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Diwali 2025: दिवाली की चकाचौंध में अंधविश्वास का अंधकार
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सार
यह पर्व सिर्फ एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। परंतु विडंबना यह है कि इस पावन पर्व को हम कई बार अंधविश्वास की चादर में लपेट देते हैं, जो न केवल समाज के बौद्धिक विकास में बाधा बनता है, बल्कि हमें पीछे की ओर भी ले जाता है।

दिवाली 2025।
- फोटो : Adobe Stock
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विस्तार
भारत एक ऐसा देश है जहां पर्व-त्योहार जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। इन उत्सवों में दिवाली का स्थान विशेष है। रोशनी का यह पर्व अंधकार पर प्रकाश, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है।

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भारत में जब दीपावली का त्योहार आता है, तो हर गली-मोहल्ला रोशनी से जगमगा उठता है। घरों की सफाई होती है, बाजार सजते हैं, मिठाइयों की मिठास बढ़ जाती है और लोग एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं।
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यह पर्व सिर्फ एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। परंतु विडंबना यह है कि इस पावन पर्व को हम कई बार अंधविश्वास की चादर में लपेट देते हैं, जो न केवल समाज के बौद्धिक विकास में बाधा बनता है, बल्कि हमें पीछे की ओर भी ले जाता है।
दिवाली का सांस्कृतिक पक्ष
दिवाली केवल लक्ष्मी पूजन या पटाखों तक सीमित नहीं है। यह एक सांस्कृतिक पर्व है जो स्वच्छता, सजावट, पारिवारिक मेल-मिलाप और सामाजिक समरसता का संदेश देता है। घर की सफाई से लेकर दीयों की रोशनी तक, यह पर्व प्रतीकात्मक रूप से जीवन को पुनः जागृत करने का कार्य करता है।
पटाखों से होने वाले प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की चिन्ता उसके दिल्ली में ग्रीन पटाखों की ही अनुमति वाले फैसले से आंकी जा सकती है। पटाखों को उल्लास का प्रतीक मानना भी एक अन्धविश्वास ही है। भारत में कई ऐसे त्योहार हैं जो कि बिना पटाखों के बहुत ही उल्लास से मानाए जाते हैं।
अन्धविश्वास का अन्धकार
उल्लास के इस उत्सव के साथ कुछ ऐसे अंधविश्वासी विचार भी जुड़ गए हैं जो आधुनिक सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मेल नहीं खाते। जैसे कई लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि अगर पूजा ठीक समय पर नहीं हुई, तो लक्ष्मी घर नहीं आएंगी।
यह भावना श्रद्धा से अधिक भय पर आधारित है। कुछ क्षेत्रों में दिवाली की रात तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए उल्लू की बलि देने की कुप्रथा आज भी गुपचुप रूप से प्रचलित है।
उल्लू को देवी लक्ष्मी का वाहन माना जाता है, और यह विश्वास किया जाता है कि उसकी बलि देने से ‘अखंड लक्ष्मी’ प्राप्त होती है। यह विचार न केवल क्रूर और अमानवीय है, बल्कि वन्य जीव संरक्षण कानून के भी खिलाफ है।
भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत उल्लू का शिकार अवैध है, फिर भी यह रीतियां छुपे तौर पर चलती हैं। यह दिखाता है कि अंधविश्वास, जब लालच से जुड़ जाए, तो वह कितनी दूर तक जा सकता है।
कई घरों में यह परंपरा बन गई है कि दिवाली की रात जुआ खेलना ‘शुभ’ होता है। तर्क यह दिया जाता है कि महाभारत काल में भी पांडवों ने जुआ खेला था, और इस दिन खेले गए जुए से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। लेकिन महा भारत के जुए में युद्धिठिर अपनी लक्ष्मी को हार गये थे, जिस कारण महाविनाशकारी महाभारत युद्ध हुआ।
यह सोच सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। जुए की यह शुरुआत कई बार आर्थिक बर्बादी, पारिवारिक कलह और व्यसन की जड़ बन जाती है। जब कोई त्योहार किसी व्यक्ति को बर्बादी की ओर ले जाए, तो क्या वह परंपरा सचमुच पवित्र कही जा सकती है?
दिवाली की रात को कुछ लोग ‘तांत्रिक शक्तियों’ के लिए सबसे शक्तिशाली मानते हैं। इस सोच के कारण कई स्थानों पर कथित तांत्रिक अनुष्ठान, यज्ञ, और झाड़-फूंक जैसे कार्य किए जाते हैं। विशेषकर श्मशान घाटों या सुनसान जगहों को पूजा के लिये चुना जाता है।
इसका परिणाम यह होता है कि भयभीत आम जन किसी ‘गुप्त शक्तियों’ के डर से कुछ तांत्रिकों के हाथों ठग लिए जाते हैं। मानसिक रूप से अस्थिर या असहाय लोगों का शोषण इसी अंधविश्वास के कारण होता है।
कुछ लोग मानते हैं कि दिवाली की रात पटाखे जलाने से नकारात्मक ऊर्जा या बुरी आत्माएँ दूर होती हैं। यह एक बेहद प्रचलित किंवदंती है, जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उलटे, इससे वायु और ध्वनि प्रदूषण, पशु-पक्षियों को होने वाली तकलीफ और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बढ़ जाती हैं।
क्षेत्रीय अंधविश्वासों की विविधता
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में दिवाली से जुड़े क्षेत्रीय अंधविश्वास भी कम नहीं हैं। बंगाल में कुछ जगहों पर दिवाली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है, जहां तांत्रिक अनुष्ठान अधिक प्रचलित हैं।
राजस्थान और गुजरात में “लक्ष्मी आने के लिए दरवाजा खुला रखा जाता है”। यह विश्वास इतना गहरा है कि लोग सुरक्षा की अनदेखी कर पूरी रात दरवाजे खुले रखते हैं।
कुछ गांवों में लक्ष्मी के रूठने के डर से दिवाली की रात नाखून नहीं काटे जाते, और ना ही झाड़ू लगाया जाता है। इनमें से कई बातें सिर्फ परंपरा या प्रतीकात्मकता के नाम पर अंधविश्वास बन चुकी हैं, जिनका तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है।
अंधविश्वास बनाम आस्था
यह आवश्यक है कि हम आस्था और अंधविश्वास के बीच स्पष्ट रेखा खींचें। आस्था व्यक्ति को आत्मबल देती है, जबकि अंधविश्वास डर और भ्रम को जन्म देता है। जब हम बिना किसी तार्किक आधार के किसी परंपरा का पालन करते हैं, तो वह अंधविश्वास की श्रेणी में आता है।
आज जब भारत अंतरिक्ष में झंडे गाड़ रहा है और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) की ओर बढ़ रहा है, तब हमें यह भी सोचना होगा कि क्या हम समाज के मानसिक स्तर को भी ऊँचा उठा पा रहे हैं? त्योहारों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है, ताकि परंपरा और प्रगति दोनों का संतुलन बना रहे।
दिवाली पर आत्मनिरीक्षण भी जरूरी
दिवाली का मूल संदेश है, तमसो मा ज्योतिर्गमय (अंधकार से प्रकाश की ओर)। लेकिन जब हम इसे अंधविश्वासों की कालिमा से ढक देते हैं, तो यह संदेश खो जाता है।विचारणीय प्रश्न है कि क्या देवी लक्ष्मी इतनी असहाय हैं कि उनकी कृपा पाने के लिए जीवों की बलि देनी पड़े?
क्या धन की देवी को प्रसन्न करने के लिए हमें विवेक छोड़ देना चाहिए? क्या उत्सव की खुशी दूसरों के जीवन, पर्यावरण और नैतिक मूल्यों की कीमत पर मनाई जानी चाहिए?
परम्परा के नाम पर बुराइयों के प्रति अन्धविश्वासी लोगों को जगाना जरूरी है। जन-जागरूकता अभियान के लिये स्कूलों, कॉलेजों, और पंचायतों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दिवाली की जानकारी दी जानी चाहिये। इसके साथ ही उल्लू की तस्करी, बलि और अवैध तांत्रिक गतिविधियों पर सख्ती से कार्यवाही होनी चाहिए।
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