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विजय दिवस विशेष: छाछरो रेड के नायक और सीमांत प्रहरी थे बलवंत सिंह बाखासर
सार
बलवंत सिंह बाखासर का जन्म 23 दिसंबर 1925 को राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर जिले के बाखासर गांव में हुआ। यह इलाका एक ओर पाकिस्तान के सिंध प्रांत से और दूसरी ओर गुजरात की सीमा से जुड़ा है।
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बलवंत सिंह बाखासर
- फोटो : Adobe Stock & X/@shrawansc
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विस्तार
देश आज भारत–पाकिस्तान 1971 युद्ध का 54वां विजय दिवस मना रहा है। यह भारत के सैन्य इतिहास की उस निर्णायक घड़ी का स्मरण है, जब 1971 के युद्ध में भारत ने न केवल सैन्य विजय प्राप्त की, बल्कि साहस, रणनीति और नेतृत्व की नई मिसाल भी कायम की। इस युद्ध से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं, पर कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं, जो इतिहास के हाशिये पर रह गईं।
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छाछरो रेड और उसमें बलवंत सिंह बाखासर जैसे सीमांत नायक की भूमिका ऐसी ही एक गाथा है, जो भारत की विजय को गहराई से समझने का अवसर देती है।
बलवंत सिंह बाखासर का जन्म 23 दिसंबर 1925 को राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर जिले के बाखासर गांव में हुआ। यह इलाका एक ओर पाकिस्तान के सिंध प्रांत से और दूसरी ओर गुजरात की सीमा से जुड़ा है। बचपन से ही उन्होंने सीमा जीवन की कठिनाइयों, असुरक्षा और संघर्ष को बहुत निकट से देखा।
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उनके पिता ठाकुर राणा सिंह और माता हंस कंवर थीं। माता धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, पर इतिहास और लोकगाथाओं में उनकी विशेष रुचि थी। बाल्यकाल से बलवंत सिंह को राजस्थान के वीरों राणा प्रताप, पाबूजी और अन्य सीमांत योद्धाओं की कथाएं सुनाई जाती थीं।
यही कारण था कि उनमें साहस, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति के संस्कार बहुत जल्दी विकसित हो गए। युवावस्था में ही वे घुड़सवारी, शस्त्र-विद्या और कठोर रेगिस्तानी जीवन में दक्ष हो गए। वे केवल व्यक्तिगत वीरता तक सीमित नहीं रहे, बल्कि धीरे-धीरे जनरक्षक और लोकनायक के रूप में पहचाने जाने लगे।
1940 के दशक से लेकर लगभग पांच दशकों तक बलवंत सिंह बाखासर सीमावर्ती क्षेत्र में सक्रिय रहे। उस समय न तो सीमा पर पर्याप्त सुरक्षा बल थे और न ही प्रशासन की पहुंच हर जगह थी। ऐसे में वे स्थानीय जनता के लिए सुरक्षा की ढाल बनकर खड़े रहे। डकैतों, लुटेरों और असामाजिक तत्वों के विरुद्ध उन्होंने सख्त रुख अपनाया।
लूटा गया धन गरीबों में बांटना, महिलाओं और बेटियों की रक्षा करना तथा सीमापार से हो रही लूट-पाट को रोकना उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। यही कारण है कि राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती इलाकों में लोग उन्हें जनरक्षक, सीमा प्रहरी और लोकनायक के रूप में सम्मान देते थे।
1971 के भारत-पाक युद्ध में जहां पूर्वी मोर्चे पर बांग्लादेश का निर्माण हुआ, वहीं पश्चिमी मोर्चे पर राजस्थान का रेगिस्तानी इलाका रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित छाछरो उस समय एक प्रमुख प्रशासनिक और सैन्य केंद्र था।
भारतीय सेना ने निर्णय लिया कि दुश्मन को पीछे से कमजोर करने के लिए बिहाइंड द एनमी लाइन्स जाकर एक साहसिक रेड की जाए। इस ऑपरेशन का उद्देश्य दुश्मन के एम्युनिशन डंप, सप्लाई लाइन्स, वॉटर पॉइंट्स और प्रशासनिक ठिकानों को नष्ट करना था।
इस अत्यंत जोखिमपूर्ण अभियान का निर्णय 10 पैरा (स्पेशल फोर्सेज) के कमांडिंग ऑफिसर ब्रिगेडियर महाराजा भवानी सिंह ने लिया। यह कोई साधारण फैसला नहीं था। दुश्मन के क्षेत्र में 70 से 100 किलोमीटर अंदर जाकर हमला करना और सुरक्षित लौट आना असाधारण साहस और आत्मविश्वास की मांग करता था।
महाराजा भवानी सिंह का नेतृत्व शांत, दृढ़ और दूरदर्शी था। उन्होंने न केवल सटीक सैन्य योजना बनाई, बल्कि स्थानीय सहयोग और मार्गदर्शन को भी रणनीति का अहम हिस्सा बनाया।
रेगिस्तान की सबसे बड़ी चुनौती भूगोल था। सॉफ्ट सैंड ड्यून्स, अनजान ट्रैक और सीमित रास्तों के कारण सेना की गाड़ियां कई स्थानों पर फंसने लगीं। ऐसे समय में बलवंत सिंह बाखासर की भूमिका निर्णायक साबित हुई। वे इस पूरे इलाके के भूगोल, गुप्त रास्तों और पारंपरिक ट्रैकों से भली-भांति परिचित थे।
सीमापार आवाजाही का उन्हें व्यावहारिक अनुभव था। जब सेना को वैकल्पिक मार्ग की आवश्यकता पड़ी, तब उन्होंने ऐसे रास्तों की जानकारी दी, जहां सॉफ्ट ड्यून्स कम थीं और वाहन आसानी से निकल सकते थे।
उनकी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक वह संवाद है, जो स्थानीय सहयोग की भावना को व्यक्त करता है, 'हुक्म करो तो अपनी गर्दन काटकर थाली में रख दूं।' यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि उस अटूट विश्वास का प्रमाण है, जो बलवंत सिंह बाखासर जैसे सीमांत नायकों और भारतीय सेना के बीच था। उनकी सहायता से सेना सही इनफिल्ट्रेशन पॉइंट तक पहुंची और ऑपरेशन बिना किसी बड़ी बाधा के आगे बढ़ सका।
4-5 दिसंबर 1971 की रात 10 पैरा कमांडोज ने पाकिस्तान में प्रवेश किया। सीमित रोशनी, रेगिस्तानी अंधेरा और लगातार जोखिम के बीच सेना आगे बढ़ती रही। छाछरो पहुंचने पर पाकिस्तानी रेंजर्स ने हल्का प्रतिरोध किया, लेकिन भारतीय सेना की तेज और सटीक कार्रवाई के सामने वे टिक नहीं सके।
बिना किसी भारतीय सैनिक के हताहत हुए छाछरो पर कब्ज़ा कर लिया गया। दुश्मन के 7–8 सैनिक मारे गए, जबकि हथियार, गोला-बारूद और कैदी पकड़े गए। यह ऑपरेशन सैन्य इतिहास में एक क्लासिकल टेक्स्ट-बुक रेड के रूप में दर्ज हुआ।
हालांकि, ऑपरेशन के बाद वापसी भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं थी। एक चरण पर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई, लेकिन संयम, नेतृत्व और स्पष्ट निर्णयों से स्थिति संभाल ली गई। पूरी टुकड़ी सुरक्षित भारत लौट आई। यह चरण महाराजा भवानी सिंह के ‘लीड फ्रॉम द फ्रंट’ सिद्धांत का जीवंत उदाहरण था।
छाछरो रेड ने पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान की सैन्य व्यवस्था को हिला दिया। इससे पाकिस्तानी रेंजर्स की कई पोस्ट खाली हो गईं और भारत को रणनीतिक व मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली। यह सिद्ध हुआ कि सीमांत नायकों का स्थानीय ज्ञान आधुनिक सैन्य रणनीति का एक महत्वपूर्ण आधार हो सकता है।
युद्ध के बाद भी बलवंत सिंह बाखासर का जीवन जनसेवा और सीमा सुरक्षा को समर्पित रहा। वे कभी प्रसिद्धि के पीछे नहीं भागे। आज भी बाखासर, बाड़मेर और सीमावर्ती गुजरात में उनकी वीरता की कहानियां लोकगीतों और स्मृतियों में जीवित हैं। विजय दिवस पर जब हम 1971 की जीत को याद करते हैं, तो यह आवश्यक है कि हम केवल बड़े सैन्य अभियानों को ही नहीं, बल्कि बलवंत सिंह बाखासर जैसे सीमांत नायकों को भी स्मरण करें।
छाछरो रेड केवल एक सैन्य सफलता नहीं थी, बल्कि साहस, स्थानीय ज्ञान और नेतृत्व की संयुक्त विजय थी। बलवंत सिंह बाखासर का जीवन हमें यह सिखाता है कि राष्ट्र की सुरक्षा केवल सीमाओं पर तैनात सेना से नहीं, बल्कि उन गुमनाम नायकों से भी सुनिश्चित होती है, जो हर परिस्थिति में देश के साथ खड़े रहते हैं।
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