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Vladimir Putin India Visit: ख्रुश्चेव–बुल्गानिन की भारत यात्रा जिसने नई विश्व-राजनीति की दिशा तय की

Jay singh Rawat जयसिंह रावत
Updated Fri, 05 Dec 2025 11:54 AM IST
सार

18 नवंबर को जैसे ही सोवियत प्रतिनिधिमंडल पालम हवाई अड्डे पर उतरा, पूरा दिल्ली शहर उमड़ पड़ा। एयरपोर्ट से लेकर राजपथ और नई दिल्ली की सड़कों तक लाखों लोग दोनों नेताओं के स्वागत में उपस्थित थे।

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Khrushchev Bulganin visit to India which set the tone for a new world politics
सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन - फोटो : X/@Pashz7
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विस्तार
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इतिहास में 1955 का वर्ष शीत युद्ध के उथल-पुथल से भरा था। अमेरिका और सोवियत संघ विश्व राजनीति को दो खेमों में बांट चुके थे, जबकि भारत नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना रास्ता खुद चुनने की कोशिश कर रहा था। जवाहरलाल नेहरू किसी भी सैन्य गुट में शामिल होने के विरुद्ध थे और गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद रख चुके थे।

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ऐसे दौर में सोवियत संघ ने भारत से सीधा संवाद स्थापित करने का निर्णय लिया और इसके लिए अपने दो सबसे प्रभावशाली नेताओं—सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन और कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव निकिता ख्रुश्चेव—को भारत भेजा।
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यह केवल एक राजकीय यात्रा नहीं थी, बल्कि किसी गैर-कम्युनिस्ट देश की ओर सोवियत संघ का अब तक का सबसे लंबा और सबसे महत्वपूर्ण दौरा था। 18 नवंबर से 14 दिसंबर 1955 तक फैली यह यात्रा भारत-सोवियत मैत्री की नींव बन गई।

जनउत्सव जैसा स्वागत

18 नवंबर को जैसे ही सोवियत प्रतिनिधिमंडल पालम हवाई अड्डे पर उतरा, पूरा दिल्ली शहर उमड़ पड़ा। एयरपोर्ट से लेकर राजपथ और नई दिल्ली की सड़कों तक लाखों लोग दोनों नेताओं के स्वागत में उपस्थित थे। लोग छतों, पेड़ों और खंभों पर चढ़कर रूसी मेहमानों की झलक पाने को उत्सुक थे।

दिल्ली से लेकर बॉम्बे, कलकत्ता, बंगलौर, चेन्नई, हैदराबाद, लखनऊ, अमृतसर और श्रीनगर तक जहाँ भी ख्रुश्चेव और बुल्गानिन पहुंचे, भीड़ ने उनका स्वागत उत्सव की तरह किया।

नेहरू ने अपने संस्मरणों में लिखा- “यह केवल एक राजकीय यात्रा नहीं रही; यह मित्रता का जन-उत्सव बन गई थी।” खासकर कलकत्ता में भीड़ का उत्साह इतना अधिक था कि काफिला घंटों तक रेंगता रहा। ख्रुश्चेव कई जगहों पर कार की छत पर खड़े होकर हाथ हिलाते हुए लोगों का अभिनंदन करते दिखे।

दिल्ली में भिलाई इस्पात संयंत्र की घोषणा

दिल्ली प्रवास यात्रा का केंद्रीय बिंदु था। यहाँ राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री नेहरू ने भव्य स्वागत समारोह आयोजित किया। रामलीला मैदान में पांच लाख से अधिक लोगों की सभा में ख्रुश्चेव ने भारत को भारी उद्योगों के निर्माण में हर संभव सहयोग देने की घोषणा की। सबसे ऐतिहासिक घोषणा थी भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना।

सोवियत विशेषज्ञों, तकनीक और मशीनरी से बनने वाला यह संयंत्र भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक क्रांति का आधार स्तंभ साबित हुआ।

इसके साथ ही विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों—दवा निर्माण, मशीन निर्माण और पेट्रोलियम खोज—में सहयोग का वादा किया गया, जिसने आने वाले दशकों में भारत को औद्योगिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।

कश्मीर में भारत का खुला समर्थन

22 से 24 नवंबर की श्रीनगर यात्रा ने भारत-सोवियत संबंधों को नई दिशा दी। ख्रुश्चेव ने खुले मंच से कहा—“कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।” उस समय यह बयान अंतरराष्ट्रीय राजनीति में गूंज उठा।

पाकिस्तान और पश्चिमी शक्तियों के लिए यह स्पष्ट संदेश था कि भारत को सोवियत संघ का राजनीतिक और कूटनीतिक समर्थन मिल चुका है। कश्मीर की जनता ने भी रूस के प्रति गर्मजोशी दिखाई और यह राजनीतिक भरोसा आने वाले वर्षों में और मजबूत होता गया।

भारत के औद्योगिक नक्शे को बदलने वाली घोषणाएं

यात्रा के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने बॉम्बे, कलकत्ता, बंगलौर, मद्रास, अमृतसर, लखनऊ, कानपुर और हैदराबाद जैसे औद्योगिक-सांस्कृतिक केंद्रों का दौरा किया। जहां भी वे पहुँचे, बड़ी परियोजनाओं की नींव रखी गई।

रांची में भारी इंजीनियरिंग कारपोरेशन (HEC) की स्थापना, दुर्गापुर इस्पात संयंत्र में तकनीकी सहयोग, हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स के लिए दवा निर्माण तकनीक, और तेल शोधन क्षेत्रों में मदद ये वे कदम थे जिन्होंने भारत की दूसरी पंचवर्षीय योजना को मजबूती दी।

1956 से 1961 के बीच भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का जो विशाल ढाँचा खड़ा हुआ, उसकी जड़ें 1955 की इसी सोवियत यात्रा में थीं।

ख्रुश्चेव का व्यक्तित्व और जनता पर प्रभाव

ख्रुश्चेव अपनी अनगढ़ लेकिन प्रभावी शैली के लिए जाने जाते थे। भारी उद्योगों का यह नेता अक्सर मज़ाकिया टिप्पणियों से माहौल हल्का कर देता था। दिल्ली में उन्होंने कहा—“हम यहां दोस्ती के लिए आए हैं, कोई शर्त थोपने नहीं।” बंगलौर में एक किसान से बात करते हुए उन्होंने मुस्कुराकर पूछा—“तुम्हारे यहाँ कितनी गायें हैं?

हमारे यहां ट्रैक्टर ज्यादा हैं, गाय कम।” अमृतसर में स्वर्ण मंदिर जाकर श्रद्धा प्रकट करना भारतीय जनता के दिल में उतर गया। भारतीयों ने उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा जो शक्ति-राजनीति के बीच मानवीय जुड़ाव को महत्व देता था।

दीर्घकालिक सामरिक और कूटनीतिक प्रभाव:-

  • 1955 की इस यात्रा ने भारत-सोवियत संबंधों की वह धुरी खड़ी की, जिसने आने वाले दशकों में वैश्विक राजनीति में भारत को मजबूत स्थान दिलाया।
  • 1960 और 1970 के दशक में सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता बना। MiG विमानों से लेकर पनडुब्बियों तक, भारत की सैन्य शक्ति का बड़ा हिस्सा सोवियत तकनीक पर आधारित हुआ।
  • 1971 के भारत-पाक युद्ध में सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने वीटो का उपयोग कर भारत के पक्ष को निर्णायक समर्थन दिया। इसे भारत-रूस मित्रता के स्वर्ण क्षणों में से एक माना जाता है।
  • “हिंदी-रूसी भाई-भाई” का नारा इन्हीं वर्षों की दोस्ती का प्रतीक बनकर उभरा और आज भी भारत-रूस संबंधों में भावनात्मक जुड़ाव के रूप में मौजूद है।


नेहरू और ख्रुश्चेव का व्यक्तिगत संबंध

राजनीति के साथ-साथ इस यात्रा ने दोनों देशों के नेताओं के व्यक्तिगत संबंधों को भी मजबूत किया। यात्रा के अंतिम दिन नेहरू ने ख्रुश्चेव को गले लगाते हुए कहा—“आपने भारतीयों के दिल जीत लिए हैं।” ख्रुश्चेव ने भी भावुक होकर कहा- “हम भारत को अपना छोटा भाई मानते हैं।”

राजनयिक इतिहास में नेताओं के बीच ऐसे मानवीय संबंध कम ही देखने को मिलते हैं, और यही वजह है कि 1955 की यह यात्रा आज भी भारतीय विदेश नीति के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती है।

इतिहास की अमूल्य धरोहर यात्रा

1955 की सोवियत यात्रा केवल एक राजकीय दौरा नहीं थी, बल्कि यह दो सभ्यताओं के बीच भरोसे और मैत्री की वह शुरुआत थी जिसने विश्व की महाशक्तियों की राजनीति के बीच भारत को स्वतंत्र और आत्मविश्वासी मार्ग प्रदान किया।

जिस समय दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी, भारत ने अपनी कूटनीति से दोनों के बीच संतुलन कायम किया और सोवियत संघ के सहयोग से अपने औद्योगिक विकास की ठोस बुनियाद रखी।

आज जब भी भारत-रूस संबंधों का ज़िक्र होता है, आंखों के सामने वह दृश्य उभर आता है- लाखों भारतीय सड़कों पर “हिंदी-रूसी भाई-भाई” के नारे लगा रहे हैं, और ख्रुश्चेव-बुल्गानिन मुस्कुराते हुए हाथ हिला रहे हैं। यह यात्रा न केवल इतिहास की अमूल्य धरोहर है, बल्कि उन जन-कूटनीतिक क्षणों का प्रतीक भी है जब जनता ने कूटनीति को नेताओं के भाषणों से आगे बढ़कर अपने दिलों में जगह दी। 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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