सब्सक्राइब करें
Hindi News ›   Columns ›   Opinion ›   Karnataka cm crisis Congress repeating old mistakes in ongoing tussle in Karnataka

कांग्रेस: कर्नाटक का किला बचाने की चुनौती, पार्टी पुरानी गलती दोहराने की राह पर

rashid Kidwai रशीद किदवई
Updated Wed, 26 Nov 2025 06:59 AM IST
सार
कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि 2018 में जीते गए तीनों बड़े राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ आखिरकार पार्टी की रणनीतिक भूलों तथा फैसलों में जड़ता के कारण ही हाथ से निकल गए थे। अब कर्नाटक में चल रही खींचतान में वह अपनी पुरानी गलती दोहराती दिख रही है।
 
विज्ञापन
loader
Karnataka cm crisis Congress repeating old mistakes in ongoing tussle in Karnataka
कर्नाटक का किला बचाने की चुनौती - फोटो : अमर उजाला प्रिंट

विस्तार
Follow Us

बिहार चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद अब पार्टी कर्नाटक में आंतरिक संकट से जूझ रही है। बड़े राज्यों में फिलहाल कर्नाटक ही ऐसा एकमात्र राज्य है, जहां कांग्रेस सत्ता में है और इस समय वह यहां भी अपने विजयी दुर्ग को बचाने के लिए संघर्षरत है। संकट की जड़ में हैं मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच की प्रतिद्वंद्विता। शिवकुमार के समर्थक इस समय सिद्धरमैया की जगह अपने नेता को मुख्यमंत्री के पद पर देखना चाह रहे हैं।


यह बात छिपी नहीं है कि ढाई साल पहले राज्य विधानसभा चुनावों में पार्टी को बहुमत दिलाने में सबसे अहम भूमिका शिवकुमार ने ही निभाई थी। उस समय पार्टी हलकों में भी शिवकुमार का ही मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था। स्वयं शिवकुमार भी यही उम्मीद लगाए हुए थे। लेकिन यहां पर भी वैसा ही वरिष्ठता का खेल खेला गया, जो इससे पहले 2018 में मध्य प्रदेश और राजस्थान में खेला गया था। वरिष्ठता के आधार पर कर्नाटक में भी सिद्धरमैया के नाम पर मुहर लगा दी गई। वरिष्ठ होने के अलावा जातिगत समीकरण भी सिद्धरमैया के पक्ष में गए। वह पिछड़े तबके से आते हैं, जबकि शिवकुमार अगड़े वर्ग से।


बेशक, डीके शिवकुमार कर्नाटक में एक स्वाभाविक पसंद हो सकते हैं, लेकिन पार्टी हाईकमान के सामने एक दूसरी तरह की उलझन भी है। राहुल गांधी लंबे अरसे से, खासकर लोकसभा चुनावों से, सामाजिक न्याय और पिछड़ों को सम्मान देने की बात करते आ रहे हैं। दुविधा यह है कि इस वक्त कांग्रेस शासित अन्य दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री-हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सिंह सुक्खू और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी अगड़ी जातियों से आते हैं। ऐसे में, कर्नाटक में भी इसी श्रेणी के व्यक्ति को सत्ता देना कांग्रेस की घोषित राजनीति को कमजोर कर सकता है। इस वजह से भी निर्णय लेना जटिल हो गया है। परंतु कांग्रेस हाईकमान को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2018 में जीते गए तीनों बड़े राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ आखिरकार पार्टी की रणनीतिक भूलों तथा फैसलों में जड़ता के कारण ही हाथ से निकल गए थे।

मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया केवल इस वजह से कमलनाथ के खिलाफ बगावत करके भाजपा में चले गए, क्योंकि उन्हें वादे के अनुरूप मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया था। परिणाम यह निकला कि आज मध्य प्रदेश में कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बदतर दौर से गुजर रही है। यही हाल राजस्थान में भी हुआ। वहां सचिन पायलट मुख्यमंत्री के स्वाभाविक दावेदार थे, लेकिन वरिष्ठता के आधार पर अशोक गहलोत को तरजीह दी गई। इसके बाद भी सचिन से लगातार वादे किए जाते रहे, जो खोखले ही साबित हुए और अंतत: अगले चुनावों में राजस्थान भी कांग्रेस के हाथों से छिटक गया। छत्तीसगढ़ में भी यही पैटर्न दोहराया गया। टीएस सिंहदेव को भरोसा दिया गया था कि ढाई साल बाद मुख्यमंत्री की बारी उनकी होगी, लेकिन आलाकमान के आशीर्वाद से भूपेश बघेल ही पूरे पांच साल तक कुर्सी पर डटे रहे। इस वजह से सिंहदेव के गढ़ सरगुजा में कांग्रेस काफी नुकसान में रही और नतीजतन छत्तीसगढ़ में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।

कर्नाटक को लेकर कांग्रेस में एक अंतर्द्वंद्व की स्थिति नजर आती है। डीके शिवकुमार न केवल संपन्न व्यक्ति हैं, बल्कि राजनीतिक रूप से प्रभावी और प्रतिभाशाली भी। वह करीब 63 साल के हो चुके हैं और उन्हें व उनके समर्थकों को लगने लगा होगा कि आखिर अब नहीं तो कब? उन्हें आश्वासन दिया जा रहा है कि छह महीने बाद असम, केरल और पश्चिम बंगाल के चुनावों के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। उस वक्त उनके पास दो साल का वक्त होगा और उनसे उम्मीद होगी कि वह वहां अच्छा शासन कर अगले चुनावों में पार्टी को जनादेश दिलवाएं। लेकिन इसे लेकर शिवकुमार के समर्थक आश्वस्त नहीं हैं।

कर्नाटक की स्थिति को और पेचीदा बनाता है एक तीसरा एंगल, जो राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से जुड़ा हुआ है। खरगे कर्नाटक से आते हैं। ऐसा भी कहा जा रहा है कि स्वयं खरगे भी मुख्यमंत्री बनने में रुचि रखते हैं। पिछले करीब पचास साल से राजनीति में सक्रिय रहे खरगे कई पदों पर रह चुके हैं, लेकिन अपने ही गृह प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे हमेशा दूर ही रही। पिछले दो दशक में तीन या चार बार ऐसे मौके आए भी, जब वह इस कुर्सी के काफी नजदीक पहुंच चुके थे। लेकिन जातीय समीकरण या राजनीतिक वजहों से मल्लिकार्जुन खरगे मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और इसका उन्हें हमेशा से मलाल भी रहा है। इसलिए मुख्यमंत्री बनने की एक दबी हुई इच्छा उनमें हमेशा से रही है और आज 80 प्लस होने के बाद भी वह चाहत खत्म नहीं हुई है। हालांकि, यह अजीब बात होगी कि एक राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष एक राज्य का मुख्यमंत्री बन जाए।

इसी उथल-पुथल के बीच अब कई अन्य नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भी जाग उठी हैं। कइयों को लगता है कि ‘दो की लड़ाई’ में सत्ता संभालने का मौका उनके हाथ आ सकता है। राज्य के गृह मंत्री जी परमेश्वर ने पहले ही दलित कार्ड चल दिया है, जिससे सियासी समीकरण और जटिल हो गए हैं। ऐसे में, सिद्धरमैया को हटाकर सीधे शिवकुमार को सत्ता सौंपना कांग्रेस हाईकमान के लिए जातीय और क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से आसान नहीं होगा।

दरअसल, कांग्रेस की सबसे बड़ी खामी यह है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता का अभाव है। लेकिन अब भी ज्यादा देर नहीं हुई है। पार्टी को चाहिए कि किसी निष्पक्ष वरिष्ठ पर्यवेक्षक, जैसे सचिन पायलट या प्रियंका गांधी को कर्नाटक भेजे, ताकि विधायकों की खुलकर राय ली जा सके और उसका परिणाम सार्वजनिक किया जाए। इससे न सिर्फ पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि आरोप-प्रत्यारोप भी थमेंगे और अंततः जो भी फैसला होगा, वह सबको स्वीकार्य होगा। कांग्रेस यदि चाहे तो यह चीज भाजपा से भी सीख सकती है। वहां कठिन फैसले लेना भी इसलिए आसान होता है, क्योंकि आंतरिक लोकतंत्र का एक सुव्यवस्थित ढांचा दिखाई देता है। edit@amarujala.com  
विज्ञापन
विज्ञापन
Trending Videos
विज्ञापन
विज्ञापन

Next Article

Election

Followed