले महाभारत काल की पुष्टि न करता हो, पर राजस्थान के बहज गांव में चल रही खोदाई जरूर कई प्रमाण उगल रही है। आजादी के बाद मथुरा क्षेत्र में पहली खोदाई 1954-55 में जन्मभूमि के पास हुई थी। उस समय यहां धूसर मृदभांड संस्कृति मिली, लेकिन यह रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हो पाई थी।

गोवर्धन में छिपी सभ्यताएं.. खोदाई के दौरान मिली कई अहम चीजें
- फोटो : अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) भले ही महाभारत काल को मान्यता न देता हो, पर मथुरा से सटे और गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे राजस्थान के बहज गांव के टीले पर पिछले साल से खोदाई कर रहे एएसआई को हजारों साल पुरानी सभ्यताओं के साक्ष्य मिल रहे हैं। एएसआई इस टीले को गोवर्धन पर्वत का ही भाग मानता है। महाभारत काल करीब पांच हजार वर्ष पूर्व का माना जाता है। पिछले साल भगवान श्रीकृष्ण का 5251वां प्राकट्योत्सव मना था। खोदाई के साक्ष्य इसी ओर इशारा और भगवान श्रीकृष्ण के अस्तित्व की आम अवधारणा को मजबूत करते हैं।
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इसी अवधारणा को लेकर हाईकोर्ट में श्रीकृष्ण जन्मस्थान के मूल गर्भगृह पर मंदिर बनाने के लिए मुकदमा चल रहा है। खोदाई में गणेश्वर सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। यहां तीन हजार साल पुरानी शिव-पार्वती की प्रतिमा, मौर्यकालीन मातृदेवी प्रतिमा का सिर, सिक्के, यज्ञ कुंड, धातु के औजार और शुंग कालीन अश्विनी कुमारों की मूर्ति फलक, तो दुर्लभ टेराकोटा पाइप मिले हैं। खोदाई का नेतृत्व कर रहे अधीक्षण विनय कुमार गुप्ता ने बीते दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रस्तुति देकर इन अवशेषों को विशेष बताया था।
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खोदाई से यह बात भी साफ हो गई है कि इस क्षेत्र की सभ्यता मध्य और उत्तर पाषाण कालीन है। यानी लगभग ढाई लाख वर्ष पुरानी सभ्यता के भी यहां प्रमाण मिले। एक लुप्त नदी के प्रमाणों ने पुरातत्वविदों के चेहरे पर और चमक ला दी है। पुरातत्व विभाग यह साबित कर चुका है कि गोवर्धन पर्वत पुरापाषाण काल का है।
यह खोदाई कई पुरानी मान्यताओं को भी बदल रही है। आजादी के बाद मथुरा क्षेत्र में पहली खोदाई 1954-55 में जन्मभूमि के पास हुई थी। उस समय यहां धूसर मृदभांड संस्कृति मिली। हालांकि, यह रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हो पाई थी। उस वक्त यह सिद्धांत गढ़ने की कोशिश हुई कि मथुरा व आसपास का क्षेत्र पांचवीं-छठी शताब्दी ईसा पूर्व का छोटा-सा गांव था और उससे पहले यहां संस्कृति नहीं थी।
बाद में जब विदेशी आक्रांता आए, तब यह मेट्रोपोलिटन सिटी बनने की दिशा में आगे बढ़ा। अब विनय कुमार गुप्ता ने न केवल अपनी रिपोर्ट में इसका खंडन किया, बल्कि बताया कि इस क्षेत्र में ढाई किलोमीटर के टीले पर भरपूर मात्रा में चित्रित धूसर मृदभांड मिले हैं। यहां कई ऐसे साक्ष्य मिल रहे हैं, जिनसे विशेषज्ञ भी अचंभित हो रहे हैं। पुरातत्वविद अब इस पर काम कर रहे हैं कि यहां खेती एवं पशुपालन की शुरुआत कब हुई। मशहूर पुरातत्वविद एवं इतिहासकार डॉ. उपिंदर सिंह ने इस टीले का भ्रमण किया और विजिटर बुक में लिखा, ‘यह खोदाई नई मान्यताओं एवं खोजों को नई दिशा देगी।’