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आपदा: इथियोपिया के ज्वालामुखी की गूंज, आपदाओं के हल के लिए जरूरी है सामूहिक कदमताल

Pankaj chaturvedi पंकज चतुर्वेदी
Updated Fri, 28 Nov 2025 06:56 AM IST
सार
12 हजार साल पुराने ज्वालामुखी विस्फोट ने दिखा दिया कि प्राकृतिक आपदाओं को सीमाएं नहीं बांध सकतीं। सभी को मिलकर पर्यावरणीय समस्याओं का हल ढूंढना होगा।
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Ethiopia 12000 year-old volcano eruption showed that natural disasters cannot be prevented
ज्वालामुखी विस्फोट (सांकेतिक तस्वीर) - फोटो : Adobe Stock

विस्तार
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बीते रविवार इथियोपिया में हुए ज्वालामुखी विस्फोट ने न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को हिलाकर रख दिया, बल्कि इसका असर भारतीय उपमहाद्वीप पर भी महसूस हुआ। डीजीसीए की चेतावनी के बाद कुछ विमानन कंपनियों ने अपनी उड़ानें रद्द तो कर दीं, लेकिन समझना होगा कि यह खतरा केवल हवाई यात्रा तक सीमित न होकर पर्यावरण पर व्यापक असर डालने वाली घटना है। पूर्वी अफ्रीका के ‘हॉर्न ऑफ अफ्रीका’ में स्थित इथियोपिया, जो अपनी भौगोलिक विविधता व ‘ईस्ट अफ्रीकन रिफ्ट वैली’ के लिए मशहूर है, भूगर्भीय हलचलों का केंद्र बना हुआ है।


इथियोपिया और भारत के बीच विशाल अरब सागर मौजूद है। लंबी दूरी के कारण शायद यह असंभव लगे कि वहां का धुआं भारत तक पहुंचे। लेकिन, मौसम विज्ञान की भाषा में, क्षोभमंडल व समताप मंडल में चलने वाली तेज हवाएं, खासकर ‘जेट स्ट्रीम्स’, किसी भी प्रदूषण को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक ले जाने में सक्षम हैं। इंडियामेटस्काई वेदर के अनुसार, यह गुबार पहले गुजरात में पश्चिम से घुसा। फिर जामनगर, राजस्थान, उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की ओर तेजी से बढ़ने के बाद अब यह हिमालय और उत्तरी क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा है।

विस्फोट का मलबा समताप मंडल तक पहुंच रहा है, जहां तेज हवाएं इसे पूर्व की ओर (भारत की दिशा में) बहा ले जा रही हैं। इसका सबसे चिंताजनक पहलू सल्फर डाइऑक्साइड का उत्सर्जन है।

ज्वालामुखी विस्फोट के बाद भारी मात्रा में राख, धूल और गैसें-मुख्य रूप से सल्फर डाइऑक्साइड-वायुमंडल में पहुंचती हैं। उपग्रह इमेजरी ने हाल ही में अरब सागर के ऊपर सल्फर डाइऑक्साइड के बादलों की पुष्टि की है। जब ये बादल रासायनिक क्रिया करते हैं, तो सल्फ्यूरिक एसिड के महीन कणों (एरोसोल) में बदल जाते हैं। इससे ‘ज्वालामुखीय स्मॉग’ या ‘वोग’ (वॉल्केनो स्मॉग) का निर्माण होता है। ज्वालामुखी से निकलेे सल्फेट एरोसोल पीएम 2.5 के स्तर को बढ़ा रहे हैं। सल्फर डाइऑक्साइड से भरपूर ये गुबार दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के आसपास से गुजर रहे हैं। ठीक इसी समय सेन्यार चक्रवात का भी खतरा बना हुआ है और आने वाले दिनों में बारिश होना तय है। ऐसे में, अम्लीय वर्षा की आशंका बढ़ जाती है, खासकर सुंदरबन और पश्चिमी घाट में, जो अपनी जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है। 

यह घटना भारतीय मानसून को भी प्रभावित कर सकती है। इसे ‘एरोसोल डिमिंग’ या ‘सोलर डिमिंग’ कहा जाता है। ज्वालामुखी की राख और सल्फेट एरोसोल सूर्य की किरणों को वापस अंतरिक्ष में भेज देते हैं। इससे ठंड तो बढ़ती ही है, मानसून भी कमजोर होेता है। भारतीय मानसून जमीन व समुद्र के तापमान के अंतर पर निर्भर करता है। यदि एरोसोल के कारण भारतीय भू-भाग ठंडा हो जाता है, तो अरब सागर से आने वाली नम हवाएं कमजोर पड़ सकती हैं। इसका असर खरीफ की फसलों व खाद्य सुरक्षा पर पड़ सकता है। बड़े ज्वालामुखी विस्फोटों, जैसे 1991 में माउंट पिनातुबो, के बाद वैश्विक तापमान में कमी व वर्षा पैटर्न में बदलाव देखा गया है। ज्वालामुखी से उत्पन्न सूक्ष्म कण श्वास नली के जरिये फेफड़ों में जा सकते हैं। इससे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और अन्य श्वसन संबंधी बीमारियां बढ़ सकती हैं, खासकर बुजुर्गों व बच्चों में।

भारत सरकार व मौसम विभाग को वायु गुणवत्ता की निरंतर निगरानी करनी चाहिए। यह घटना हमें जीवाश्म ईंधन के अलावा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रति भी आगाह करती है। प्रकृति जब करवट लेती है, तो उसका असर पूरी दुनिया पर होता है, और हमें इसके लिए तैयार रहना होगा। edit@amarujala.com   
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