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मुद्दा: अब रुकने की जरूरत है, दिखावटी खुशियों से नहीं मिलेगी स्थायी खुशी

Surendra Bansal सुरेंद्र बांसल
Updated Wed, 26 Nov 2025 07:05 AM IST
सार
शादियों के बदलते तौर-तरीके और बनावटी चमक-धमक में यह नहीं भूलना चाहिए कि सादगी तथा विवेक ही सच्ची समृद्धि हैं।
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changing ways of marriage it should not be forgotten that simplicity and discretion are true prosperity
अब शादियों के तौर-तरीके भी बदल गए हैं - फोटो : अमर उजाला प्रिंट

विस्तार
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देश, समाज और हमारे आसपास वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है। शादियों के तौर-तरीके भी बदल गए हैं। अब वैवाहिक समारोह परंपरा और षोडश संस्कार का हिस्सा न रहकर इवेंट में तब्दील होते जा रहे हैं। शादियां कभी हमारे घर-आंगन की रौनक होती थीं। गली में मंडप लगता, मोहल्ले के लोग और रिश्तेदार बढ़-चढ़कर हिस्सा लेतेे। वक्त बदला, तो मैरिज पैलेस आए। इससे लगा कि परंपरा अब आधुनिकता से हाथ मिलाएगी। लेकिन वक्त तो और भी आगे बढ़ता चला गया और शादियां अब घरों व मैरिज पैलेसों से निकलकर शहर से दूर-दराज के महंगे रिसॉर्टों की चाहरदीवारी में पहुंच गई हैं। शादी के दो दिन पहले परिवार के साथ ही कई मेहमान भी रिसॉर्ट में शिफ्ट हो जाते हैं।


शादी के कार्यक्रमों को तरतीब देते हुए पहले से ही तय हो जाता है कि किसको सिर्फ लेडीज संगीत में बुलाना है, किसे रिसेप्शन में, किसे कॉकटेल पार्टी  में और किसे सभी कार्यक्रमों में। कुछ शहरों में तो यह भी देखने में आया है कि बड़े बंगलों में रहने वाले लोग सौ गज या उससे कम के घरों में रहने वालों (भले कितने भी घनिष्ठ हों) को शादियों में बुलाते ही नहीं। आमंत्रण की इस पैमानेबाजी से शादियों में अपनेपन की भावना लगभग खत्म हो चुकी है। शादियां अब एक तरह के फूहड़ प्रदर्शन का दौर बन चली हैं। महिला संगीत होना है, तो परिवार को नाच सिखाने वाले महंगे कोरियोग्राफर बुलाए जाते हैं। मेहंदी लगाने के लिए आर्टिस्ट आते हैं। इस दिन के लिए हरे कपड़ों का ड्रेस कोड है, जबकि हल्दी की रस्म के लिए पीला परिधान पहनना जरूरी है। ऐसा न करने वालों को हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है। शादी-समारोह में मंगल गीतों की जगह फूहड़ गानों का चलन हो गया है। इसके अलावा, फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर कार्यक्रमों का मजा खराब कर देते हैं। वे हर रस्म का रीटेक कर-कर के बची-खुची रीतियों का मखौल उड़ाते हैं। दुख तो तब होता है, जब फेरों की रस्म के दौरान फोटोग्राफर व वीडियोग्राफर पवित्र मंत्र पढ़ रहे पंडित को रोक देते हैं। वहीं, अक्सर विवाह की सप्तपदी के दौरान कई लोग यह कहते नजर आते हैं कि पंडित जी थोड़ा शॉर्ट-कट में करो।


अब बारी है रिसेप्शन की। पहले वरमाला परिवारों के परस्पर मिलन, अपनेपन और हंसी-ठिठोली के बीच होती थी। आजकल दूल्हा-दुल्हन को धुएं की मशीनों और नकली आतिशबाजी के बीच अकेला छोड़ दिया जाता है और इसके बीच ही वे फिल्मी अंदाज में एक-दूसरे को वरमाला पहनाते हैं। इसके साथ ही स्टेज के पास एक स्क्रीन लगाकर उसमें प्री-वेडिंग शूट की निर्लज्जता की हद तक शूट की गई वीडियो चलती रहती है। सबसे बड़ी बात यह है कि वरमाला कभी सनातन विवाह संस्कृति का हिस्सा नहीं रही है। यह तो राजा-महाराजाओं की परंपरा थी। लेकिन यह परंपरा आज हमारी सनातनी शादियों में सात फेरों से भी प्रमुख हो गई है। परंपरा के मुताबिक वरमाला के बाद फेरों का कोई औचित्य नहीं रह जाता है, लेकिन यह कोई समझने को तैयार नहीं।

बहरहाल, जो परंपराएं कभी सादगी, मर्यादा और मंगल कामनाओं से जुड़ी थीं, वे सब अब भोंडी और निर्लज्ज प्रदर्शन बन चली हैं। पहले बरातियों को जनवासे में और घराती, नाते-रिश्तेदारों को घर पर ही या पास-पड़ोस के घरों में रुकवाया जाता था। सब आपस में घुलते-मिलते थे। इससे संबंधों में और प्रगाढ़ता आती थी। लेकिन अब रिसॉर्ट में प्रत्येक परिवार अलग-अलग कमरे में ठहरता है। न किसी को बरसों बाद किसी नए से मिलने की चाह और न रिश्तेदारों से बात करने की उत्सुकता। हजारों वर्षों से चली आ रही हमारी सभ्यता को दूषित करने का बीड़ा ऐसे ही तथाकथित आधुनिक और संपन्न वर्ग के लोगों ने उठा रखा है। मांगलिक कार्यों में मांस-मदिरा (राक्षसी वृत्तियों) का चलन बढ़ गया है। शनैः शनैः मध्यम वर्ग भी इस कुप्रवृत्ति से जुड़ता जा रहा है।

लेकिन बस! अब रुकने की जरूरत है। घर में आने वाली हर खुशी का उत्सव जरूर मनाइए। पर किसी और की जीवनशैली की नकल करने में खुद को मत खोइए। कर्ज लेकर शादी करना जीवन की शुरुआत नहीं, परेशानी का सबब है। मध्यम वर्ग के लिए विवाह जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शुरुआत है। इसे बनावटी चमक-दमक से मत दफनाइए। अपने दांपत्य जीवन की शुरुआत सिर उठाकर व आत्मसम्मान से कीजिए। सादगी और विवेक परिवार की वास्तविक प्रतिष्ठा और सच्ची समृद्धि है। कुरीतियां अन्य ग्रहों से नहीं आतीं, घर हो या समाज, गिरावट या पतन भीतर से ही आता है।
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