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दिवाली 2025 विशेष: आइए, इस दीपावली एक दीप विश्वशांति के नाम जलाएं
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सार
आज स्थिति यह है कि अधिकांश महाद्वीप सैन्य संघर्षों और अतिवादी विचारों की कलह में उलझे हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध कुछ इसी तरह का है। निश्चित रूप से यह युद्ध क्यों लड़ा जा रहा है, कब तक चलेगा और कहां जाकर खत्म होगा, इसका उत्तर इस जंग के साढ़े तीन साल बाद भी किसी के पास नहीं है।

दिवाली 2025
- फोटो : Amar Ujala
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विस्तार
यूं दीपोत्सव उजाले का त्यौहार है, धन समृद्धि और आनंद का पर्व है। यह वैभव की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने और सदा प्रसन्न रहने की आराधना का पर्व भी है। लेकिन लक्ष्मी वहीं वास और निवास करती है, जहां शांति हो, सौहार्द हो, परस्पर प्रेम और सहकार हो। आज समूची दुनिया को जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है शांति की। सुकून की, संवेदना और करूणा के प्रकाश की।

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विडंबना यह है कि एक और जहां एआई मनुष्य की मेधा को चुनौती दे रहा है तो दूसरी तरफ समूची मानवता युद्धों में उलझकर अपने ही वजूद को खत्म करने पर आमादा है। 21 वीं सदी यह वो समय है, जब बीती सदी में दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया के सबसे ज्यादा देश आपसी युद्धों और आंतरिक संघर्षों में उलझे हैं।
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महायुद्ध ने महाविनाश के बाद तो फिर भी शांति मार्ग अख्तियार कर मानव सभ्यता के विकास की नई इबारत लिखी, लेकिन आज जिस तरह राक्षसी जिद और शैतानी जुनून के साथ दसियों युद्ध लड़े जा रहे हैं, युद्ध विराम के भी स्वार्थ जनित दावे किए जा रहे हैं, वह मनुष्य के ऐहिक स्वार्थों की पराकाष्ठा है। इसका अंत किस रूप में होगा, कहना मु्श्किल है।
आज स्थिति यह है कि अधिकांश महाद्वीप सैन्य संघर्षों और अतिवादी विचारों की कलह में उलझे हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध कुछ इसी तरह का है। निश्चित रूप से यह युद्ध क्यों लड़ा जा रहा है, कब तक चलेगा और कहां जाकर खत्म होगा, इसका उत्तर इस जंग के साढ़े तीन साल बाद भी किसी के पास नहीं है।
हर युद्ध अपने साथ केवल विनाश को साथ लेकर चलता है। कुछ ऐसी ही स्थिति फिलीस्तीन के गाजा की है। लोग मर रहे हैं, लोग मार रहे हैं, लोग मरने के लिए तैयार हैं, लोग मारने के लिए बेताब हैं। और यह सब अपनी सत्ता को मनवाने के लिए, अकूत लक्ष्मी की चाहत में हो रहा है।
20 वीं सदी में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति के बाद माना जा रहा था कि मनुष्य ने इतनी भीषण जन और धन हानि के बाद इतना सबक तो ले ही लिया है कि युद्ध की ऐसी महाअग्नि में जलने से कुछ हासिल नहीं होता। बेशक दूसरे विश्वयुद्ध ने बहुत से देशों को पराधीनता और औपनिवेशकता से मुक्त कर स्वाधीनता की सांस लेने का अवसर दिया।
माना गया कि दुनिया अब वही गलती शायद फिर न करे। लेकिन जर, जमीन और तख्त की शाश्वत लड़ाई ने नए मोड़ ले लिए। संसाधनों के लालच, सत्ता के लोभ और वैचारिक कट्टरता ने इस आग में घी का काम किया है।
‘जिनेवा एकेडमी ऑफ इंटरनेशनल ह्यूमेनिटेरियन लॉ’ की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक आज दुनिया के विभिन्न देशों में 110 सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं। इनमें से 56 तो ऐसे हैं, जिन्हें बाकायदा ‘युद्ध’ कहा जा सकता है। इन संघर्षों से सर्वाधिक प्रभावित एशिया, यूरोप, अफ्रीका महाद्वीप हैं और दक्षिण अमेरिका में भी इसके तेज होने की सुगबुगाहट है।
ये युद्ध अपनी जमीन को बचाने, दूसरे की जमीन कब्जाने, सत्ता पर काबिज रहने अथवा सत्ता से हटाने, व्यवस्था के प्रति जनाक्रोश, विदेशी षड्यंत्र, युवाओं के विद्रोह, आर्थिक-सामाजिक विषमता, नस्लभेद, धार्मिक दुराग्रह और राजनीतिक अधिकारों की मांग जैसे कारणों का परिणाम है।
आलम यह है कि असंतोष वहां भी है, जहां भौतिक समृद्धि है, असंतोष वहां तो है ही, जो गरीब और साधनहीन हैं। ‘काउंसिल ऑन फारेन रिलेशन्स ग्लोबल कॉन्फ्लिक्ट’ ने 32 सशस्त्र संघर्षों की पहचान की है, जो इन दिनो यूक्रेन, सूडान, सीरिया, यमन, इथोपिया, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक तथा डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में चल रहे हैं।
दुनिया की नजर आम तौर पर एशिया और यूरोप के देशो में होने वाले सशस्त्र संघर्षों पर ज्यादा जाती है, क्योंकि विश्व व्यवस्था के संचालन नियंत्रण में इनकी भूमिका ज्यादा है। लेकिन अफ्रीका महाद्वीप के उन 55 देशों के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती, क्योंकि वैश्विक व्यवस्था के नियंत्रण में उनकी खास भूमिका नहीं है और जो आज भी उपनिवेशकाल के अभिशापों से बाहर नहीं निकल पाए हैं और आधुनिक लोकतंत्र, तानाशाही और राजनीतिक अस्थिरता के बीच झूल रहे हैं।
जबकि हकीकत यह है कि अफ्रीका महाद्वीप के 15 देश आज भीषण सशस्त्र संघर्षों, आंतरिक विद्रोहों, भयंकर मारकाट और जनसंहारों से जूझ रहे हैं। कई देशों में आतंकवादी संगठन सत्ता छीनने में लगे हैं या फिर सत्ता पर काबिज हो चुके हैं।
कई बार तो यह समझना भी कठिन हो जाता है कि कौन, किससे और क्यों लड़ रहा है। जबकि विकसित और अपेक्षाकृत सम्पन्न देश इन देशों के लोगों को आपस में लड़ाने और इसके लिए जरूरी तमाम संसाधन मुहैया कराने का काम करते हैं। कारण और तरीके जो भी हों, लेकिन इन लड़ाइयों में अंतत: मनुष्य ही मर रहे हैं। मनुष्यता कराह रही है।
‘ग्लोबल पीस इंडेक्स’ की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि आज दुनिया संघर्षों के चौराहे पर खड़ी है। इसी हिंसक प्रवृत्ति के चलते विभिन्न देशों में सैनिकीकरण की प्रक्रिया तुलनात्मक रूप से बहुत तेज हुई है। विश्व के 108 देश दो दशक पहले की तुलना में आज सैनिक दृष्टि से ज्यादा हथियारबंद हो रहे हैं।
स्थिति यह है कि आपसी संघर्षों के कारण दुनिया में 11 करोड़ लोग 16 दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हैं। पिछले साल हुए सशस्त्र संघर्षों में पूरी दुनिया में 1 लाख 62 हजार लोगों की मौते हुईं। भारी आर्थिक हानि हुई और हो रही है, सो अलग।
गौरतलब, है कि मानव इतिहास में द्वितीय विश्वयुद्ध ऐसा सशस्त्र महासंग्राम था, जिसमें 95 देशों को प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी करनी पड़ी थी। करीब पांच साल तक चले इस महायुद्ध में 7 करोड़ 40 लाख लोग मारे गए थे। उसके बाद यह 2025 है, जब 26 देश अलग-अलग कारणों से सशस्त्र संघर्षों में फंसे हैं। यह वो समय है, जब वैश्विक शांति की बात करने वाली ताकतें सबसे कमजोर स्थिति में हैं।
क्योंकि कोई भी नेता समूची अपने अथवा अपने देश के स्वार्थों से आगे देख नहीं पा रहा, कोई भी देश निस्वार्थ भाव से मानव मात्र के कल्याण, सुख और सुकून के बारे में सोच नहीं पा रहा। शांति के जो प्रयास हो भी रहे हैं, तो वो भी व्यक्तिगत और राष्ट्रगत स्वार्थों से प्रेरित हैं।
इन हालात में इस दीपावली सुख शांति की देवी लक्ष्मी का आह्वान केवल एक धार्मिक कर्मकांड भर नहीं रहे। दरअसल लक्ष्मी का कृपावंत होना मात्र अपने, अपने परिवार, समुदाय या देश के कल्याण का भर सूचक नहीं है।
इस दीपोत्सव को वैश्विक शांति की उस गुहार के रूप में भी मनाया जाना चाहिए, जो दुनिया को मनुष्य मात्र के रहने, जीने और फलने-फूलने के लायक बना सके। क्योंकि लक्ष्मी वहीं वास करती है, जहां सुख-चैन और शांति रहती है। और शांति वहीं रहती है, जहां सुख चैन रहता है। कलह और झगड़े से भरा घर लक्ष्मी का निवास स्थान नहीं बन पाता।
चाणक्य नीति कहती है कि जिन घरों ( या देशों) में कलह और अशांति होती है, वहाँ लक्ष्मी का वास नहीं हो पाता। नैतिक आचरण और शांति से ही धन स्थिर रहता है। तो आइए, एक दीप इस बार विश्व शांति के नाम जलाएं।
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