बिहार विधानसभा चुनाव: राजद या महागठबंधन, किस करवट बैठेगा ऊंट?
- फिलहाल राजद और महागठबंधन दोनों अनिर्णय की दुर्दशा से ग्रस्त दिखायी दे रहे हैं। कहा यह जा रहा है महागठबंधन का ज्यादा पेंच कांग्रेस की वजह से फंसा है। कांग्रेस ज्यादा सीटों पर चुनाव मैदान में उतरने की इच्छुक है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से बेहतर भला कौन जानता है कि जितनी सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी, उतनी ही महागठबंधन की जीत की संभावनाएं कमजोर होती जाएंगी।

विस्तार
बिहार विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। दो चरणों में कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव होना है। बिहार में दोनों बड़े गठबंधनों की पिछले 35 वर्षों से सरकार है। बिहार में बीस साल तक, अभी तक सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का रिकॉर्ड नीतीश कुमार के नाम दर्ज है लेकिन इस बार बिहार विधानसभा के चुनावों में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव यह दिखायी दे रहा है।

इस बदलाव के असली नायक प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी जनसुराज पार्टी है। बिहार के जिन बुनियादी सवालों को मुद्दा बनाकर पिछले तीन वर्षों से वे जमीनी राजनीति कर रहे है,उससे खतरा दोनों गठबंधनों को पैदा हो गया है। उससे भी महत्वपूर्ण बदलाव है कि जिन मुद्दों को महागठबंधन के मुख्य विपक्षी दल होने के नाते राजद को उठाना चाहिए, उन मुद्दों को चुनावों के एन वक्त उठाने और धारदार बनाने में फिलहाल प्रशांत किशोर कामयाब होते दिख रहे हैं।
इस हद तक कि राजद के प्रमुख घटक दल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल, मंगल पाण्डेय जैसे बड़े नेता चुनाव के समय प्रशांत किशोर के उठाएं मुद्दों से मुंह चुराते नजर आ रहे हैं। भाजपा बिहार प्रदेश के बड़े नेताओं को भ्रष्टाचार की कटघरे में खड़ा कर केन्द्रीय नेतृत्व को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि कैलाशपति मिश्र और सुशील मोदी के दिवंगत हो चुके इन दलबदलू नेताओं पर भरोसा करना भविष्य की राजनीति के लिए नुकसान दायक हो सकता है।
यह जरूरी नहीं कि अपने पहले ही चुनाव में प्रशांत किशोर इस विधानसभा चुनावों को फतह कर दें पर जैसा राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि चुनाव सिर्फ जीतने के लिहाज से ही नहीं लड़ा जाता, अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रचारित करने, जनता के बीच उन्हें के लिए भी चुनाव लड़ना चाहिए। प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी के लिए यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगी, अगर दो मजबूत गठबंधनों के बीच अपनी एक मजबूत स्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो गये।
अपने सतत राजनीतिक अभियान से प्रशांत किशोर ने आम लोगों में इतनी जागरूकता तो जरूर पैदा किया है कि पिछले 35 वर्षों से चली आ रही लालू- राबड़ी और नीतीश कुमार की सरकारों के दौर के जिन जरुरी मुद्दों का समाधान नहीं हो पाया है उनके प्रति एक समझ और समाधान करने का भरोसा लोगों में पैदा किया है।
यह बात नीतीश कुमार के बारे में एक समय उनके सबसे करीबी रहे प्रशांत किशोर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आज भी इतने वर्षों तक सत्ता में रहे नीतीश कुमार व्यक्तिगत छवि कोई अंगुली नहीं उठा सकता। पर क्या ऐसा ही दावा उनके मंत्रियों और आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरों के बारे में किया जा सकता है?
बिहार की राजनीति को करीब से समझने वाले से पूछा, तो इसका जवाब 'ना' में मिला। यही वह बड़ा मुद्दा है जो नीतीश कुमार कि सन् 2015 के पहले बनी सरकार सुशासन बाबू की छवि को तार-तार कर दे रही है।
वे तीन मुद्दे जिन पर कभी नीतीश कुमार लोगों के दिलों पर राज करते थे, यानी तीन 'सी' अपराध, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक राजनीति से परहेज। नीतीश कुमार के मौजूदा कार्यकाल में इन तीनों मुद्दों के साख पर अब बट्टा लगता दिख रहा है।कम से कम नीतीश कुमार इस बार के शासन काल में "जस की तस धर दिन्ही चदरिया" की गान करने की स्थिति में तो नहीं है।
सवाल यह भी है कि आम आदमी के रोजमर्रा के सरोकारों जुड़े इन मुद्दों को महागठबंधन मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने में कामयाब हुआ? शायद नहीं?
वजह यह सरकार के सत्ता विरोधी रुझान को राजनीतिक चुनावी मुद्दे में तब्दील कर अभियान चलाने के बजाय महागठबंधन के घटक दल भी 'वोटर अधिकार यात्रा' पर निकल पड़े। बिहार की राजनीतिक जमीन पर उतरता मुद्दा अब दिखायी नहीं है। इस दौरान चाहे जितने प्रकार के 'बम फोड़े ' जाने का दावा किया जा रहा था,वह चुनाव आते- आते फुस्स हो गया। कोई खास असर छोड़ता नहीं दिखायी दे रहा है।
'वोटर अधिकार यात्रा' का क्या हुआ असर?
इससे महागठबंधन का नुकसान यह हुआ कि राहुल गांधी की अगुआई में 3 जुलाई से 9 अगस्त, 15 दिनों तक चले 'वोटर अधिकार यात्रा ' में चुनावों के ऐन वक्त सरकार के विरुद्ध माहौल बनाने का कीमती समय हाथ से निकल गया। यही वह जब समय था जब नीतीश सरकार को घेरा जा सकता था।
बिहार की राजनीति की औसत समझ रखने वाला आदमी भी यह जानता है कि किसी भी चुनाव के ठीक दो -तीन महीने का समय खासकर विपक्षी दलों के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है। इसके अलावा नामांकन दाखिल अन्तिम दिन तक तय नहीं हो पाया कि किसे कहां से चुनाव लड़ने मैदान में उतारा जाएगा। राजद गठबंधन में खींच -तान कम नहीं है। जब कि नामांकन के दो -तीन ही दिन शेष बचे हैं।
फिलहाल राजद और महागठबंधन दोनों अनिर्णय की दुर्दशा से ग्रस्त दिखायी दे रहे हैं। कहा यह जा रहा है महागठबंधन का ज्यादा पेंच कांग्रेस की वजह से फंसा है। कांग्रेस ज्यादा सीटों पर चुनाव मैदान में उतरने की इच्छुक है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से बेहतर भला कौन जानता है कि जितनी सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी, उतनी ही महागठबंधन की जीत की संभावनाएं कमजोर होती जाएंगी।
यह पिछले विधानसभा चुनावों में भी साबित हो चुका था और इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस की सांगठनिक और राजनीतिक जमीन पर उतना मजबूत नहीं दिखायी दे रहा, जितना कांग्रेस दावा कर रही है। इस राजनीतिक हकीकत को तेजस्वी यादव से बेहतर लालू यादव समझते हैं।

'पैरासूट' वाले उम्मीदवारों पर चर्चा
किसी चुनाव एक और आधार जिसे भाजपा में आजकल खूब आजमा रही है और पहले कांग्रेस भी आज़माती रही है। वह है चुनाव के अन्तिम समय तय होने वाले 'डील' के जरिये तय होने वाले उम्मीदवार। ऐसे उम्मीदवार 'पैरासूट' उतरने वाले उम्मीदवार होते हैं। पार्टी कोई और होती है चुनावी 'सिंबल' किसी और का होता है। इस 'डील' की कूट भाषा को वे लोग अच्छी तरह से समझते हैं, जिनके पास धन-संसाधनों की कमी नहीं होती है। ऐसे उम्मीदवारों दलीय वफादारी हमेशा संदिग्ध रहती हैं।
बिहार विधानसभा के चुनावों में इन मुद्दों के अलावा कुछ और महत्वपूर्ण मुद्दे होंगे, जो निर्णायक साबित होंगे।
पहला यह कि महिलाओं का रुझान इस बार किस ओर होगा? क्या गैर यादव पिछड़ी जातियों में यह सन्देश पहुंच चुका है कि नीतीश कुमार की शारीरिक और मानसिक स्थिति अब वैसी नहीं है कि वे सत्ता संचालन के सारे तंत्र की उचित निगरानी कर सके और अपने सुशासन बाबू की छवि को बराकरार रख सके? क्या नीतीश बाबू के समर्थकों को यह अंदेशा हो चुका हैं कि चुनाव के वक्त भले ही भाजपा उनको आगे कर चुनाव लड़ने की घोषणा करे, पर अंततः यह स्थिति लम्बे समय तक कायम रहने वाली नहीं?
भाजपा की आज मजबूरी है कि गैर यादव पिछड़ी जातियों को लामबंद करने के लिए पूरे चुनाव के दौरान नीतीश कुमार के नाम को खूब जोरशोर और गाजे बाजे के साथ उछालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। पर चुनाव के बाद भी यह सिलसिला चलता रहेगा, इसको लेकर बिहार की राजनीति को ठीक से समझने वाले हर किसी को शक हैं।
महागठबंधन के बारे में एक महत्वपूर्ण सवाल कि क्या तेजस्वी यादव अपने स्वजातीय बंधुओं के अति सत्ता और उन्माद नियंत्रण के पाएंगे जो पिछले विधानसभा चुनावों में उनके हार का कारण बना था? आमतौर पर कई बार अन्तिम समय में इस स्वजातीय उन्माद को ही अन्य पिछड़ी जातियां जंगलराज का पर्याय मानने को विवश हो जाती हैं। कुछ और मुद्दे जो इस चुनाव में निर्णायक हो सकते हैं, प्रशांत किशोर की पार्टी के वोट काटने की क्षमता से तय होंगे। किस गठबन्धन को प्रशांत किशोर कितना नुकसान करेंगे ?
इससे प्रशांत किशोर की बिहार में भविष्य की राजनीति तो तय होनी है। फिलहाल तो दोनों गठबंधन उनकी कार्यशैली मुद्दा आधारित बेबाक और निर्भीक राजनीति पूरी तरह से भयभीत नहीं तो कुछ सहमे- सहमे दिख ही रहे हैं।
प्रशांत किशोर भाजपा की बी टीम होने के आरोप को ध्वस्त कर ही चुके हैं। भाजपा ने केंद्रीय नेतृत्व को यह सोचने के मजबूर कर दिया कि स्व कैलाशपति मिश्र और स्व सुशील मोदी के दिवंगत होने के बाद अगर बिहार की मौजूदा नेतृत्व के भरोसे पर ही टिकी रही, तो संभावना क्या दिखाई दे रही है? फिलहाल यही कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर बिहार में ऐसे ही मुद्दे आधारित राजनीतिक अभियान चलाते रहे, तो इसकी प्रबल संभावना है कि इसकी शुरुआत इस विधानसभा चुनावों से होने जा रही है।
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