मिसाल या राजनीतिक संदेश, सामूहिक विवाह के आईने में मुख्यमंत्री मोहन यादव की 'सादगी'
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव द्वारा अपने छोटे बेटे अभिमन्यु यादव का विवाह भव्य सामूहिक समारोह में कराना, भारतीय राजनीति और समाज में एक असाधारण घटना है। यह पहल राजनीति और सत्ता के गलियारों में प्रचलित अप्रत्याशित भव्यता व अपार खर्च के विपरीत एक नया विमर्श पैदा करती है। यह सवाल उठाती है कि क्या यह वास्तव में सामाजिक उत्तरदायित्व की एक अभूतपूर्व मिसाल है अथवा वीआईपी प्रोटोकॉल की अनिवार्यताओं में लिपटी एक कुशल राजनीतिक पहल है?
इस द्वंद्वात्मक प्रश्न का उत्तर इस आयोजन की उद्देश्यपूर्ण सादगी और व्यवहारिक भव्यता के गहन विश्लेषण में छिपा है, जो समाज पर इसके संभावित दीर्घकालिक प्रभावों को भी रेखांकित करता है।
मुख्यमंत्री मोहन यादव का यह निर्णय अपने पुत्र के विवाह को 'स्टेट इवेंट' की व्यक्तिगत भव्यता से दूर रखकर सामूहिक विवाह का हिस्सा बनाना, मात्र एक पारिवारिक घटना नहीं, बल्कि एक सार्वजनिक घोषणा थी। सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के लिए यह निर्णय न केवल व्यक्तिगत संयम को दर्शाता है, बल्कि एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक मानक भी स्थापित करने का प्रयास करता है।
निमंत्रण पत्र पर स्पष्ट रूप से मुद्रित संदेश 'उपहार के लिए क्षमा... आपका आशीर्वाद ही नवदंपती के लिए अमूल्य उपहार है।' इस पूरे आयोजन की नैतिक आधारशिला है। यह सीधा और मुखर संदेश उस सामाजिक प्रतिस्पर्धा और दबाव को नकारता है, जहां शादियां अक्सर उपहारों के संग्रह, प्रदर्शन और व्यापक वित्तीय बोझ का मंच बन जाती हैं।
'स्टेटस सिम्बल' से ऊपर 'संस्कार'
यह भारतीय संस्कृति में विवाह के 'संस्कार' पक्ष को उसके 'स्टेटस सिम्बल' पक्ष पर वरीयता देने का स्पष्ट संकेत है। यह पहल उन लाखों मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए एक सशक्त उदाहरण पेश करती है, जो सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने की होड़ में अनावश्यक कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं।
इस समारोह का केंद्रीय और सबसे गहरा संदेश सामाजिक समरसता में निहित है। अभिमन्यु यादव और उनकी पत्नी ईशिता यादव सहित कुल 22 जोड़े, जिनमें 21 अन्य सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि के परिवार शामिल थे, एक ही मंच पर, समान विवाह मंडप और साझा रस्मों के साथ विवाह बंधन में बंधे।
यह व्यवस्था सामाजिक समानता का एक जीवंत प्रदर्शन है। जब राज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति का पुत्र सामान्य पृष्ठभूमि के अन्य जोड़ों के साथ एक ही मंच साझा करता है तो यह प्रतीकात्मक रूप से सामाजिक दर्जे की दीवारों को ध्वस्त करता है।
यह स्पष्ट करता है कि विवाह जैसे पवित्र बंधन में सभी जोड़े समान हैं, चाहे उनकी आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। इस आयोजन ने सामूहिक विवाह समारोहों को नई सामाजिक स्वीकार्यता और गरिमा प्रदान की है। अब यह मॉडल केवल 'गरीबों' या 'सरकारी योजनाओं' तक सीमित न रहकर, समाज के सभी वर्गों के लिए एक प्रतिष्ठित और समावेशी विकल्प के रूप में उभर सकता है।
शादियों में होने वाला खर्च
शादियों में होने वाले खर्च के संदर्भ में यह पहल एक महत्वपूर्ण आर्थिक संदेश देती है। भारत में एक औसत मध्यमवर्गीय विवाह में लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं, जबकि अमीर परिवारों में यह आंकड़ा करोड़ों तक पहुंच जाता है। यह खर्च मुख्य रूप से वैन्यू, कैटरिंग, सजावट, और उपहारों पर होता है। इस आयोजन का विश्लेषण करते हुए, यह स्पष्ट है कि पारंपरिक भव्य विवाह और सामूहिक विवाह के मॉडल में मौलिक अंतर हैं।
एक ओर पारंपरिक भव्य विवाह में प्रतिष्ठा का आधार वित्तीय प्रदर्शन और सामाजिक दिखावा होता है, जिसका परिणाम अक्सर 10 लाख से 1 करोड़ रुपए या अधिक का वित्तीय बोझ होता है।
इस प्रक्रिया में परिवारों पर सामाजिक दबाव अत्यधिक होता है, जो कई बार उन्हें कर्ज लेने तक के लिए मजबूर करता है। इसके विपरीत, सामूहिक विवाह का मॉडल प्रतिष्ठा का आधार संस्कार और सामाजिक उत्तरदायित्व को मानता है, जिसके कारण व्यक्तिगत वित्तीय बोझ काफी कम होता, आमतौर पर यह खर्च सरकारी योजनाओं में 1-2 लाख रुपए या व्यक्तिगत रूप से आयोजित विवाह की तुलना में नगण्य होता है।
यह मॉडल सामाजिक दबाव को कम करता है और सामूहिक सहयोग तथा सहभागिता को बढ़ावा देता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि विवाह को सादगी और वित्तीय विवेक के साथ भी संपन्न किया जा सकता है।
मुख्यमंत्री के बेटे की शादी के बावजूद व्यक्तिगत परिवार पर पड़ने वाला खर्च निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से आयोजित एक भव्य विवाह की तुलना में नगण्य रहा होगा। यह मॉडल परिवारों को वित्तीय विवेक अपनाने की ओर प्रेरित करता है, जिससे बचत को नवविवाहित जोड़े के भविष्य और राष्ट्र निर्माण में लगाया जा सके।
महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा
सामूहिक विवाह का यह मॉडल अप्रत्यक्ष रूप से महिला सशक्तीकरण को भी बढ़ावा देता है। भारतीय समाज में विवाह से जुड़ा सबसे बड़ा सामाजिक बोझ और दबाव अक्सर लड़कियों के परिवारों पर पड़ता है, जो दहेज, भव्य आयोजन और 'कन्यादान' की रस्मों के कारण होता है।
सामूहिक विवाह समारोह दहेज प्रथा को सामाजिक रूप से अस्वीकार्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ऐसे मंच पर दहेज का लेन-देन संभव नहीं होता। साथ ही, जब शादी सरल और सामूहिक होती है तो महिला के परिवार पर प्रतिष्ठा बनाए रखने का दबाव कम होता है, जिससे वे सम्मान के साथ अपनी बेटी का विवाह कर पाते हैं।
मुख्यमंत्री की पहल इस मॉडल को समाज के उच्च स्तरों पर ले जाती है, जिससे इसका प्रभाव और अधिक व्यापक होता है। यह एक स्वस्थ सामाजिक संकेत है कि अब बेटियों का विवाह वित्तीय लेन-देन नहीं, बल्कि समान और सम्मानजनक सामाजिक भागीदारी है।
प्रदर्शनवादी प्रवृत्ति के खिलाफ एक सुधारात्मक कदम
दरअसल, भारतीय राजनीति में नेताओं की शादियां हमेशा सुर्खियों में रही हैं। अतीत में, कई राजनेताओं ने अपने बच्चों की शादियों को सादगी से संपन्न कराकर मिसाल पेश की है। हालांकि, हाल के वर्षों में, सत्ता और धन के प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिसने अक्सर वीआईपी कल्चर को बढ़ावा दिया है। मुख्यमंत्री मोहन यादव की पहल इस प्रदर्शनवादी प्रवृत्ति के खिलाफ एक सुधारात्मक कदम के रूप में देखी जा सकती है।
यह पहल राजनीति और आम जनता के बीच की खाई को पाटने का प्रयास करती है। यह केवल एक राजनीतिक संदेश नहीं है, बल्कि एक प्रशासनिक संदेश भी है कि सरकारें जिस सामूहिक विवाह योजनाओं को बढ़ावा देती हैं (जैसे मध्य प्रदेश में 'मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना'), उन्हें उच्च नेतृत्व द्वारा भी स्वीकारा जाता है। मुख्यमंत्री का अपने बेटे को इस मंच पर शामिल करना, सरकारी नीतियों पर 'भरोसा' और 'ईमानदारी' को स्थापित करता है।
यह एक स्पष्ट संदेश है कि जो नियम और योजनाएं आम जनता के लिए हैं, वे नेताओं के परिवारों पर भी लागू होती हैं।
हालांकि, यहां सबसे बड़ा विरोधाभास आयोजन की अनिवार्यता और घोषित उद्देश्य के बीच उत्पन्न होता है। यह स्वीकार करना आवश्यक है कि उद्देश्य सादगी, यथार्थ, वीआईपी प्रोटोकॉल के कारण भव्यता रही। जब प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, और बड़ी संख्या में गणमान्य व्यक्ति शामिल होते हैं तो सुरक्षा व्यवस्था, प्रशासनिक प्रबंधन, मीडिया और प्रोटोकॉल के कारण आयोजन का पैमाना स्वतः ही बढ़ जाता है।
विशाल पंडाल और व्यापक सुरक्षा व्यवस्थाएं किसी भी सामान्य सामूहिक विवाह की तुलना में इसे भव्य बना देती हैं। यह विरोधाभास मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत मंशा और उनके पद की अनिवार्यता के बीच का है। एक मुख्यमंत्री सुरक्षा और भीड़ को अनदेखा नहीं कर सकता। इसलिए इस आयोजन को 'पूर्णतः सादगीपूर्ण' कहना यथार्थ से परे होगा, लेकिन इसे 'व्यक्तिगत तौर पर आयोजित होने वाले अत्यधिक भव्य विवाह समारोह का एक सुसंगठित, नैतिक और सामूहिक विकल्प' कहना अधिक सटीक होगा।
यह आयोजन उस भव्यता को कम करने का प्रयास है जो व्यक्तिगत इच्छा से आती है, न कि उस भव्यता को जो पद की अनिवार्यताओं से आती है और यहीं इस पहल का वास्तविक नैतिक बल निहित है।
निश्चित रूप से मुख्यमंत्री मोहन यादव का यह निर्णय एक परिवार की सीमा से बाहर निकलकर सामाजिक जिम्मेदारी का मंच बन गया। इस आयोजन ने समाज को विवाह में अनावश्यक प्रतिस्पर्धा, खर्चीले दिखावे और सामाजिक बोझ पर पुनर्विचार करने के लिए एक विमर्श का मंच प्रदान किया है।
भले वीआईपी उपस्थिति और पद की अनिवार्यता ने इसे पूर्णतः सादगीपूर्ण होने से रोका हो, लेकिन इसकी बुनियादी मंशा, प्रतीकात्मकता, सामाजिक भागीदारी, और आर्थिक संदेश का महत्व अत्यंत उच्च है। आज समाज में विवाह को लेकर जो प्रतिस्पर्धा, आर्थिक बोझ और दिखावा व्याप्त है, उसके बीच यह आयोजन एक वैकल्पिक मार्ग सुझाता है, जहां विवाह को सरल, सामूहिक, नैतिक और सामाजिक रूप से जिम्मेदार बनाया जा सकता है।
सच यही है कि परिवर्तन की शुरुआत एक कदम से होती है और यह कदम, यथार्थ की सीमाओं के बावजूद, उस नैतिक बदलाव की दिशा में एक सशक्त और आवश्यक शुरुआत है। इसका वास्तविक दीर्घकालिक प्रभाव तब दिखेगा जब आम जनता इसे सिर्फ एक राजनीतिक घटना के रूप में नहीं, बल्कि अपने जीवन में अपनाने योग्य एक सामाजिक प्रेरणा के रूप में देखेगी।
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