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विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: सुमित्रा भावे- सामान्यजन के मन की निर्देशक
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सार
- सुमित्रा भावे की फिल्में उनकी बुद्धिमता का पता देती हैं। मानसिक अवस्था से संबंधित उन्होंने ‘देवारी’ (2004, जूरी पुरस्कृत) बनाई है। वे अंतरमन का सिनेमा बनातीं।
- सुमित्रा भावे की ‘अस्तु’ भी मानसिक अवस्था के कथानक पर है। लघु एवं टीवी केलिए लिखने के अलावा उन्होंने ‘वास्तुपुरुष’, ‘शुद्धि दे बुद्धि दे’, ‘संहिता’, ‘हा भारत माता’ ‘टू वीमेन’, ‘जिंदगी जिंदाबाद’ आदि फिल्मों का लेखन किया।

सिनेमा की दुनिया
- फोटो : Adobe Stock
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विस्तार
12 जनवरी 1943 को पुणे में जन्मीं सुमित्रा भावे का परिचय मुझे सबसे पहले फिल्म ‘आउट हाउस’ के संदर्भ में मिला। एक जूरी सदस्य के रूप में सुनील सुकथांकर निर्देशित यह फिल्म देखी। उन्होंने अपनी यह फिल्म सुमित्रा भावे को समर्पित की है। इस फिल्म की स्क्रिप्ट सुमित्रा ने लिखी थी।

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फिल्म पूरी होने के पूर्व वे गुजर गई थीं। इस साफ-सुथरी-सुंदर फिल्म में शर्मिला टैगोर एवं मोहन अगाशे ने मुख्य भूमिका की है। बाल कलाकार जिहान जितेंद्र होदर का सहज अभिनय आकर्षित करता है। साथ में हैं, सोनाल कुलकर्णी, राजेश्वरी सचदेव और हाँ हमारे शहर के नीरज कवि भी यहां नजर आते हैं।
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उत्सुकतावश मैंने सुमित्रा भावे को खोजना प्रारंभ किया। पता चला वे मराठी में फिल्म बनाती हैं। फिर तो खोज कर उनकी कई फिल्में, इंटरव्यू देखे। मराठी पूरी न समझने के बावजूद फिल्मों ने प्रभावित किया। फिल्म की भाषा साहित्य से भिन्न होने के कारण इसे समझना भी भिन्न तरह का अनुभव है। यह विजुअल माध्यम है यहां शब्द-संवाद से अधिक महत्व आकृतियों, प्रकाश-छाया, कैमरे के कोण का होता है। आज इसी अत्यंत संवेदनशील, दार्शनिक एवं गहन मानवीय दृष्टि सम्पन्न स्त्री की बात करती हूं।
मराठी सिनेमा में सुमित्रा भावे का योगदान
मराठी सिनेमा वैसे भी बॉलीवुड सिनेमा से आगे रहता है, लेकिन जीवन की बारीकियों को परदे पर चित्रित करने के कारण इस निर्देशक-स्क्रिप्ट राइटर ने मराठी सिनेमा को एक नई ऊंचाई प्रदान की। इसे आप उनकी 2009 की बनी 2 घंटे की फिल्म ‘एक कप चाय’ में बखूबी देख सकते हैं। भावे द्वारा लिखित इस फिल्म में किशोर कदम, अश्विनि गिरि एवं देविका दफ्तरदार ने मुख्य भूमिकाएं की हैं।
अपनी अन्य फिल्मों की भांति इसका निर्देशन उन्होंने सुनील सुकथांकर के साथ मिलकर किया है। सुनील सुकथांकर उनके साथी थे। दोनों पुणे फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान से प्रशिक्षित थे। दोनों ने मिल कर ने 50 साल की लंबी पारी में कई पुरस्कृत फिल्में बनाई।
एक फिल्म में अभिनय, 11 स्क्रिप्टलेखन करने वाली सुमित्रा भावे ने 18 फिल्मों का निर्देशन भी किया है। वे मुख्य रूप से स्क्रिप्ट लिखती और वे तथा सुनील सुकथांकर मिल कर फिल्म बनाते। सुमित्रा भावे की स्क्रिप्ट नारीवादी कोण लिए, सांकेतिक होतीं। दोनों की बनाई फिल्में मनोरंजन की दृष्टि से तैयार नहीं की जाती हैं, मनोरंजन तो होता है पर ये फिल्में समाजोन्मुख होती हैं।
उदाहरण के लिए कई संकेत समेटे फिल्म ‘कासव’ (कछुआ) को लें। इस फिल्म में उन्होंने अवसाद और आत्म-खोज जैसी मानसिक परेशानी की जटिल कई परतें खोली हैं। फिल्म को पुरस्कार मिलने पर एनडीटीवी ने मोहन अगाशे, सुनील एवं सुमित्रा का एक इंटरव्यू किया उस साक्षात्कार में इन लोगों ने बताया, दर्शक इनकी बनाई जैसी फिल्में देखना पसंद करता है। इनके पास दर्शक हैं, इसके बावजूद फाइनेंसर खोजना पड़ता है, हालांकि इस फिल्म केलिए मोहन अगाशे के डॉक्टर मित्र ने सहायता की।
इन लोगों का निश्चय है, चाहे जो हो ये लोग अपनी तरह का सिनेमा बनाते रहेंगे। स्वर्ण कमल प्राप्त 2016 की फिल्म ‘कासव’ न केवल अवसाद एवं आत्महत्या की समस्या दिखाती, इन समस्या से उबरने हेतु उसके लिए आवश्यक सहानुभति, धैर्य की भी बात करती है। वैसे निर्देशक का उद्देश्य समस्या उठाना पर्याप्त होता है, हल सुझाना आवश्यक नहीं है, पर भावे स्क्रिप्ट को समस्या सुलझाने तक आगे ले जाती हैं।
इस समाजोन्मुख फिल्म में आलोक राजवाडे (मानव), इरावती हर्शे (जानकी) मुख्य रूप से हैं, मोहन अगाशे तो हैं, ही, दत्ता भाउ की भूमिका में, जो कावस बचाने के अभियान में लगे हुए हैं। किशोर मानव अवसाद में है, जानकी अवसाद से गुजरने के कारण इसकी मानसिकता को काफ़ी हद तक समझती है, वह खुद भी अभी कभीकदा परेशान रहती है। मगर मानव को इससे बाहर लाने का प्रयास करती है। अवसादग्रस्त व्यक्ति जब-तब ट्रटल की तरह अपने खोल में समा जाता है।
पौने दो घंटे की यह फिल्म कछुआ बचाओ अभियान को भी सांकेतिक रूप में प्रयोग करती है। जीवन में कोई लक्ष्य हो, लगेकि किसी को आपकी जरूरत है, तो जीवन आसान हो जाता है, जीने का मकसद मिल जाता है। अवसाद से निकलने में सहायता मिल सकती है।
इसे ही याताना शिविर से बच रहे मनोवैज्ञानिक प्राइमो लिवाई ‘लोगो थियरी’ कहते हैं। फिल्म ‘कासव’ में समुद्र तट पर लहरों के टकराने का अपना संकेत है, उनसे उत्पन्न संगीत दर्शकों पर अपना प्रभाव डालता है।
सिजिफ्रेनिया को लेकर चर्चित फिल्म ‘देवारी’
सुमित्रा भावे की फिल्में उनकी बुद्धिमता का पता देती हैं। मानसिक अवस्था से संबंधित उन्होंने ‘देवारी’ (2004, जूरी पुरस्कृत) बनाई है। वे अंतरमन का सिनेमा बनाती हैं। यहां सिजिफ्रेनिया से ग्रसित शेषायी (अतुल कुलकर्णी) और उसकी मानसिक अवस्था परदे पर है।
स्वालिफ़ाइड डॉक्टर अभिनेता मोहन अगाशे मनोवैज्ञानिक डॉक्टर की भमिका में हैं। फिल्म दर्शक पर गहरा प्रभाव डालती है। सिजिफ्रेनिया अवेयार्नेस सोसायटी द्वारा प्रड्यस फिल्म मानसिक अवस्था से आगे जाकर मानवीय संवेदना, मानवीय प्रेम, बचपन में उपजे प्रेम के महत्व को दिखाती है। इसमें सीना (सोनाली कुलकर्णी), उसका पति बने (तुषार दलवी) एवं कल्याणी (देविका दफ़्तरदार) भी हैं।
मराठी सिने-कलाकार का अभिनय देखने योग्य होता है। सुमित्रा भावे एवं सुनील सुकथांकर मराठी में फिल्म बनाते हैं अत: इनके यहां मराठी कुशल कलाकार देखने को मिलते हैं।
सुमित्रा भावे की ‘अस्तु’ भी मानसिक अवस्था के कथानक पर है। लघु एवं टीवी केलिए लिखने के अलावा उन्होंने ‘वास्तुपुरुष’, ‘शुद्धि दे बुद्धि दे’, ‘संहिता’, ‘हा भारत माता’ ‘टू वीमेन’, ‘जिंदगी जिंदाबाद’ आदि फिल्मों का लेखन किया। साथ ही कई फिल्मों का निर्देशन भी।
यदि वे 19 अप्रैल 2021 को गुजर नहीं जातीं तो शायद दर्शकों को यथार्थ और दर्शन के सहमेल से बनी कुछ और नायाब फिल्में देखने का अवसर प्राप्त होता।
सुमित्रा भावे को श्रद्धांजलि!
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