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स्मरण: वह घर, जिसे सबने भुला दिया, इस स्मारक को बचाने के लिए लोगों को साथ आने की जरूरत
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सार
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एमएन राय का घर
- फोटो :
Indian Renaissance Institute
विस्तार
देहरादून का 13, मोहिनी रोड अब बहुत उदास है। इन दिनों बाहर से आने वाले किसी व्यक्ति को इस जगह की तलाश करना कठिन कवायद है। एक समय एम एन राय का यह ‘ह्यूमनिस्ट हाउस’ भारतीय राजनीति का जाना-पहचाना पता था, जबकि आज इस परिसर में खौफनाक सन्नाटा है। राय सोवियत संघ की महान अक्तूबर क्रांति के जनक लेनिन से हाथ मिलाने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने विभिन्न देशों में रहकर स्वतंत्रता के अभियान को तीव्र किया। कम्युनिज्म के बड़े व प्रारंभिक नेताओं में उनका नाम था तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से भी उनका नाता था। उन्होंने विदेश में रहकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की, पर बाद में वह ‘रेडिकल ह्यूमनिज्म’ के प्रचारक बने। उनका मानववाद (ह्यूमनिज्म) पूरी तरह वैज्ञानिक था।एक समय राष्ट्रीयता और साम्यवाद के प्रश्न पर राय के संशोधन को लेनिन ने भी स्वीकार किया था, जबकि मानववाद की तरफ चले जाने से देश की कम्युनिस्ट पार्टियों ने उन्हें कम्युनिज्म विरोधी मानकर विस्मृत कर दिया। राय के बाद देहरादून के उनके ह्यूमनिस्ट हाउस का लंबे समय तक संचालन एस एन पुरी करते रहे। 13, मोहिनी रोड के इस परिसर में ही राय व श्रीमती एलिन राय की समाधियां भी हैं, जो ध्वस्त होने के कगार पर हैं। यहां स्थित राय का समृद्ध पुस्तकालय अब पूरी तरह बंद पड़ा है, जिसमें विश्व-क्रांति की बेजोड़ पुस्तकें रखी थीं। राय के अनुयायी इस जगह को एक अच्छे शोध केंद्र के रूप में संचालित कर बौद्धिक विमर्श की खास जगह में तब्दील कर सकते थे।
राय 1937 में देहरादून आ गए थे। 1953 में वह बीमार पड़े। नेहरू जी उन्हें देखने देहरादून आए। अपने जीवन के अंतिम 17 वर्ष यहीं बिताने के बाद 25 जनवरी, 1954 को राय की मृत्यु हो गई। यहां के ‘रोशन बाग’ को वह बीसवीं सदी का नालंदा कहने लगे थे, जबकि ‘इंडियन रेनेसां इंस्टीट्यूट’ को वह बीसवीं सदी के नालंदा का रूप देना चाहते थे। 1937 में लंबी कैद के बाद जब राय छूटे, तब नेहरू ने इसमें व्यक्तिगत रुचि ली थी कि बाहर राय को कोई तकलीफ न हो। जेल से छूटने पर जो 4-5 लोग राय से मिलने के लिए खड़े थे, उनमें पुरी साहब के अलावा खुर्शीद लाल भी थे। पुरी साहब टिहरी राजशाही परिवार से आए एक नेता ठाकुर किशन सिंह से मिले। किशन सिंह का भगवान दास बैंक वालों से परिचय था। 13 मोहिनी रोड के मालिक वही थे। किशन सिंह ने पुरी साहब के कहने पर इस कोठी का अग्रिम किराया उसके मालिक को दे दिया। राय यहीं आ गए। यहीं रहकर वह राष्ट्रीय स्तर पर अपने दल का कार्य संचालन करने लगे। यह 1938 से 1946 के दरम्यान की बात है। बाद में यह स्थान राय का स्थायी निवास बन गया।
राय का धीरे-धीरे दलीय राजनीति से मोहभंग होने लगा था। रूस के तौर-तरीकों से भी वह आहत थे। ऐसे में उन्होंने स्वतंत्र चिंतन की राह पकड़ी और भारतीय पुनर्जागरण की बात करने लगे। पुरी साहब ने इसी समय प्रयास करके 13 मोहिनी रोड को खरीद लिया और उसमें ‘इंडियन रेनेसां इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। इस तरह यह स्थान फिर बौद्धिक बहसों और गतिविधियों का केंद्र बन गया। राय के जमाने का साप्ताहिक पत्र भी निकलने लगा, जिसकी जिम्मेदारी जस्टिस वी एम तारकुण्डे ने संभाली। राय की मृत्यु के बाद भी यह केंद्र पूर्ववत चलता रहा। दुर्भाग्य यह है कि 1960 में इसी भवन में उनकी पत्नी एलिन की हत्या हो गई। राय के जन्मशती वर्ष का आयोजन यहीं पर एस एन पुरी ने किया था, जिसमें डाॅ. प्रभाकर माचवे ने उन्हें भारतीय राजनीति का ‘कैसेंड्रा’ (एक यूनानी देवी, जिसके कहे पर लोग ध्यान नहीं देते थे, लेकिन बाद में वह सब सच साबित होता था) कहा था।
राय के भारतीय पुनर्जागरण के सपने को ध्वस्त होते देखना सचमुच पीड़ादायक है। उनके साथियों में शौकत उस्मानी, गोवर्धन पारीख, लक्ष्मण शास्त्री जोशी थे। हिंदी में प्रभाकर माचवे के अलावा निरंकार देव सेवक और अज्ञेय भी उनके अनुयायी रहे। बावजूद इसके राय को हिंदी में मान्यता नहीं मिली। उनका लेखन अंग्रेजी में है, जिसका आंशिक अनुवाद ही हो सका। नंदकिशोर आचार्य ने इस दिशा में कुछ काम किया है। तारकुण्डे साहब तो दिल्ली में ‘एम एन राय भवन’ बनाना चाहते थे, लेकिन वह इसे पूरा नहीं कर सके। देहरादून में पुराने क्रांतिकारी वीरेंद्र पाण्डेय भी राय के शिष्यों में थे और मन्मथनाथ गुप्त भी उनकी बौद्धिकता के प्रशंसक बने।
इन दिनों देहरादून पहुंचकर ‘राय ह्यूमनिस्ट हाउस’ को देखने वालों के लिए इसके दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए गए हैं। अवैध कब्जाधारियों ने इस ऐतिहासिक भवन पर से ‘राय ह्यूमनिस्ट हाउस’ का बोर्ड भी हटा दिया है। वैश्विक ख्याति के क्रांतिकारी व चिंतक एम एन राय के पुराने स्मारक को बचाने के लिए देहरादून के साहित्यिक और बौद्धिक लोगों को भी आगे आना चाहिए।