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व्यवहार और विचार: जब खुद को छिपाना मजबूरी बन जाए, तो जन्म लेती हैं कई मानसिक समस्याएं
क्रिस्टीना कैरन, द न्यूयॉर्क टाइम्स
Published by: नितिन गौतम
Updated Sun, 14 Dec 2025 07:38 AM IST
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सार
प्रशांते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति।। अर्थात् जल से अग्नि को शांत करने की भांति ज्ञान के जरिये मानसिक दुख को शांत करना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर मनुष्य के शरीर का दुख भी दूर हो जाता है।
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जब खुद को छिपाना मजबूरी बन जाए
- फोटो :
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विस्तार
जब अमारा ब्रूक क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट बनने की ट्रेनिंग कर रही थीं, तो एक सुपरवाइजर ने उन्हें किसी मरीज से मीटिंग से पहले चुप रहने और अपने वरिष्ठों की बात सुनने की सलाह दी। हालांकि, डॉ. ब्रूक, जो खुद अटेंशन-डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) और ऑटिज्म से पीड़ित हैं, के लिए ऐसी सलाहों का पालन मुश्किल था। इसलिए उन्होंने एक कैंडी मुंह में रख ली, ताकि वह बोलने की अपनी तेज इच्छा को रोक सकें। वह इसे मास्किंग कहती हैं। मतलब कि वह तरीका, जिससे आप अपने विचारों व व्यवहार को छिपा सकें।मास्किंग, जिसे कैमॉफ्लाजिंग भी कहा जाता है, खुद को इस तरह पेश करने का तरीका है, जिसमें हम दूसरों को आपत्तिजनक लगने वाले व्यवहार छिपाते हैं। वह कहती हैं कि कभी-कभी हमें वही करना होता है, जो कारगर हो, पर हर समय ऐसे दिखावे थकाऊ हो सकते हैं, लिहाजा मास्किंग मुश्किल समय में मददगार हो सकती है, पर यह मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकती है या उन्हें बढ़ा सकती है। ड्यूक यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी और न्यूरोसाइंस के प्रोफेसर एमेरिटस मार्क लेरी कहते हैं कि हर इन्सान कभी न कभी मास्किंग करता ही है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में साइकोलॉजी की प्रोफेसर और इंस्टीट्यूट ऑफ पर्सनैलिटी एंड सोशल रिसर्च की डायरेक्टर आइरिस मॉस कहती हैं कि मास्किंग तब सशक्त महसूस कराती है, जब व्यक्ति इसे अपनी इच्छा और मूल्यों के अनुसार करे। लेकिन मजबूरीवश की जाने वाली मास्किंग नुकसानदेह हो सकती है। येल स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में सोशल और बिहेवियरल साइंस के प्रोफेसर जॉन पचैंकिस के अनुसार, यह करीबी रिश्तों को शर्म, अपराधबोध, तनाव और आत्मघाती व्यवहार तक ले जा सकती है।
मॉस सुझाव देती हैं कि अगर लगे कि मास्किंग ज्यादा हो रही है, तो व्यक्ति सोचे कि क्या यह मदद कर रही है या इसके नुकसान ज्यादा हैं। अगर आपको लगे कि मास्किंग के नकारात्मक असर अधिक हैं, तो आप इसे कम करने के बारे में सोचें।
लोयोला यूनिवर्सिटी, शिकागो के सोशल साइकोलॉजिस्ट और अनमास्किंग फॉर लाइफ के लेखक डेवोन प्राइस, जिन्हें खुद ऑटिज्म है, सलाह देते हैं कि सुरक्षित जगहें और सहयोगात्मक लोग खोजें, और जरूरत पड़े तो न्यूरोडाइवर्जेंट थेरेपिस्ट की मदद लें। अपनी पहचान से मेल खाने वाले समूह आपको आत्म-स्वीकार में मदद कर सकते हैं।