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इंडियन एविएशन समस्या: वर्षों से सुलग रही समस्या शोले बनकर सामने आई, सरकार दिखाए दृढ़ता
सार
भारत का एविएशन संकट अचानक नहीं आया। यह कई वर्षों से पैदा होती रही उन समस्याओं का परिणाम है, जिन्हें समय रहते संबोधित नहीं किया गया।
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कंपनियों द्वारा जारी 'सॉरी' संदेश यात्री के समय, धन और उद्देश्य की भरपाई नहीं कर सकते।
- फोटो : Amar Ujala
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विस्तार
इंडियन एविएशन सेक्टर आज जिस स्थिति में खड़ा है, उसे देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की आसमान में उड़ान भरने की महत्वाकांक्षा और उसकी जमीनी हकीकत के बीच बेहद गहरा अंतर है। बीते दशक में भारत ने एविएशन के बुनियादी ढांचे, एयरपोर्ट्स, क्षेत्रीय संपर्क और यात्रियों की संख्या के लिहाज से अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज की है, लेकिन एयरलाइंस के ऑपरेशन्स, फाइनेंशियल स्टेबिलिटी और कम्पेटिटिव एनवायरमेंट के मोर्चे पर तीव्र संकट से गुजर रहे है।
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यह विरोधाभास जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चिंताजनक भी। भारत में एविएशन सेक्टर में विकास की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन यह विकास टिकाऊ तभी होगा, जब मार्केट स्ट्रक्चर हेल्दी हो, नीतियां संतुलित हों और रेगुलेशन स्ट्रॉन्ग हो। आज की स्थिति में इंडिगो जैसी कंपनियों की मोनोपोली जितनी यात्रियों के लिए हानिकारक है, उतनी ही उद्योग के लॉन्ग टर्म फ्यूचर के लिए भी।
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भारत सरकार को यात्रियों के अधिकारों को केंद्र में रखकर नई नीति बनानी होगी। यह संकट चेतावनी है, यदि इसे समय रहते न सुना गया तो भारत की उड़ानें बढ़ती जरूर दिखेंगी, लेकिन उड़ान भरने का आत्मविश्वास लगातार कम होता जाएगा।
आज एविएशन सेक्टर में जिस प्रकार की अस्थिरता और अनिश्चितता बढ़ी है, वह किसी एक कंपनी की विफलता नहीं, बल्कि उद्योग के स्ट्रक्चरल डिफेक्ट का रिजल्ट है। एयरलाइंस की आर्थिक सेहत बिगड़ चुकी है, किराए आसमान छू रहे हैं और यात्रियों का भरोसा लगातार कमजोर पड़ रहा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि इस संकट को केवल कंपनियों की विफलता न मानकर, इसे व्यापक नीतिगत असंतुलन और बाजार संरचना की समस्या के रूप में देखा जाए।
दरअसल, भारत का एविएशन संकट अचानक नहीं आया। यह कई वर्षों से पैदा होती रही उन समस्याओं का परिणाम है, जिन्हें समय रहते संबोधित नहीं किया गया। इनमें सबसे बड़ी समस्या प्रैट एंड व्हिटनी इंजनों की तकनीकी खामियों से जुड़ी रही, जिसने इंडिगो और गो फर्स्ट जैसे प्रमुख खिलाड़ियों को गहरी ऑपरेशन क्राइसिस में धकेल दिया।
गो फर्स्ट के लगभग आधे बेड़े को उड़ान से बाहर कर देना पड़ा और अंततः कंपनी दिवालिया प्रक्रिया में चली गई।
इंडिगो के भी 70 से अधिक विमान खड़े हो गए, जो कि उसकी कुल क्षमता का बड़ा हिस्सा है। एक ही इंजन निर्माता पर अत्यधिक निर्भरता ने भारतीय एयरलाइंस को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया कि तकनीकी समस्या का आर्थिक और ऑपरेशन डिजास्टर में बदलना तय था।
दूसरी तरफ, एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) की कीमतों ने एयरलाइंस की कमर तोड़ दी है। एयरलाइन ऑपरेशन में ईंधन का खर्च 35-40 प्रतिशत होता है और वर्ल्ड मार्केट में उतार-चढ़ाव के कारण यह लागत तेजी से बढ़ती गई। रुपया भी डॉलर के मुकाबले कमजोर होता गया, जबकि किराया, लीज पेमेंट और मेंटेनेंस जैसी लगभग सारी लागतें डॉलर में होती हैं।
इससे एयरलाइंस पर फाइनेंशियल प्रेशर कई गुना बढ़ गया, लेकिन तकनीकी और आर्थिक समस्याओं से परे, एक तीसरी समस्या भी उतनी ही गंभीर है, कर्मचारियों का बढ़ता असंतोष।
विस्तारा और एयर इंडिया एक्सप्रेस जैसी एयरलाइंस में पायलटों व केबिन क्रू द्वारा अचानक 'सिक लीव' पर चले जाने की घटनाओं ने उद्योग की गहरी आंतरिक अस्थिरता को उजागर किया था। किसी भी कंपनी में विलय एक संवेदनशील प्रक्रिया होती है और स्पष्ट संवाद के अभाव में यह तय था कि कर्मचारी असंतोष खुले विद्रोह में बदल जाएगा।
वैसे, इंडियन एविएशन क्राइसिस का सबसे बड़ा परिणाम मार्केट स्ट्रक्चर में आया परिवर्तन है। आज इंडिगो न केवल भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन है, बल्कि इसका वर्चस्व चिंताजनक रूप से बढ़ गया है। इंडिगो की बाजार हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से अधिक हो चुकी है, जो किसी भी स्वस्थ प्रतिस्पर्धी बाजार के लिए बेहद खतरनाक संकेत है।
गो फर्स्ट के संचालन बंद होने और स्पाइसजेट की लगातार आर्थिक समस्याओं के चलते इंडिगो का वर्चस्व और बढ़ा है। टाटा समूह द्वारा एयर इंडिया, विस्तारा और एयर इंडिया एक्सप्रेस का विलय एक नए शक्ति केंद्र का निर्माण कर रहा है। इंडिगो और टाटा समूह मिलकर इंडियन स्पेस के 90 प्रतिशत से अधिक हिस्से पर कंट्रोल स्थापित कर चुके हैं।
यह स्थिति न तो प्रतिस्पर्धा के लिए ठीक है, न ही यात्रियों के हितों के लिए, क्योंकि कम प्रतिस्पर्धा का सीधा अर्थ है, ऊंचे किराए, अस्थिर समय-सारणी और यात्रियों के अधिकारों की अनदेखी। विश्व के कई देशों में मोनोपॉली या डूओपॉली को रोकने के लिए कठोर एंटी-ट्रस्ट नियम हैं, लेकिन भारत में एविएशन सेक्टर इन नियमों से प्रभावी रूप से अछूता है, जिसके परिणाम आज साफ दिखाई दे रहे हैं।
इस बात को कुछ यूं समझ सकते हैं। भारत सरकार ने यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा की रक्षा के लिए कुछ नए नियम लागू करने की कोशिश की, जिनमें उड़ान रद्द होने या लंबी देरी की स्थिति में अनिवार्य मुआवजा, क्रू की कमी के कारण रद्द उड़ानों पर पेनल्टी और टिकट मूल्य में पारदर्शिता जैसे प्रावधान शामिल थे, लेकिन इंडिगो सहित कुछ प्रमुख एयरलाइंस ने इन नियमों को लागू करने में स्पष्ट अनिच्छा दिखाई। एयरलाइंस ने तर्क दिया कि इन नीतियों से ऑपरेशन लागत बढ़ेगी और उनका व्यवसाय प्रभावित होगा।
उद्योग लॉबी के दबाव में कुछ नियमों को आगे बढ़ा दिया गया या नरम कर दिया गया। यह स्थिति बताती है कि जब तक सरकार यात्री अधिकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता बनाकर नियमों को सख्ती से लागू नहीं करेगी, तब तक एयरलाइंस की मनमानी पर रोक लगाना मुश्किल होगा।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत सरकार ने एविएशन इंफ्रास्ट्रक्चर के विस्तार में प्रभावशाली कार्य किया है। वर्ष 2014 से अब तक एयरपोर्ट्स की संख्या 74 से बढ़कर 150 से अधिक हो चुकी है। उड़ान योजना ने क्षमता निर्माण का नया अध्याय शुरू किया और छोटे शहरों को देश की हवाई मानचित्र पर लाया, लेकिन यही तस्वीर दूसरी तरफ से अधूरी है।
डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन (डीजीसीए) लगातार कमजोर साबित हुआ है। गो फर्स्ट के गिरने से पहले उसके फाइनेंस और ऑपरेशनल इंडिकेटर्स की पहचान करना डीजीसीए की जिम्मेदारी थी, जो पूरी तरह विफल रही। यह डीजीसीए की ऐतिहासिक चूक थी।
एटीएफ को जीएसटी के दायरे में न लाने का फैसला भी एविएशन सेक्टर की सेहत पर भारी पड़ रहा है। वर्ल्ड मार्केट में जहां फ्यूल पर टैक्स मिनिमम होता है, भारत में यह एक्सेसिव टैक्सेशन का शिकार है। इससे भारतीय एयरलाइंस कभी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी नहीं बन पातीं।
सरकार ने एयरलाइंस में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। नई कंपनियों के लिए लाइसेंस प्रक्रिया जटिल और महंगी है, जबकि पुरानी कंपनियों के पतन को रोकने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है। इससे एविएशन सेक्टर दो बड़े खिलाड़ियों के कब्जे में सिमटता जा रहा है।
इससे यात्रियों के लिए इंडियन एविएशन सेक्टर का यह संकट गहरे आर्थिक और सामाजिक प्रभाव लेकर आया है। किराए 30-50 प्रतिशत तक महंगे हो गए हैं। छोटे मार्गों पर प्रतिस्पर्धा लगभग खत्म हो गई है। बड़े मार्गों पर किराए कभी-कभी दो से तीन गुना तक बढ़ जाते हैं। उड़ानों का रद्द होना अब सामान्य बात हो गई है।
कंपनियों द्वारा जारी 'सॉरी' संदेश यात्री के समय, धन और उद्देश्य की भरपाई नहीं कर सकते। यूरोप में उड़ान रद्द होने पर यात्रियों को 250 से 600 यूरो (26 हजार से 63 हजार रुपए) तक का मुआवजा मिलता है। भारत में ऐसी कोई सशक्त व्यवस्था नहीं है।
एयरलाइंस बिना पेनल्टी के उड़ान रद्द कर सकती हैं और यात्रियों को केवल ई-मेल माफी या वाउचर पकड़ा कर बात खत्म कर दी जाती है। यह स्पष्ट है कि भारत में यात्री अधिकारों का ढांचा बेहद कमजोर है। रेगुलेटरी संस्था को कंपनियों पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई का अधिकार होना चाहिए, जो फिलहाल लगभग नगण्य है।
भारत यदि विश्व का तीसरा सबसे बड़ा एविएशन मार्केट बनना चाहता है तो उसे नीतियों को विस्तार से परे जाकर गहराई में सुधारना होगा। सबसे पहला उपाय होना चाहिए, एटीएफ को जीएसटी में लाना, दूसरा डीजीसीए को अधिक स्वायत्त, सशक्त और उत्तरदायी संस्था बनाया जाए, तीसरा यात्रियों को यूरोपीय मॉडल की तरह मुआवजे का कानूनी अधिकार मिले और चौथा नए खिलाड़ियों के प्रवेश को सरल बनाया जाना चाहिए, ताकि प्रतिस्पर्धा बनी रहे।
एयरलाइंस को भी अपनी ऑपरेशनल स्ट्रक्चर सुधारनी होगी। इंजन सप्लायरों पर निर्भरता कम करनी होगी और कर्मचारियों के साथ संवाद मजबूत करना होगा, ताकि सामूहिक असंतोष परिचालन ठप न करे।
कुल मिलाकर भारत जैसे तेजी से बढ़ते एविएशन मार्केट में कंपनियों की सहूलियत नहीं, यात्रियों की सुरक्षा और अधिकार नीति का केंद्र होना चाहिए। सरकार को इस दिशा में दृढ़ता दिखानी ही होगी।
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