{"_id":"6940be33767b5095400b0b45","slug":"blog-life-is-not-a-static-meaning-its-celebration-of-continuous-movement-2025-12-16","type":"story","status":"publish","title_hn":"जीवन धारा: जीवन किसी ठहरे हुए अर्थ का नाम नहीं, यह सतत गति का उत्सव","category":{"title":"Blog","title_hn":"अभिमत","slug":"blog"}}
जीवन धारा: जीवन किसी ठहरे हुए अर्थ का नाम नहीं, यह सतत गति का उत्सव
मारित्ज श्लिक, अमर उजाला
Published by: नितिन गौतम
Updated Tue, 16 Dec 2025 07:34 AM IST
सार
सोचना, रचना करना, खेलना, संवाद करना, श्रम व खोज करना-ये सभी जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं। जब ये किसी पुरस्कार, प्रशंसा या भय से मुक्त होकर की जाती हैं, तब शुद्ध आनंद का रूप ले लेती हैं।
विज्ञापन
जीवन उत्सव का नाम है
- फोटो : अमर उजाला
विज्ञापन
विस्तार
यह जीवन किसी ठहरे हुए अर्थ का नाम नहीं है, बल्कि सतत गति और सजीव क्रिया का उत्सव है। जीवन वहीं स्पंदित होता है, जहां कर्म है, जहां चेतना सक्रिय है, और जहां मनुष्य अपने अस्तित्व को किसी बाहरी लक्ष्य की प्रतीक्षा में नहीं, बल्कि आत्म क्रिया के आनंद में अनुभव करता है। यदि जीवन में सच्चे अर्थ की खोज करनी है, तो वह हमें ऐसी गतिविधियों में करनी होगी, जिनका उद्देश्य और मूल्य स्वयं उनके भीतर निहित हो, न कि किसी बाहरी लक्ष्य पर निर्भर।
जब जीवन निष्क्रिय हो जाता है, तब चेतना भी मद्धम पड़ने लगती है। अर्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे संग्रहीत किया जाए, बल्कि वह तो उसी क्षण प्रकट होता है, जब हम पूरी सजगता के साथ काम कर रहे होते हैं। जीवन की सार्थकता किसी अंतिम उपलब्धि में नहीं, बल्कि उस निरंतर प्रवाह में है, जिसमें मनुष्य खुद को सक्रिय रूप से संलग्न रखता है। यह प्रवाह ही जीवन है। अक्सर हम जीवन को भविष्य से जोड़ देते हैं। हम आज को कल के नाम पर टालते हैं और वर्तमान को केवल एक साधन बना देते हैं। इस दृष्टि में वर्तमान खोखला हो जाता है और जीवन बोझ बन जाता है। इसके विपरीत, जब हमारी गतिविधियां अपने आप में पूर्ण होती हैं, तब हर क्षण स्वयं को सार्थक सिद्ध करता है। तब जीवन को अर्थ देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्योंकि अर्थ अनुभव बनकर तत्काल उपस्थित होता है।
मनुष्य मूलतः क्रियाशील प्राणी है। सोचना, रचना करना, खेलना, संवाद करना, श्रम करना और खोज करना-ये सभी जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं। जब ये क्रियाएं किसी पुरस्कार, प्रशंसा या भय से मुक्त होकर की जाती हैं, तब वे शुद्ध आनंद का रूप ले लेती हैं। यही आनंद उस मूल्य का प्रमाण है, जो क्रिया के भीतर ही निहित होता है। इसे किसी नैतिक आदेश या दार्शनिक तर्क से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती।
इस दृष्टि से जीवन और सुख के बीच कोई विरोध नहीं बचता। जो क्रिया स्वभाव से उत्पन्न होती है, वही जीवन को पूर्ण बनाती है। सच्चा कर्तव्य वही है, जो भीतर की प्रेरणा से जन्म ले। जब हम अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करते हैं, तब न तो बाध्यता रहती है और न ही थकान, बल्कि एक सहज लय उत्पन्न होती है, जिसमें जीवन स्वयं आगे बढ़ता रहता है। जीवन का अर्थ किसी अलौकिक लक्ष्य या अंतिम सत्य में खोजने का प्रयास, अक्सर हमें वास्तविक जीवन से दूर कर देता है। वह वर्तमान को अपूर्ण मान लेता है, जबकि जीवन की पूर्णता इसी क्षण में निहित है। अर्थ कोई भविष्य की वस्तु नहीं, बल्कि वर्तमान की क्रियाशैली है।
जब मन पूरी तरह किसी कार्य में डूब जाता है, तब समय का बोझ भी समाप्त हो जाता है। अतीत और भविष्य अपनी पकड़ खो देते हैं, और जीवन एक अखंड अनुभव बन जाता है। यही अखंडता जीवन को गहराई देती है। इस प्रकार जीवन का अर्थ किसी सवाल का जवाब नहीं, बल्कि सजग, स्वतंत्र और आनंदपूर्ण क्रियाशीलता की स्थिति है। जब हम जीवन को पूरी चेतना के साथ जीते हैं, तब जीवन स्वयं ही अपना अर्थ हासिल कर लेता है।
Trending Videos
जब जीवन निष्क्रिय हो जाता है, तब चेतना भी मद्धम पड़ने लगती है। अर्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे संग्रहीत किया जाए, बल्कि वह तो उसी क्षण प्रकट होता है, जब हम पूरी सजगता के साथ काम कर रहे होते हैं। जीवन की सार्थकता किसी अंतिम उपलब्धि में नहीं, बल्कि उस निरंतर प्रवाह में है, जिसमें मनुष्य खुद को सक्रिय रूप से संलग्न रखता है। यह प्रवाह ही जीवन है। अक्सर हम जीवन को भविष्य से जोड़ देते हैं। हम आज को कल के नाम पर टालते हैं और वर्तमान को केवल एक साधन बना देते हैं। इस दृष्टि में वर्तमान खोखला हो जाता है और जीवन बोझ बन जाता है। इसके विपरीत, जब हमारी गतिविधियां अपने आप में पूर्ण होती हैं, तब हर क्षण स्वयं को सार्थक सिद्ध करता है। तब जीवन को अर्थ देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्योंकि अर्थ अनुभव बनकर तत्काल उपस्थित होता है।
विज्ञापन
विज्ञापन
मनुष्य मूलतः क्रियाशील प्राणी है। सोचना, रचना करना, खेलना, संवाद करना, श्रम करना और खोज करना-ये सभी जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं। जब ये क्रियाएं किसी पुरस्कार, प्रशंसा या भय से मुक्त होकर की जाती हैं, तब वे शुद्ध आनंद का रूप ले लेती हैं। यही आनंद उस मूल्य का प्रमाण है, जो क्रिया के भीतर ही निहित होता है। इसे किसी नैतिक आदेश या दार्शनिक तर्क से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती।
इस दृष्टि से जीवन और सुख के बीच कोई विरोध नहीं बचता। जो क्रिया स्वभाव से उत्पन्न होती है, वही जीवन को पूर्ण बनाती है। सच्चा कर्तव्य वही है, जो भीतर की प्रेरणा से जन्म ले। जब हम अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करते हैं, तब न तो बाध्यता रहती है और न ही थकान, बल्कि एक सहज लय उत्पन्न होती है, जिसमें जीवन स्वयं आगे बढ़ता रहता है। जीवन का अर्थ किसी अलौकिक लक्ष्य या अंतिम सत्य में खोजने का प्रयास, अक्सर हमें वास्तविक जीवन से दूर कर देता है। वह वर्तमान को अपूर्ण मान लेता है, जबकि जीवन की पूर्णता इसी क्षण में निहित है। अर्थ कोई भविष्य की वस्तु नहीं, बल्कि वर्तमान की क्रियाशैली है।
जब मन पूरी तरह किसी कार्य में डूब जाता है, तब समय का बोझ भी समाप्त हो जाता है। अतीत और भविष्य अपनी पकड़ खो देते हैं, और जीवन एक अखंड अनुभव बन जाता है। यही अखंडता जीवन को गहराई देती है। इस प्रकार जीवन का अर्थ किसी सवाल का जवाब नहीं, बल्कि सजग, स्वतंत्र और आनंदपूर्ण क्रियाशीलता की स्थिति है। जब हम जीवन को पूरी चेतना के साथ जीते हैं, तब जीवन स्वयं ही अपना अर्थ हासिल कर लेता है।