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दिल्ली का हाल: मास्क, मुस्कुराहट और नया साल... और फिर ढेर सारे सवाल
नन्दितेश निलय, स्पीकर, लेखक एवं एथिक्स प्रशिक्षक
Published by: नितिन गौतम
Updated Wed, 17 Dec 2025 07:30 AM IST
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सार
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दिल्ली में वायु प्रदूषण
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अमर उजाला
विस्तार
लेख की शुरुआत उस शेर से, जो इस शहर का हाल बयां करता है और उन रहगुजर की भी, ‘चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है, जो दिल का हाल है, वही दिल्ली का हाल है!’ दिसंबर से लेकर जनवरी तक यह गर्द-ए-मलाल हमारी मुस्कुराहट पर धुंध लगाने जा रही है। ऐसा लगता है, मानो नए साल में हमें मास्क संग फिर से मुस्कुराना सीखना पड़ेगा। बढ़ते प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट और संसद में सभी दल एकजुटता के साथ अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं। उधर डर से लोग दिल्ली और एनसीआर छोड़ भी रहे हैं। तो क्या फिर से कोविड की तरह यह शहर मास्क में कैद हो जाएगा? क्या दिल्ली की सड़कें और दीवारें फिर से सूनी हो जाएंगी? फिर उन संघर्षों की कहानी कौन लिखेगा, जिसकी गवाही दिल्ली और एनसीआर की आबोहवा बनेगी?मुझे लगता है कि वह कहानी लिखी जाएगी, हर उस व्यक्ति द्वारा, जो इस शहर में फिर से मास्क लगाना सीख रहा है। लेकिन यह भी कम चिंता की बात नहीं है कि फेफड़ों को बचाते-बचाते वह व्यक्ति अपनी मुस्कुराहट भी खोता चला जाएगा। ऐसा लगता है, जैसे कि कोविड के बाद फिर से इस दुनिया को उस मास्क से अपने चेहरे को छिपाना सीखना पड़ेगा, जिससे इस दमघोंटू हवा में फेफड़ा बच सके। महामारी के बाद प्रदूषण में फंसा यह शहर मानो सबसे कह रहा है कि मुस्कराने के दिन चले गए! आखिर चेहरे पर मास्क जो आ गया है। तो फिर उस मानवीय सभ्यता की मुस्कुराहट का क्या होगा? आखिर फिर मुस्कराया कैसे जाएगा?
जिस दुनिया में साफ पानी खरीदने की होड़ लगी है, उस दुनिया में एयर प्यूरीफायर कितनों की मुस्कान वापस ला पाएगा? और इन सबके बीच मास्क में हजारों स्कूल जाते बच्चे अपनी मुस्कुराहट कैसे साझा करना सीखेंगे? वह पिता, वह मां, वह मनुष्य, कहां से वह मन, वह जीवन जीने की जिजीविषा लाएगा, जिसमें थोड़ी हंसी और मुस्कुराहट एक आशा बन जाती है। तो फिर क्या किया जाए, जिससे इस जहरीली हवा में कैद एनसीआर का हर बच्चा, हर व्यक्ति अपनी मुस्कुराहट न भूल जाए?
कोविड ने हमें जीवन का दर्शन दिया और अकेले रहने के लिए मजबूर किया। मनुष्य को परिवार से दूर कर दिया। मास्क से ढके चेहरों को यह महसूस हुआ कि कोई मास्क समाज में ऑक्सीजन का काम तो करता है, लेकिन वह हंसी भी छीन लेता है। अपने परिवार, साथी और किसी बेहद खूबसूरत परिदृश्य को देखकर लोगों का मुस्कुराना, खिलखिलाना मास्क में ही कैद हो जाता है। प्रदूषण के स्तर को कम करने की बातें, तो कई वर्षों से चल रही हैं, लेकिन अगर मास्क ही असली चेहरा बन जाएगा, तो फिर खुशी की इस अभिव्यक्ति का क्या होगा, जो जीवन की उम्मीद है!
मुझे लगता है कि यह वक्त आत्मचिंतन का है और यह भी कि अगर हम सभी उस हंसी, उस मुस्कुराहट को मानवीय समाज में बचाए रखने के लिए प्रदूषण को कम करने में अपनी भूमिका समझें। आखिर दुनिया यह सोचकर हंसने के क्लब में जाती है कि दिन भर की भाग-दौड़ के बाद थोड़ी राहत मिलेगी, मन खुश होगा। पर मास्क तो सब पर प्रतिबंध लगा देगा। बस सांस चलती रहेगी। और दुनिया दूसरों के जीवन में जो आशा व संचार उस मुस्कुराहट से देती आई है, वह तो कहीं अदृश्य-सा हो जाएगा।
यह कल्पना से परे होगा कि मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को हंसते हुए न देखे, मुस्कुराते हुए अभिवादन न कर सके। भले ही सांसें उस प्रदूषण से बचती रहें, लेकिन जब एक हारा हुआ मरीज अपने डॉक्टर की ओर देखेगा, तो मास्क में कैद डॉक्टर उससे कुछ कह नहीं पाएगा। स्कूल में, पार्क में, दौड़ते-चिल्लाते बच्चे कैसे उस वॉल्ट डिज्नी को मुस्कुराकर याद कर पाएंगे, जिसकी कल्पना बच्चों की मुस्कुराहट को महसूस करके ही की गई थी। वे चाहते थे कि कोई ऐसी जगह होनी चाहिए, जहां बच्चे खिलखिलाकर हंस सकें।
जो भी हो, पर इस डरावने प्रदूषण में अपने चेहरे को मास्क से छिपाकर तो रखना होगा, मुस्कुराने की आदत को बचाए रखना होगा। जरूरत होगी उस भाव को मन में समेटने की, जो जीवन को सिर्फ जीवन ही मानता है और मनुष्य को कभी हारने नहीं देता। हम निःस्वार्थ सेवा और प्रेम के मानवीय मूल्य से भले मास्क में ही सही, पर मुस्कुरा सकते हैं, और उनको भी मुस्कुराना सिखा सकते हैं।
कोविड के बाद कई देशों में ऐसा हुआ कि मास्क हटते ही लोग मुस्कुराना भूल गए। जापान समेत कई देशों में उन शिक्षकों की खोज होने लगी, जो मुस्कुराना सिखा सकें। इसलिए दुनिया सिर्फ शहर छोड़ने, एयर प्यूरीफायर लगाने या मास्क में कैद होने भर से तो नहीं बच सकती। मनुष्य दूसरों को अपनी उपस्थिति से जो खुशी और उत्साह देता है, वही जीवन-दर्शन बन जाता है। इसलिए भले ही चेहरा मास्क से ढका हो, लेकिन मास्क के अंदर कैद उस मुस्कुराहट को परिवार के संग ज्यादा बांटने की जरूरत है। अगर एक-दूसरे के लिए, शहर और समाज के लिए कुछ ज्यादा जिम्मेदारी का भाव आ जाए, तो मास्क में अदृश्य मुस्कुराहट भी किसी को उस खुशी का एहसास दे सकती है।
इसलिए हमें मास्क में दमघोंटू हवा के बीच मुस्कुराते रहना सीखना होगा। यह मुश्किल भरा क्षण है और हमें आत्मचिंतन और बोध के भाव से कभी शिक्षक, कभी डॉक्टर, कभी इंजीनियर, कभी नौकरशाह, कभी जज, तो कभी आम नागरिक बनकर इस शहर में जीना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि प्रदूषण कम करने के लिए उनके पास कोई रामबाण नहीं है, यानी हर स्तर पर कोशिश होनी चाहिए। और एक कोशिश मास्क और चेहरे के बीच फंसी उस मुस्कान को बचाने की भी।
कोई भी खुशी या मुस्कुराहट उस प्रेम और सेवा से ही वापस आ सकती है, जो इस पोस्ट-कोविड दुनिया में अब बढ़ते प्रदूषण में कहीं खो चुकी है। सभी को समझना होगा कि दिल्ली और एनसीआर सिर्फ मास्क, वैक्सीन और एयर प्यूरीफायर से ही नहीं बचेगा, बल्कि सबकी मुस्कुराहट और खुशी को बचाकर बचेगा। तभी मास्क के पीछे उन चेहरों में जीवन की संभावनाएं रह जाएंगी।
नए साल के स्वागत में मास्क संग ही सही, पर मुस्कुराना और शुभकामनाओं का दौर जारी रहेगा। मत भूलिए कि हंसना-मुस्कुराना इन्सानी अभिव्यक्ति है। चाहे वह मुस्कुराहट मास्क में छिपी हो या शहर की धूल में! जीवन रुकना नहीं चाहिए और न मुस्कुराना। सफर जारी रहे...