अलविदा मिलान कुंडेरा: फ़्रीडम इज माई लव- क्योंकि "कोई परिपूर्णता नहीं है, केवल जीवन है"..!
एक मध्यर्गीय परिवार में पहली अप्रैल 1929 को चेकोस्लोवाकिया में जन्में मिलान कुंडेरा अपनी युवावस्था से कम्युनिस्ट पार्टी के उत्साही सदस्य थे, मगर जब उन्होंने पार्टी की कुछ कमियां दिखाई तो पार्टी को यह न रुचा। नतीजन उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। यह एक बार नहीं दो-दो बार हुआ।
एक मध्यर्गीय परिवार में पहली अप्रैल 1929 को चेकोस्लोवाकिया में जन्में मिलान कुंडेरा अपनी युवावस्था से कम्युनिस्ट पार्टी के उत्साही सदस्य थे, मगर जब उन्होंने पार्टी की कुछ कमियां दिखाई तो पार्टी को यह न रुचा। नतीजन उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। यह एक बार नहीं दो-दो बार हुआ।

विस्तार
सत्ता कभी अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर सकती है। भले ही वह अलोचना उसकी विचारधारा के किसी सदस्य द्वारा ही क्यों न की गई हो। दुनिया के तमाम बौद्धिक लोगों को इसका शिकार होना पड़ा है। ऐसे ही एक रचनाकार हुए मिलान कुंडेरा। आज इस चेक उपन्यासकार की 94 साल की उम्र में एक लम्बी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई, उनका पार्थिव शरीर भले ही नष्ट हो गया मगर उनकी समयातीत रचनाएं सदियों तक बनी रहेंगी।

मिलान कुंडेरा जिंदगी की डगर और लेखन
एक मध्यवर्गीय परिवार में पहली अप्रैल 1929 को चेकोस्लोवाकिया में जन्में मिलान कुंडेरा अपनी युवावस्था से कम्युनिस्ट पार्टी के उत्साही सदस्य थे, मगर जब उन्होंने पार्टी की कुछ कमियां दिखाई तो पार्टी को यह न रुचा। नतीजन उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। यह एक बार नहीं दो-दो बार हुआ।
दरअसल, पहली बार 1950 में उन्हें ‘एंटी-कम्युनिस्ट गतिविधियों’ में संलग्न होने की वजह से निष्कासित किया गया और दूसरी बार 1970 में। इस बार उन पर आरोप था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सबके लिए बराबर आधिकारों के लिए आवाज उठाना। आवाज उठाने की कीमत चुकानी होती है। मिलान कुंडेरा ने यह कीमत चुकाई मगर इससे उन्हें नुकसान नहीं फ़ायदा हुआ।
इसके पहले ही मिलान कुंडेरा का पहला उपन्यास ‘द जोक’ प्रकाशित हो चुका था। इस उपन्यास में वे चेकोस्लोवाकिया की कम्युनिस्ट सत्ता पर कटु टिप्पणी कर शासन की नजर में चढ़ चुके थे। अपने काल की खुली आलोचना करने वाला यह उपन्यास उसी समय खूब सफ़ल रहा था। इसमें एक छात्र एक लड़की को प्रभावित करने ट्रोस्टस्की के इर्द-गिर्द एक चुटकुला बनाता है जिसमें वह भाग्य और तार्किकता का मुआयना करता है।
कुंडेरा का यह उपन्यास रातोंरात दुकानों तथा पुस्तकालयों से गायब हो गया। यह हुआ जब रूसी टैंक चौक पर पहुंचे। 1979 में उनकी नागरिकता समाप्त हो गई। जाहिर-सी बात है मिलान कुंडेरा का पार्टी से मोहभंग हो गया, ठीक ऐसा ही हमारे निर्मल वर्मा के साथ हुआ था। निर्मल वर्मा ने मिलान कुंडेरा की कुछ कहानियों का चेक भाषा से सीधे हिन्दी में अनुवाद किया है।

मिलान कुंडेरा चाह से चले
राजनैतिक कमेंट्री करने वाले, काफ़्का तथा नीत्से से प्रभावित मिलान कुंडेरा लेखक बनने से पहले प्राग की फ़िल्म अकादमी में विश्व साहित्य पढ़ा रहे थे। यह 1952 की बात है। उनके पिता लुडविक कुंडेरा जाने-माने संगीतज्ञ थे, पियानो बजाने में उन्हें महारत हासिल थी। मिलान की मां का नाम मिलाडा कुंडेरोवा था। मिलान ने संगीत अपने पिता से सीखा। यह बाद में उनके काम आया।
इधर, सत्ता ने अपनी ताकत दिखाई और मिलान को उनके काम से निकाल दिया गया, उन्हें ब्लैकलिस्टेड कर दिया गया, पर प्रतिभाशाली को जितना दबाया जाता है, वह दुगने वेग से उठ खड़ा होता है। इस समय संगीत की शिक्षा उनके काम आई और उन्होंने एक छोटे-से कस्बे के कैबरे क्लब में जाज़ ट्रम्पेटियर बन कर अपना काम जारी रखा। जब उन्हें लगा कि चेकोस्लोवाकिया के हालात सुधरने वाले नहीं हैं, तो वे 1975 में फ़्रांस चले गए और 1981 में उन्होंने फ़्रांस की नागरिकता ले ली।
कम्युनिस्ट निज़ाम ने भले ही अपने यहांं उन्हें चुप कराने का प्रयास किया पर उनकी ख्याति सीमा के पार गई।
अब उन्हें सेंसरशिप का भय नहीं था। वे कविता, नाटक ,उपन्यास, लेख पहले से लिख रहे थे। फ़िर 1984 में आया उनका ‘दि अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ और इसने उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति दिला दी।
आज भी मिलान कुंडेरा कहते ही सबसे पहले इसी किताब का नाम लिया जाता है। इस उपन्यास के विषय में सम्मानित इंग्लिश आलोचक जॉन बेली का कहना है-
लाइटनेस ऑफ़ बीइंग लेखक के स्वर, फ़िल्मों तथा सेक्स, गैरजिम्मेदाराना तथा राजनीति से जुड़ा है। दूसरी ओर अस्तित्व का वजन या भारीपन, प्रेम, वफ़ा, यंत्रणा, अवसर, साहित्य, प्रारूप, संतुष्टि... मृत्यु से संबंधित है। इसे वे पुराने फ़ैशन की कला कहते हैं। इटालो कैल्वीनो इस उपन्यास की कहानी कहन कला की तारीफ़ करते हैं। पहले वे अपनी भाषा चेक में लिख रहे थे बाद में उन्होंने फ़्रेंच भाषा सीखी और उसमें लिखना प्रारंभ किया।
यहूदी जीवन को साहित्य के केंद्र में रखने वाले अमेरिकी रचनाकार, मिलान कुंडेरा के दोस्त फ़िलिप रॉथ ने भी उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार में काफ़ी योगदान किया। फ़िलिप रॉथ दूसरे यूरोप के रचनाकारों पर एक सीरीज चला रहे थे, उन्होंने इस श्रृंखला के अंतर्गत मिलान कुंडेरा को प्रकाशित किया। फ़िलिप रॉथ तथा मिलान कुंडेरा का नाम बार-बार साहित्य के नोबेल पुरस्कार केलिए हवा में रहा है, मगर दोनों को ही यह नहीं मिला।

फ़िलिप रॉथ 22 मई 2018 को गुजर गए और मिलान कुंडेरा की मृत्यु 11 जुलाई 2023 को हुई। दीगर है, मृत्योपरांत नोबेल पुरस्कार नहीं दिए जाते हैं। मिलान कुंडेरा को नोबेल भले न मिला मगर उन्हें जेरुसेलम, हेरडेर पुरस्कार के साथ दि ऑस्ट्रियन स्टेट प्राइज़ फ़ॉर यूरोपियन लिटरेचर, विलेनिका इंटरनेशनल लिटरेरी फ़ेस्टिवल आदि कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। उन्हें 2007 का चेक स्टेट लिटरेचर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
मिलान कुंडेरा की रचनाओं पर फ़िल्में भी बनी हैं तथा उन्हें ऑस्कर पुरस्कार केलिए नामांकित भी किया गया है। 1988 में ‘दि अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ पर 2 घंटे 51 मिनट की फ़िल्म बनी। इसे 2 ऑस्कर हेतु नामांकित किया गया। उनके पहले उपन्यास ‘द जोक’ पर जैरोमिल जीरेस ने 1969 में एक घंटा बीस मिनट की फ़िल्म बनाई जिसमें जोसेफ़ सोमर, जैना डिटेटोवा तथा लुडेक मुनज़र ने भूमिकाएं की हैं। निर्देशक हाईनेक बोकन ने 1965 में ‘नोबॉडी विल लाफ़’ फ़िल्म बनाई जिसे मिलान कुंडेरा ने निर्देशक तथा पैवेल जुरासेक के साथ मिल कर लिखा है।
फ़िलॉसॉफ़िकल लेखन करने वाले मिलान कुंडेरा के ‘दि अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’उपन्यास के अलावा के कई कविता संग्रह, कई कहानी संग्रह, लेखों के संग्रह, नाटक (‘दि ओनर्सऑफ़ द कीज’) प्रकाशित हैं। उपन्यासों के लिए जाने जाने वाले कुंडेरा के ‘लाइफ़ इज एल्सवेयर’, ‘फ़ेरवल पार्टी’, ‘द बुक ऑफ़ लाफ़्टर एंड फ़ोरगेटिंग’, ‘इम्मोरालिटी’, ‘आइडेंटिटी’, ‘इग्नोरेंस’ तथा ‘द फ़ेस्टिवल ऑफ़ इनसिग्निफ़िकेन्स’ के अन्य उपन्यास हैं।
‘दि आर्ट ऑफ़ द नॉवेल’ उनका एक कथेतर कार्य है जिसे खूब पढ़ा जाता है। इसमें वे कहते हैं-
पाठक की कल्पना खुद-ब-खुद लेखक के विजन को पूरा करती है ।अत:एक लेखक चरित्र के अन्य महत्वपूर्ण आयामों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए स्वतंत्र होता है बनिस्बत उनकी शारीरिक विशेषताओं के।
‘फ़्रीडम इज माई लव’ नाम से मिलान कुंडेरा के काम पर रॉबर्ट सी पोर्टर ने एक बहुत अच्छा लेख लिखा है। मुझे मिलान कुंडेरा के लिए यह शीर्षक बहुत माकूल लगा। इस विशिष्ट लेखक को अमर उजाला की मार्फ़त मेरी श्रद्धांजलि!