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सुरेश सलिल: खलता है एक जुझारू कवि-साहित्यकार का यूं चले जाना

सुरेश सलिल: एक जुझारू कवि-साहित्यकार का यूं चले जाना Published by: अतुल सिन्हा Updated Fri, 24 Feb 2023 11:59 AM IST
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सार

सलिल जी अपने व्यक्तित्व में जितने सरल और जमीन से जुड़े थे उतने ही अपने लेखन में भी। वह समाज और संस्कृति की गहराइयों और जटिलताओं को बेहद संजीदगी से व्यक्त करते थे।

Suresh Salil Death: The Death Of Poet And Translator Suresh Salil is Big Loss For Hindi Literature
सुरेश सलिल जी - फोटो : Social Media
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विस्तार
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साहित्य जगत के मौजूदा चकाचौंध से दूर या कह सकते हैं कि आज के दौर में साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा के हाशिए पर पड़े साहित्यकार, कवि और बेहद संवेदनशील, सहज, सरल सुरेश सलिल का जाना बहुत से अतीत के पन्ने खोलने जैसा है।

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सलिल जी अस्सी साल के बेशक हो चुके थे लेकिन आखिरी वक्त तक उनकी रचनात्मक सक्रियता और हर वक्त कुछ नया लिखने-पढ़ने की बेचैनी उन्हें औरों से अलग करती है। सुरेश सलिल कभी किसी नामी गिरामी पत्रिका के संपादक नहीं रहे, साहित्य के तमाम पुरस्कारों की दौड़ से दूर रहे, लेकिन लिखा इतना कि कई पीढ़ियों तक उनका लेखन एक दस्तावेज की तरह मौजूद रहेगा।
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वह 1986 के गर्मियों के दिन थे। दिल्ली तब ऐसी भीड़भाड़ वाली नहीं थी, न ही सियासत का चेहरा इतना विद्रूप हुआ था। तब चंद राजनेताओं को भी साहित्य और पत्रकारिता के साथ लिखने पढ़ने का शौक हुआ करता था। इन्हीं में से एक सांसद थे तारिक अनवर, 20, विलिंगटन क्रिसेंट में रहते थे।

युवक धारा पत्रिका के संपादक

बड़ा सा बंगला था और उसके पीछे के हिस्से में एक पत्रिका का दफ्तर था। पत्रिका थी युवक धारा और इसके संपादक थे सुरेश सलिल। उस जमाने में सलिल जी पूरी तन्मयता और गंभीरता के साथ यह बेहतरीन पत्रिका निकालते थे। कवि पंकज सिंह इस पत्रिका के सलाहकार थे और तारिक अनवर के अच्छे दोस्त। वहीं सलिल जी से पहली बार विस्तार से मुलाकात हुई।


काम में तल्लीन, गर्मी में पसीना बहाते हुए पत्रिका को अंतिम रूप देते, प्रूफ पढ़ते और पेज का लेआउट बनाते हुए सलिल जी बिना सर उठाए मिले, लेकिन बात करते रहे। लखनऊ से मेरी रिपोर्ट वह अक्सर छापा करते थे और दिल्ली में मुझे युवक धारा का सांस्कृतिक प्रतिनिधि बनाने का उनका प्रस्ताव था।

प्रेस कार्ड उन्होंने हाथ के हाथ बनाया और मुझसे कहने लगे कि दिल्ली, लखनऊ की सांस्कृतिक गतिविधियों पर खूब लिखो, इसके अलावा भी जो बेहतर लगे लिखो। वहीं मुझे राजेश जोशी, ओम पीयूष और मुशर्रफ आलम जौकी सरीखे मित्र भी मिले जो सलिल जी की टीम का हिस्सा थे।

सलिल जी का संपादक वाला चेहरा मैंने वहीं देखा लेकिन उनके भीतर के साहित्यकार और कवि को मैं काफी पहले से जानता पढ़ता रहा था। दरअसल सलिल जी कोई धूम-धड़ाके वाले कवि नहीं थे। 1956 में उनकी पहली कविता छपी थी और 1990 में उनका पहला कविता संग्रह आया था।  

व्यापक रचना संसार

उत्तर प्रदेश के उन्नाव में 19 जून 1942 को जन्मे सुरेश सलिल का रचना संसार बहुत व्यापक है। सलिल जी अपने व्यक्तित्व में जितने सरल और जमीन से जुड़े थे उतने ही अपने लेखन में भी। वह समाज और संस्कृति की गहराइयों और जटिलताओं को बेहद संजीदगी से व्यक्त करते थे।

गणेश शंकर विद्यार्थी पर उनके महत्वपूर्ण काम और लेखन को एक दस्तावेज माना जाता है। उनका कविता और गजल संग्रह खुले में खड़े होकर, मेरा ठिकाना क्या पूछो, कोई दीवार भी नहीं, चौखट के बाहर, हवाएं क्या-क्या हैं आदि खासे चर्चित हुए। इकबाल, मजाज जैसे तमाम शायरों पर किए गए उनके अद्भुत काम के अलावा गजलों के आठ सौ साल के सफरनामे पर उनके संपादन में आया 'कारवाने गजल' और बलबीर सिंह रंग, गोपाल सिंह नेपाली सरीखे तमाम कवियों पर किया गया उनका काम अद्भुत है। 
 

Suresh Salil Death: The Death Of Poet And Translator Suresh Salil is Big Loss For Hindi Literature
रचनात्मकता के बादशाह सुरेश सलिल जी - फोटो : Social Media

उनका काव्य संचयन हितैषी हो या फिर कविता सदी, पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविताओं का हिन्दी अनुवाद हो या फिर नाजिम हिकमत की कविताएं, सुरेश सलिल के अपार रचनात्मक खजाने में उनकी सक्रियता और रचनात्मकता को सामने लाने वाले कई दस्तावेज हैं।

कविता को दायरे में नहीं बांध सकते

कविता और गीत के बारे में सुरेश सलिल कहते थे .. ‘मैं शिल्पवाद और भाषा के आग्रह का लगातार विरोध करता रहा हूं। कविता किस शिल्प में लिखी जाए, गीत में, मुक्त छंद में या फिर किसी भी रूप में, ये कविता की विषय वस्तु स्वयं तय करती है। ऐसा नहीं है कि आपने तय कर लिया कि इस विषय वस्तु को हमें गीत में ही लिखना है, तो आप हर विषय गीत में ही लिखते रहें, कविता को आप किसी दायरे में नहीं बांध सकते। वह किसी भी रूप में अभिव्यक्त हो सकती है।‘

सलिल जी की अनुदित कहानियों का संग्रह पिछले साल अगस्त में ही आया था, अपनी ज़ुबान में। नाज़िम हिकमत की कविताओं के अनुवाद का संग्रह– देखेंगे उजले दिन... काफी पसंद किया गया। कविताओं के अलावा सलिल जी ने बच्चों पर बहुत काम किया, बच्चों और किशोरों के मनोविज्ञान को गहराई से समझने वाले सलिल जी ने बेहद आसान भाषा में उनके लिए लिखा। कविताएं, गीत और तमाम क्रांतिकारियों की जिंदगी के तमाम पहलुओं से उन्हें रूबरू करवाया। भगत सिंह के अलावा उस दौर के तमाम गुमनाम लेकिन बेहद जुझारू क्रांतिकारियों की जीवनी उनके भीतर ऊर्जा भरती और सलिल जी उनके बारे में गहराई से शोध करते।

सत्ता और पूंजीवाद के जनविरोधी चेहरे को वह अपने तरीके से सामने लाते- बेहद संजीदगी और भाषाई मर्यादाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते हुए। समझौता उन्होंने कभी नहीं किया। काकोरी के दिलजले का शोध-संपादन करने के अलावा काकोरी के क्रांतिकारी शिवकुमार मिश्र की आत्मकथा काकोरी से नक्सलबाड़ी का संपादन भी सलिल जी ने किया।


रचनात्मक ऊर्जा से खुद को रखा जीवंत

अनुवाद में उनका जवाब नहीं था। भाषा प्रवाह ऐसा कि आप पढ़ते चले जाएं, बगैर इस एहसास के कि यह किसी अन्य देश की सामाजिक, राजनीतिक परिदृष्य के संदर्भ में या पात्रों पर लिखा गया है।

बेशक आज की पीढ़ी के लिए साहित्य और कविता के उत्सवी मायने हों, आज के दौर में बेशक साहित्य का बाजार एक नए ग्लैमर के साथ नजर आ रहा हो, पुस्तक मेलों, लिटरेचर फेस्टिवल के अलावा ऐसे तमाम आयोजनों की शहर-शहर में धूम हो, साहित्यकारों की सोच बदली हो, लेकिन सलिल जी उन सबसे अलग अपनी दुनिया में गुमसुम, बेहद सीमित दायरों और अपनत्व से भरे अपने कुछ मित्रों के बीच लिखते-पढ़ते और खुद को गढ़ते रहे।

आखिरी सांस तक मुस्कराते, बीमारी में भी रचनात्मक ऊर्जा से खुद को जीवंत बनाते सलिल जी चुपचाप चले गए। उनके विशाल रचना संसार एक धरोहर की तरह हमेशा हमारे साथ रहेंगे। अलविदा सलिल जी। 


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदाई नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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