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Nepal Gen-Z Protest: सरकारें भी पलट सकता है सोशल मीडिया!
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सार
इसी सितंबर में नेपाल में हुई घटनाएं दुनिया को एक नई वास्तविकता से रूबरू करा रही हैं। यह इतिहास का पहला ऐसा विद्रोह है जो सीधे तौर पर सोशल मीडिया प्रतिबंध से शुरू हुआ और सरकार को गिराने तक पहुंच गया।

नेपाल में अंतरिम पीएम सुशीला कार्की की सिफारिश पर संसद भंग, मार्च, 2026 में आम चुनाव का एलान।
- फोटो : पीटीआई
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विस्तार
अखबारी मीडिया की महिमा पर विख्यात शायर अकबर इलाहाबादी ने कभी लिखा था ‘‘खीचों न कमानों को न तलवार निकाला,जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’। लेकिन नेपाल के ताजा घटनाक्रम पर नजर डालें तो संचार तंत्र का नवीनतम् संस्करण, ‘सोशल मीडिया’ तो अकबर इलाहाबादी की कल्पना से भी आगे निकल गया।

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दुनिया ने पहली बार नेपाल में सोशल मीडिया के विद्रोह का ऐसा प्रचण्ड रूप देखा जिसने समूचे शासन तंत्र को ध्वस्त कर डाला। अनियंत्रित सोशल मीडिया की यह प्रचण्ड शक्ति चप्पे-चप्पे में मौजूदगी दोधारी तलवार का काम भी कर सकती है। नेपाल की घटना हमें सतर्क करती है कि डिजिटल युग में शक्ति अब सिर्फ हथियारों में नहीं, बल्कि स्क्रीन्स में भी है।
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इसी सितंबर में नेपाल में हुई घटनाएं दुनिया को एक नई वास्तविकता से रूबरू करा रही हैं। यह इतिहास का पहला ऐसा विद्रोह है जो सीधे तौर पर सोशल मीडिया प्रतिबंध से शुरू हुआ और सरकार को गिराने तक पहुंच गया।
नेपाल सरकार ने गलत सूचना और जवाबदेही सुनिश्चित करने के नाम पर 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स (जैसे फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और टिकटॉक) पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे 1.43 करोड़ यूजर्स प्रभावित हुए। लेकिन यह प्रतिबंध युवाओं, खासकर जेन-जी के लिए भ्रष्टाचार, नेपोटिज्म (भाई भतीजावाद) और बेरोजगारी के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गया।
8 सितंबर से शुरू हुए प्रदर्शन हिंसक हो गए, जिसमें पुलिस की गोलीबारी से कम से कम दो दर्जन मौतें हो गईं और सैकड़ों घायल हुए। प्रदर्शनकारियों ने संसद, सुप्रीम कोर्ट, अभियोजक कार्यालय और राजनेताओं के घरों को आग के हवाले कर दिया।
विद्रोह भले ही पहला हो मगर सोशल मीडिया का राजनीतिक प्रभाव कोई नई बात नहीं है। सन् 2010-2012 के बीच मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में हुई ‘‘अरब स्प्रिंग’’ क्रांति इसका सबसे प्रमुखउदाहरण है। ट्यूनीशिया में एक फल विक्रेता मोहम्मद बौआजीजी की आत्मदाह की घटना ने सोशल मीडिया के माध्यम से पूरे क्षेत्र में आग की तरह फैल गई।
फेसबुक और एक्स पर साझा किए गए वीडियो और पोस्ट्स ने प्रदर्शनों को संगठित किया, जिससे ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति जाइन एल अबिदीन बेन अली का शासन गिर गया।
इसी तरह, मिस्र में होस्नी मुबारक की सरकार के खिलाफ कैरो के तहरीर स्क्वायर पर लाखों लोग जुटे, जहां सोशल मीडिया ने रीयल-टाइम जानकारी और कॉर्डिनेशन का काम किया। शोधकर्ताओं के अनुसार, इन प्लेटफॉर्म्स ने न केवल विरोध को फैलाया, बल्कि पश्चिमी मीडिया का ध्यान आकर्षित कर अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बनाया।
हालांकि, अरब स्प्रिंग के बाद के परिणाम मिश्रित रहे। कुछ देशों में लोकतंत्र मजबूत हुआ, लेकिन लीबिया और सीरिया जैसे स्थानों पर अराजकता फैली। यहां सोशल मीडिया ने विदेशी शक्तियों को भी हस्तक्षेप का अवसर दिया।
उदाहरण के लिए, अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट ने सोशल मीडिया को ‘शासन परिवर्तन’ के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, जैसे कि 2014 में यूक्रेन में विक्टर यानुकोविच की सरकार को गिराने में हुआ। अमेरिकी खुफिया एजेंसियां और एनजीओ जैसे नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी ने फेसबुक और एक्स के जरिए विरोध को फंडिंग और सहयोग किया।
इस साल नेपाल की घटना सोशल मीडिया की शक्ति का सबसे ताजा प्रमाण है। इसे ‘‘इतिहास का पहला सोशल मीडिया विद्रोह’’ के रूप में देखा जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि प्रतिबंध के बावजूद, प्रदर्शनकारी ऑफलाइन संगठित हुए, लेकिन सोशल मीडिया की अनुपस्थिति ने उनके गुस्से को और भड़काया। म्यांमार में 2021 के सैन्य तख्तापलट के दौरान फेसबुक ने दोहरी भूमिका निभाई।
एक तरफ, यह विरोध प्रदर्शनों का माध्यम बना, लेकिन दूसरी तरफ, रोहिंग्या नरसंहार में घृणा फैलाने का आरोप लगा। इसी तरह, ब्राजील में 2023 के 8 जनवरी की घटना में सोशल मीडिया ने जेयर बोल्सोनारो के समर्थकों को संगठित कर संसद पर हमला करवाया, जो एक असफल तख्तापलट की कोशिश थी। अमेरिका में 6 जनवरी 2021 के कैपिटॉल दंगे में भी सोशल मीडिया की भूमिका स्पष्ट थी।
सोशल मीडिया की अत्यंत तीब्र गति और उसकी जबरदस्त व्यापकता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। आज जिसके जेब में मोबाइल फोन है वही नागरिक पत्रकार है। ट्राइ के अनुसार भारत में 2024 के अंत में सक्रिय सेल्युलर मोबाइल कनेक्शन संख्या 1.15 अरब थी, और 2025 में मामूली वृद्धि हुई है। इसी तरह लगभग 659 मिलियन लोग स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे हैं। ट्राइ के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2025 में 806 मिलियन सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता थे।
अधिकांश इंटरनेट उपयोग मोबाइल के माध्यम से होता है। सोशल मीडिया की एक बड़ी ताकत यह है कि जहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी नहीं पहुंच पाता, वहां यह मिनटों में सूचना फैला देता है। उदाहरण के तौर पर, अगस्त 2025 में उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में खीर गाड़ नाले में आई अचानक बाढ़ ने तबाही मचाई।
सड़कें टूटीं होने के कारण पारंपरिक मीडिया को घटनास्थल पर पहुंचने में तीन दिन लगे, लेकिन घटनास्थल के निकट मौजूद स्थानीय लोगों ने माबाइल फोन के जरिये बाढ़ की ताबाही की तस्बीरें और वीडिओ तत्काल वायरल कर सारी दुनियां में फैला दीं। इसी उत्तराखण्ड में जब वर्ष 2013 में माबाइल क्रांति इतनी एडवांस नहीं थी तो केदारनाथ में अकल्पनीय तबाही हजारों मौतांे का पता दो दिन बाद राज्य सरकार को चला।
सोशल मीडिया ने असमानता, अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का सशक्त माध्यम जरूर प्रदान किया है। लेकिन इसका नकारात्मक पक्ष भी है। यह प्रिंट मीडिया जितना विश्वसनीय नहीं है। यह फेक न्यूज और डिसइंफॉर्मेशन का हथियार बन सकता है। चुनावों में इसका दुरुपयोग देखा जा रहा है।
यह विदेशी शक्तियों के हाथों में पड़कर किसी राष्ट्र की सुरक्षा और स्थिरता को खतरा पैदा कर सकता है। नेपाल में भी कुछ विश्लेषक इसे ‘कलर रिवोल्यूशन’ कह रहे हैं। शोध बताते हैं कि सैन्य और अधिनायकवादी शासनों में सोशल मीडिया विद्रोह को बढ़ावा देता है, और लोकतांत्रिक देशों में यह ध्रुवीकरण पैदा करता है। यह हिंसा भड़काना, गोपनीयता उल्लंघन, और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है।
नेपाल में भी प्रतिबंध के बाद अफवाहों ने हिंसा को बढ़ावा दिया। सोशल मीडिया की यह शक्ति अनियंत्रित रहने पर किसी भी राष्ट्र- समाज के लिये जितनी लाभदायक है उससे कहीं अधिक खतरनाक भी साबित हो सकती है। सरकारों, कंपनियों और उपयोगकर्ताओं को मिलकर जिम्मेदार उपयोग सुनिश्चित करना होगा।
जैसे कि फेक न्यूज पर रोक और पारदर्शिता। सोशल मीडिया एक उपकरण है, जिसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।