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अंतरराष्ट्रीय सियासत और जलवायु: क्या जंग और ग्लोबल वार्मिंग में कोई नाता है? युद्धों के पीछे गर्म होती धरती...

डंकन डेपलेज, भू-राजनीति और सुरक्षा विशेषज्ञ, लॉबोरो यूनिवर्सिटी Published by: दीपक कुमार शर्मा Updated Wed, 24 Sep 2025 07:19 AM IST
सार
बीते साल धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ गया। इसी समय यूक्रेन, गाजा और सूडान समेत दुनिया भर में जारी दूसरे युद्ध अपने चरम पर पहुंच रहे हैं। क्या गर्म होती धरती ही इन युद्धों की वजह है?
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global politics and climate Is there a connection In war and global warming planet temperature behind wars
गाजा संघर्ष (फाइल) - फोटो : पीटीआई

विस्तार
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वर्ष 2024 में पहली बार धरती के औसत तापमान में पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की वृद्धि हुई, जो जलवायु संकट की एक महत्वपूर्ण सीमा है। साथ ही, यूक्रेन, गाजा, सूडान और अन्य जगहों पर प्रमुख तीव्र सैन्य संघर्ष जारी हैं। स्पष्ट है कि अब युद्ध को जलवायु संकट के साये में समझे जाने की जरूरत है।

युद्ध और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध जटिल है। लेकिन, तीन अहम कारणों की वजह से जलवायु संकट से निपटने के लिए हमें युद्ध के बारे में विचार करते हुए नए ढंग से सोचना होगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन संसाधनों की कमी और विस्थापन को बढ़ाकर हिंसक संघर्षों की आशंका बढ़ा सकता है, जबकि संघर्ष स्वयं पर्यावरणीय क्षति को बढ़ाता है।


युद्ध में निहित विनाशकारी क्षमता ने लंबे समय से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन, इसके जलवायु संबंधी प्रभावों के प्रति हम हाल ही में ज्यादा जागरूक हुए हैं। साइंटिस्ट्स फॉर ग्लोबल रेस्पोंसिबिलिटी और द कॉन्फ्लिक्ट एंड एनवायरन्मेंट ऑब्जरवेटरी द्वारा किए गए एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि दुनिया भर की सेनाओं का कुल कार्बन फुटप्रिंट रूस से भी अधिक है, जिसका वर्तमान में विश्व में चौथा सबसे बड़ा फुटप्रिंट है।

माना जाता है कि अमेरिका का सैन्य उत्सर्जन सबसे ज्यादा है। ब्रिटेन स्थित शोधकर्ताओं बेंजामिन नीमार्क, ओलिवर बेल्चर और पैट्रिक बिगर के अनुमान बताते हैं कि अगर अमेरिकी सेना एक देश होती, तो वह दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का 47वां सबसे बड़ा उत्सर्जक होती। इस हिसाब से वह पेरू और पुर्तगाल के बीच आती। युद्ध जलवायु और ऊर्जा परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को भी खतरे में डाल सकते हैं। उदाहरण के लिए, यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से, आर्कटिक में पश्चिमी देशों और रूस के बीच वैज्ञानिक सहयोग टूट गया है। इस वजह से महत्वपूर्ण जलवायु डाटा जुटाने में बाधा आ रही है।

कुछ लोगों का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया के उन हिस्सों में हिंसा का खतरा बढ़ा सकता है, जो पहले से ही खाद्य और जल असुरक्षा, आंतरिक तनाव, खराब शासन और क्षेत्रीय विवादों से तनावग्रस्त हैं। अन्य शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि हिंसा में शामिल होने या युद्ध में जाने का कोई भी निर्णय हमेशा इन्सान लेते हैं, जलवायु नहीं।

इस बात का खंडन करना और भी मुश्किल है कि जलवायु संकट के कारण नागरिक आपात स्थितियों में सहायता के लिए सेनाओं की तैनाती ज्यादा बार हो रही है। इसमें जंगल की आग से निपटने से लेकर बाढ़ सुरक्षा को मजबूत करने, निकासी में मदद करने, खोज और बचाव अभियान चलाने, आपदा के बाद पुनर्वास में मदद करने और मानवीय सहायता पहुंचाने तक की कई गतिविधियां शामिल हैं। जलवायु संकट भविष्य में और अधिक हिंसा और सशस्त्र संघर्ष का कारण बनेगा या नहीं, इसका अनुमान लगाना असंभव है। यदि ऐसा होता है, तो सैन्य बल की अधिक बार तैनाती की जरूरत पड़ सकती है।

साथ ही, यदि जलवायु संबंधी आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता से निपटने के लिए सेनाओं पर निर्भर रहा जाता है, तो उनके संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ेगा। सरकारों को इस बारे में कठिन विकल्पों का सामना करना पड़ेगा कि किस तरह के कार्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए और क्या अन्य सामाजिक जरूरतों की कीमत पर सैन्य बजट में वृद्धि की जानी चाहिए।
बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव और संघर्षों की संख्याओं में वृद्धि को देखते हुए असैन्यीकरण की मांग निकट भविष्य में पूरी होना मुश्किल लगती है। इससे शोधकर्ता असमंजस में हैं कि उन्हें इस बात पर पुनर्विचार करना होगा कि सैन्य बल का प्रयोग किस तरह किया जाए, जबकि दुनिया एक साथ तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने और जीवाश्म ईंधन पर अपनी गहरी निर्भरता से मुक्ति पाने का प्रयास कर रही है।

तेजी से बदलती चरम और अप्रत्याशित जलवायु परिस्थितियों का सामना करने के लिए सैन्य कर्मियों को तैयार करने और मूलभूत ढांचे के साथ अनुकूलन बढ़ती चिंता का विषय है। वर्ष 2018 में अमेरिका में आए दो बड़े तूफानों ने आठ अरब डॉलर के सैन्य बुनियादी ढांचे को तहस-नहस कर दिया था।

मेरे खुद के शोध से पता चला है कि कम से कम ब्रिटेन में कुछ रक्षा अधिकारियों के बीच इस बात के प्रति जागरूकता बढ़ रही है कि सेनाओं को इस बारे में सावधानीपूर्वक सोचने की जरूरत है कि वे ऊर्जा परिवर्तन के कारण वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य में आने वाले बड़े बदलावों से कैसे पार पाएंगी। सेनाएं कठिन विकल्प का सामना कर रही हैं। वे या तो तेजी से कम कार्बन वाली दुनिया में जीवाश्म ईंधन के अंतिम भारी उपयोगकर्ताओं में से एक बनी रह सकती हैं या ऊर्जा परिवर्तन का हिस्सा बन सकती हैं, जिसका सैन्य बल के निर्माण, तैनाती और उसे बनाए रखने के तरीके पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।

यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि सैन्य अभियानों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सेनाएं भविष्य के अभियानों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति कितनी जागरूक हैं। यह इस बात पर भी निर्भर होगा कि उन्होंने अपनी क्षमताओं को अधिक चरम जलवायु परिस्थितियों से निपटने के लिए कितने प्रभावी ढंग से अनुकूलित किया है और जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता को कितना कम करने में कामयाब रही हैं।

19वीं सदी की शुरुआत में प्रशिया के जनरल कार्ल वॉन क्लॉजविट्ज ने प्रसिद्ध तर्क दिया था कि यद्यपि युद्ध की प्रकृति में कभी परिवर्तन नहीं होता, लेकिन इसका चरित्र समय के साथ लगभग निरंतर विकसित होता रहता है। यदि हमें यह समझना है कि भविष्य में युद्ध क्यों और कैसे लड़े जाएंगे, इनमें से कुछ युद्धों को कैसे टाला या कम विनाशकारी बनाया जा सकता है, तो इसके लिए जलवायु संकट के पैमाने और पहुंच को पहचानना आवश्यक होगा। (द कन्वर्सेशन से)      edit@amarujala.com

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