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डॉ. शमा मोहम्मद: भारत में खिलाड़ियों का प्रदर्शन मायने रखता है, सरनेम नहीं
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सार
भारत के क्रिकेट इतिहास में मुश्ताक अली, अब्बास अली बेग, सैयद किर्बानी, मोहम्मद अजहरुद्दीन, वसीम जाफर, मोहम्मद कैफ, इरफान पठान, यूसुफ पठान, मोहम्मद शमी, मोहम्मद सिराज जैसे नाम बताते हैं कि मुस्लिम खिलाड़ियों ने हमेशा टीम इंडिया की प्रतिष्ठा को ऊंचा किया है।

सरफराज खान के चयन को लेकर सियासत
- फोटो : ANI
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विस्तार
जब खिलाड़ी मैदान पर उतरते हैं तो उनका धर्म नहीं, बल्कि प्रदर्शन की कसौटी मायने रखती है। विडंबना यह है कि कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. शमा मोहम्मद ने क्रिकेट टीम के चयन में सांप्रदायिकता और धर्म को ढूंढने की कोशिश की है।

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उन्होंने इंडिया-ए टीम के सिलेक्शन को लेकर सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या सरफराज खान को उनका सरनेम होने की वजह से टीम से बाहर रखा गया? डॉ. शमा मोहम्मद के बयान ने न केवल क्रिकेट, बल्कि राजनीति और समाज की परतों में नई हलचल पैदा कर दी।
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बेहतर तो यह होता कि कांग्रेस प्रवक्ता सवाल उठाने से पहले थोड़ा शोधकर स्वयं जवाब ढूंढतीं। बेहतर होता वो देश की सबसे पुरानी पार्टी को खेलों में राजनीति से दूर रखतीं।
दरअसल, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) एक स्वायत्त संस्था है, जो किसी राजनीतिक दल के अधीन नहीं है। वर्तमान चयन समिति में पूर्व क्रिकेटर अजीत अगरकर (मुख्य चयनकर्ता), एस.एस. दास, अजय रात्रा, सुब्रोतो बनर्जी और श्रीधरन शरथ शामिल हैं।
इन सभी को उनके खेल अनुभव, योगदान और तकनीकी समझ के आधार पर चुना गया है। चयन का आधार केवल रन, विकेट, फिटनेस और टीम बैलेंस है। धर्म, जाति या नाम जैसे तत्वों की भूमिका नहीं होती।
भारत के क्रिकेट इतिहास में मुश्ताक अली, अब्बास अली बेग, सैयद किर्बानी, मोहम्मद अजहरुद्दीन, वसीम जाफर, मोहम्मद कैफ, इरफान पठान, यूसुफ पठान, मोहम्मद शमी, मोहम्मद सिराज जैसे नाम बताते हैं कि मुस्लिम खिलाड़ियों ने हमेशा टीम इंडिया की प्रतिष्ठा को ऊंचा किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने खेल को राष्ट्र निर्माण का साधन मानते हुए ‘खेलो इंडिया’, ‘टारगेट ओलंपिक पोडियम’ जैसी योजनाओं की शुरुआत की। सरकार का जोर प्रतिभा आधारित चयन और खेल संरचना के विस्तार पर रहा है। इन योजनाओं में मुस्लिम खिलाड़ियों की भागीदारी को लेकर किसी स्तर पर कोई आधिकारिक भेदभाव का प्रमाण नहीं है।
वर्ष 2021 में जब पाकिस्तान के खिलाफ विश्व कप मैच में मोहम्मद शमी को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया था, तब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन कर उनका मनोबल बढ़ाया था। यह उदाहरण बताता है कि सरकार ने कभी भी धर्म आधारित विभाजन को प्रोत्साहित नहीं किया, बल्कि एकता और समर्थन का संदेश दिया।
डॉ. शमा मोहम्मद के आरोप को केवल सांप्रदायिक बयान कहकर खारिज करना सही नहीं होगा। उनका सवाल एक सामाजिक सोच की झलक है कि क्या भारत का माहौल, खासकर सोशल मीडिया की विभाजनकारी प्रवृत्तियां, खेल जैसे निष्पक्ष क्षेत्र को भी प्रभावित कर रही हैं?
यह सवाल वाजिब है, क्योंकि जब एक खिलाड़ी को उसकी हार या प्रदर्शन के बाद धर्म के नाम पर ट्रोल किया जाता है तो यह सामाजिक विकृति का संकेत है, लेकिन यह भी सच है कि टीम चयन में धर्म का प्रभाव नहीं, बल्कि जनता की प्रतिक्रियाओं में सामाजिक ध्रुवीकरण दिखता है। यह फर्क समझना जरूरी है। सरकार या बीसीसीआई नहीं, बल्कि समाज की कुछ आवाजें खेल को धर्म के चश्मे से देखने लगी हैं।
वर्तमान भारतीय क्रिकेट टीम में मोहम्मद सिराज और मोहम्मद शमी दो प्रमुख मुस्लिम खिलाड़ी हैं, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में शानदार प्रदर्शन किया है। घरेलू क्रिकेट में सरफराज़ खान, राशिद दर, मोहम्मद मोहसिन, सलमान नजीर जैसे युवा लगातार प्रदर्शन से चयन की कतार में हैं। महिला क्रिकेट में सैयदा खदीजा, इशरत फातिमा जैसी युवा खिलाड़ी घरेलू सर्किट में अपना नाम बना रही हैं।
क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भी मुस्लिम खिलाड़ियों का योगदान भारत के खेल इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है। हॉकी में ज़फर इकबाल, मोहम्मद शाहिद, सैयद मुस्ताक अली जैसे नाम भारत की खेल विरासत का गौरव हैं।
वर्तमान में भारतीय पुरुष हॉकी टीम में मोहम्मद रईद, अब्दुल रहमान, सैयद अनवर जैसी नई प्रतिभाएं उभर रही हैं। महिला हॉकी में भी नाजिया खान, सायरा बेग जैसी खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बना रही हैं।
फुटबॉल में मोहम्मद राशिद, फैय्याज अहमद, मोहम्मद रफी जैसे खिलाड़ी इंडियन सुपर लीग में दमदार प्रदर्शन कर रहे हैं। केरल ब्लास्टर्स और मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब जैसे ऐतिहासिक क्लबों ने दशकों से मुस्लिम खिलाड़ियों को राष्ट्रीय पहचान दिलाई है।
कुश्ती में नसीर अहमद और रहीम खान जैसे पहलवानों ने अपने संघर्ष और समर्पण से पहचान बनाई है, जबकि हाल में एशियन गेम्स में अब्दुल रहमान ने ग्रीको-रोमन वर्ग में पदक जीतकर नई उम्मीद जगाई। बॉक्सिंग में मोहम्मद हुसामुद्दीन ने वर्ष 2022 राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीतकर यह सिद्ध किया कि मुस्लिम युवा भी ओलंपिक और विश्वस्तरीय मुकाबलों में देश का नाम रोशन कर सकते हैं।
टेनिस में सानिया मिर्जा भारतीय खेल इतिहास की प्रेरक शख्सियत हैं। उन्होंने न केवल ग्रैंड स्लैम जीतकर देश का नाम ऊंचा किया, बल्कि यह भी दिखाया कि एक भारतीय मुस्लिम महिला खिलाड़ी वैश्विक स्तर पर कैसे चमक सकती है? सानिया के बाद अब नई पीढ़ी में कश्मीरी खिलाड़ी सारा इजाज, हैदराबाद की अलीना सैयद जैसे नाम उभर रहे हैं।
बैडमिंटन में सैयद मोहम्मद इरफान, अनीसा शेख जैसे युवा खिलाड़ी खेलो इंडिया और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी छाप छोड़ रहे हैं। शूटिंग में मेहरान खान, अर्शद हुसैन जैसे निशानेबाज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय झंडा ऊंचा कर रहे हैं।
एथलेटिक्स में नुजहत परवीन, निशानेबाज़ी में हीना सिद्दीकी और कबड्डी में सायमा अंसारी जैसी खिलाड़ियों ने यह सिद्ध किया है कि भारत की मुस्लिम बेटियां खेलों में किसी से पीछे नहीं हैं। वे न केवल खेल रही हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा भी दे रही हैं।
जब मोहम्मद अजहरुद्दीन भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान थे, तब पूरी टीम उन्हें अज्जू भाई कहकर सम्मान देती थी। जब मोहम्मद शमी ने विश्वकप में हैट्रिक ली तो पूरा देश एक साथ उनकी जीत पर गर्व कर रहा था। जब हॉकी के ज़फर इकबाल ओलंपिक मैदान पर तिरंगे के साथ दौड़े, तब किसी ने यह नहीं पूछा कि उनका धर्म क्या है?
जब सानिया मिर्जा ने ऑस्ट्रेलिया में ट्रॉफी उठाई तो भारत के हर घर में खुशी की लहर दौड़ गई। यही वह भारत है, जो अपने खिलाड़ियों को केवल उनकी मेहनत, संघर्ष और प्रतिभा के लिए याद रखता है, न कि उनकी पहचान के लिए।
पूर्व भारतीय क्रिकेटर इरफान पठान ने डॉ. शमा मोहम्मद को सटीक जवाब दिया है। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, 'चयनकर्ताओं और कोच के पास हमेशा एक योजना होती है। कभी-कभी प्रशंसकों की नजर में यह गलत लग सकती है, लेकिन कृपया बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश न करें या ऐसी कहानियां न बनाएं, जो सच्चाई के करीब न हों।'
भारतीय खेलों की असली खूबसूरती यही है कि यहां धर्म नहीं, प्रदर्शन गिना जाता है। जहां विकेट, गोल, पंच और रिकॉर्ड ही पहचान बनते हैं।
राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे खेल के मैदान को सामाजिक एकता का प्रतीक बनने दें, न कि उसे सियासी बहस का शिकार बनाएं। जब तक भारत का खिलाड़ी मैदान पर पसीना बहा रहा है, तब तक यह देश सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर केवल एक ही बात कहता रहेगा, खेल ही हमारी असली पहचान है।
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