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भारत का नया भूकंप मानचित्र: अब 61% देश हाई रिस्क जोन में
सार
सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि देश की 75 प्रतिशत आबादी अब भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में रहती है। यह सिर्फ एक नक्शा नहीं, बल्कि भारत के भविष्य की नींव को नया सिरा देने वाला दस्तावेज है।
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भूकंप।
- फोटो : USGS
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विस्तार
भारतीय मानक ब्यूरो ने देश का सबसे व्यापक और वैज्ञानिक रूप से मजबूत भूकंपीय जोखिम मानचित्र जारी किया है । यह नया मानचित्र पिछले दो दशकों की सबसे बड़ी वैज्ञानिक छलांग है। पहली बार पूरे हिमालयी चाप को एकसमान रूप से सबसे ऊंचे जोखिम वाले जोन -VI में रखा गया है।
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जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक अब कोई छूट नहीं। पहले यही हिमालय जोन IV और V में बँटा हुआ था, जिससे उत्तराखंड का एक जिला कम जोखिम में और पड़ोसी जिला ज्यादा जोखिम में गिना जाता था।
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अब सारी भ्रम की दीवारें ढह गई हैं। देश का 61 प्रतिशत भू-भाग अब मध्यम से अत्यधिक भूकंपीय जोखिम में आ गया है। पहले यह आंकड़ा 59 प्रतिशत था। और सबसे डराने वाली बात यह है कि हमारी 75 प्रतिशत आबादी अब उन इलाकों में रहती है जहां जमीन कभी भी हिल सकती है।
सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि देश की 75 प्रतिशत आबादी अब भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में रहती है। यह सिर्फ एक नक्शा नहीं, बल्कि भारत के भविष्य की नींव को नया सिरा देने वाला दस्तावेज है।
हिमालय क्यों है सबसे खतरनाक क्षेत्र?
हिमालय पृथ्वी की सबसे सक्रिय टेक्टोनिक टक्कर सीमा पर स्थित है। भारतीय प्लेट हर साल लगभग 5 सेंटीमीटर की रफ्तार से उत्तर दिशा में यूरेसियन प्लेट के नीचे धँस रही है। इसी टक्कर ने हिमालय को जन्म दिया और आज भी यह पर्वत श्रंखला ऊपर उठ रही है। इस प्रक्रिया में चट्टानों में भारी तनाव जमा हो रहा है।
वैज्ञानिकों ने हिमालय में कई ‘सिस्मिक गैप’ चिह्नित किए हैं – वे लंबे खंड जहाँ पिछले 200-500 वर्षों में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया। मिसाल के तौर पर मध्य हिमालय (उत्तराखंड-नेपाल सीमा क्षेत्र) में 1803 के बाद कोई सतही फटने वाला महाभूकंप नहीं आया।
इसका मतलब है कि वहां अपार ऊर्जा जमा है, जो कभी भी मुक्त हो सकती है।bहिमालय के नीचे तीन प्रमुख फॉल्ट सिस्टम हैं – मेन फ्रंटल थ्रस्ट (MFT), मेन बाउंड्री थ्रस्ट (MBT) और मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT) – ये सभी Mw 8.0 या उससे बड़े भूकंप पैदा करने में सक्षम हैं।
नया मानचित्र पहली बार इन फॉल्ट्स के दक्षिण की ओर फैलने वाले प्रभाव को भी ध्यान में रखता है। इसका मतलब है कि देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे शहरों पर खतरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मध्य हिमालय में पिछले दो सौ साल से कोई बड़ा सतही भूकंप नहीं आया।
इसे सिस्मिक गैप कहते हैं। मतलब वहां ऊर्जा का भंडार भर चुका है। जब यह फूटेगा तो एक साथ सैकड़ों किलोमीटर तक फॉल्ट फट सकता है। नया मानचित्र इसी खतरे को पहली बार पूरी गंभीरता से स्वीकार करता है।
देहरादून से दिल्ली तक बढ़ा खतरा
नया नक्शा बताता है कि हिमालय का फॉल्ट अब दक्षिण की ओर ज्यादा दूर तक प्रभाव डाल सकता है। इसका सीधा मतलब है कि देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, सहारनपुर और दिल्ली-एनसीआर का जोखिम पहले के अनुमान से कहीं ज्यादा है।
नरम जलोढ़ मिट्टी पर बसे ये शहर भूकंपीय तरंगों को पांच से दस गुना तक बढ़ा देते हैं। यानी 6.5 तीव्रता का भूकंप भी यहां आठ की तरह तबाही मचा सकता है। पुराने नक्शे में प्रशासनिक सीमाएं भूकंप जोन तय करती थीं।
नया नक्शा भूवैज्ञानिक सच्चाई पर टिका है। सक्रिय फॉल्ट कहां हैं, मिट्टी कितनी नरम है, जीपीएस से तनाव कितना जमा हो रहा है, ये सारी बातें अब तय करेंगी कि आपका घर किस जोन में है। जो शहर या गांव दो जोनों की सीमा पर हैं, उन्हें अब ऊँचे जोखिम वाले जोन में ही गिना जाएगा। बिल्डरों के लिए कोई लूपहोल नहीं बचा।
नया मानचित्र: क्या-क्या बदला?
इस बार का सबसे बड़ा बदलाव यह है कि भारत ने पहली बार जोन VI नाम का सबसे ऊंचा भूकंपीय जोखिम क्षेत्र बनाया है। जम्मू-कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक पूरा हिमालयी चाप अब इसी जोन VI में आ गया है। पहले यही हिमालय जोन IV और जोन V में बँटा हुआ था, जिसकी वजह से एक ही पर्वत श्रंखला में अलग-अलग निर्माण मानक लागू होते थे।
अब पूरे हिमालयी राज्यों में एकसमान और सबसे सख्त भूकंप-रोधी डिजाइन अनिवार्य हो गए हैं। दूसरा बड़ा बदलाव सीमा वाले इलाकों को लेकर हुआ है। पहले कई शहरों और कस्बों को दो जोन की लाइन ने बीच से काट रखा था।
अब नियम बिल्कुल साफ है कि जो भी बस्ती दो जोनों की सीमा पर है या उसके आसपास है, उसे ऊंचे जोखिम वाले जोन में ही रखा जाएगा। इससे बिल्डरों के पास कम मानक अपनाने का कोई बहाना नहीं बचा। सबसे अहम बात यह है कि अब भूकंप जोन तय करने में जिला या राज्य की प्रशासनिक सीमाओं का कोई रोल नहीं रहा। नया नक्शा पूरी तरह भूवैज्ञानिक हकीकत पर टिका है।
सक्रिय फॉल्ट कहां हैं, मिट्टी की प्रकृति क्या है, चट्टानों में कितना तनाव जमा हो रहा है, जीपीएस के आंकड़े क्या बता रहे हैं और प्रोबेबिलिस्टिक हैज़ार्ड मॉडल क्या कहते हैं, यही अब फैसला करेंगे कि आपका घर किस जोन में है।
भारत की भूकंपीय कमज़ोरी: चौंकाने वाले आंकड़े
नया नक्शा बताता है कि अब देश का इकसठ प्रतिशत भू-भाग मध्यम से अत्यधिक भूकंपीय जोखिम में आ चुका है, जबकि पहले यह आँकड़ा उनसठ प्रतिशत था। सबसे डराने वाली बात यह है कि देश की पचहत्तर प्रतिशत आबादी अब उन इलाकों में रहती है जहां कभी भी ज़मीन हिल सकती है।
दिल्ली-एनसीआर से लेकर इंदो-गंगा का पूरा मैदान, कच्छ का रण, पूर्वोत्तर भारत, पश्चिमी घाट के कुछ हिस्से और दक्कन के भूकंप-संभावी क्षेत्र अब पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक श्रेणी में आ गए हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि हमारी सबसे घनी आबादी ठीक उन्हीं इलाकों में बसी है जहां नरम जलोढ़ मिट्टी है।
यह मिट्टी भूकंपीय तरंगों को पाँच से दस गुना तक बढ़ा देती है। यानी दूर का छह-सात तीव्रता वाला भूकंप भी यहां आठ या उससे ज्यादा की तरह तबाही मचा सकता है।
अब क्या करना होगा?
अब हर पुरानी इमारत को नए मानकों के हिसाब से मजबूत करना अनिवार्य हो गया है। अस्पताल हों या स्कूल, पुल हों या बाँध, पावर प्लांट हों या ऊँची इमारतें, सबको रेट्रोफिट करना पड़ेगा। दिल्ली, पटना, गुवाहाटी, देहरादून, जम्मू और श्रीनगर जैसे शहरों में नदी किनारे, रिक्लेम्ड लैंड और सक्रिय फॉल्ट लाइन पर नया निर्माण तुरंत बंद करना होगा।
अब कोई भी शहर का मास्टर प्लान या डेवलपमेंट कंट्रोल रेगुलेशन इस नए भूकंपीय मानचित्र के बिना नहीं बनेगा। उत्तराखंड, हिमाचल और सिक्किम में ढलानों को काटकर बनाई जा रही सड़कें और कॉलोनियाँ अब बहुत महँगी पड़ने वाली हैं।
संस्थाएं जो मोर्चे पर हैं
इस पूरी तैयारी के केंद्र में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है जो नीतियाँ बनाता है और रेट्रोफिटिंग के दिशानिर्देश जारी करता है। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण इन्हीं नीतियों को ज़मीन पर उतारते हैं।
वहीं राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र और राष्ट्रीय सिस्मोलॉजिकल नेटवर्क दिन-रात ज़मीन की हलचल पर नज़र रखते हैं और भूकंप अग्रिम चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने में जुटे हैं। यह देश का सबसे बड़ा रियल-टाइम निगरानी तंत्र है।
यह चेतावनी है, मौका भी है
2025 का यह नया मानचित्र सिर्फ़ लाल रंग का फैलाव नहीं है। यह एक राष्ट्रीय जागरण है। हम सदियों से उस ज़मीन पर महल बना रहे हैं जो कभी भी रूस सकती है। भुज 2001, कश्मीर 2005, नेपाल 2015 हमें चेता चुके हैं। अब विज्ञान ने साफ-साफ बता दिया है कि अगला बड़ा झटका कहां लगेगा।
सवाल सिर्फ इतना है। क्या हम फिर इंतज़ार करेंगे कि जमीन हिले, इमारतें गिरें, हजारों जिंदगियाँ चली जाएं और फिर आँसू बहाएं? या इस बार विज्ञान की भाषा को समझकर अपने शहरों को भूकंप-रोधी बनाएँगे? नक्शा बदल चुका है। अब हमारी तैयारी, हमारी सोच और हमारे शहरों का भविष्य बदलने की बारी है।
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