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मनरेगा से आगे: ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की तैयारी, विकसित भारत के सपने के लिए जरूरी
अमर उजाला ब्यूरो
Published by: नितिन गौतम
Updated Wed, 17 Dec 2025 07:08 AM IST
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मनरेगा
- फोटो :
पीटीआई
विस्तार
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की जगह विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) या वीबी-जी-राम-जी नामक नई योजना लाने की केंद्र सरकार की तैयारियों ने नीति, राजनीति और समाज, तीनों स्तरों पर बहस को तेज कर दिया है। संदेह नहीं कि दो दशकों से भी अधिक समय से मनरेगा ग्रामीण भारत के लिए सुरक्षित आय का साधन तो रहा ही है, इसके साथ ही इसने पलायन रोकने, ग्रामीण परिसंपत्तियों के निर्माण और सामाजिक समावेशन में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है। इसकी पुष्टि खुद ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान के मनरेगा के महत्व को स्वीकारने से भी होती है। ऐसे में, किसी नए कानून की पहल तभी सार्थक मानी जाएगी, जब वह मनरेगा की उपलब्धियों को संरक्षित करते हुए उसकी कमियों का समाधान करे।मनरेगा के लंबे अनुभव से पता चलता है कि हर ग्रामीण परिवार को वर्ष में 100 दिनों के रोजगार का मूल वादा कई बार कागजों पर ही सीमित रह जाता है। इसमें भुगतान में देरी, मांग-आधारित रोजगार की अनदेखी और बजट आवंटन में कटौती जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। ऐसे में, प्रस्तावित विधेयक में रोजगार के दिनों को 100 से बढ़ाकर 125 करने का प्रावधान सराहनीय है। इसके अतिरिक्त, धोखाधड़ी का पता लगाने के लिए बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण, ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम, मोबाइल आधारित कार्यस्थल निगरानी से लेकर एआई जैसी तकनीकों तक के उपयोग के प्रावधान भी स्वागतयोग्य हैं। जो प्रमुख बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं, उनमें कृषि के चरम मौसमों के दौरान योजना को रोकना और इसे केंद्र द्वारा वित्तपोषित मॉडल से हटाकर राज्यों के साथ लागत-साझाकरण व्यवस्था में बदलना भी शामिल है।
कांग्रेस समेत विपक्ष इसके लिए सरकार की आलोचना कर तो रहा है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ये मुद्दे संप्रग काल में भी बहस के केंद्र में रहे थे। संप्रग के दूसरे कार्यकाल में 2011 में तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने मनरेगा कार्यों को बुआई व कटाई के वक्त रोकने की मांग की थी, क्योंकि इससे खेतों में जरूरत पड़ने पर मजदूर नहीं मिल पाते थे। इसी तरह मनरेगा के बजट का कुछ हिस्सा राज्यों द्वारा वहन किए जाने का सुझाव भी संप्रग के भीतर से ही निकला था। लागत में साझेदारी से निस्संदेह राज्यों में जवाबदेही बढ़ेगी और दुरुपयोग भी कम होगा। लिहाजा प्रस्तावित विधेयक पहले से दिए जा रहे इन्हीं सुझावों का विस्तार ही अधिक दिखता है। विकसित भारत के सपने के पूरा होने के लिए जरूरी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत और समावेशी बने। उतना ही जरूरी यह भी है कि राजनीतिक द्वंद्व से ऊपर उठकर सरकार और विपक्ष मिलकर इस दिशा में काम करें।