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जानना जरूरी है: राजा नहुष कैसे बने देवलोक के शासक? देवगुरु बृहस्पति के अपमान-इंद्र के सिंहासन से जुड़ी है कथा
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संस्कृति के पन्नों से जानना जरूरी है
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विस्तार
इंद्र द्वारा किए गए अपमान के चलते देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं का साथ छोड़ दिया। उनके जाने के बाद इंद्र ने विश्वरूप को अपना पुरोहित नियुक्त कर लिया। विश्वरूप के तीन मस्तक थे। वह यज्ञों में देवताओं, असुरों और मनुष्यों-सबको यथोचित भाग देते थे। देवताओं को ऊंचे स्वर में मंत्र पढ़कर, मनुष्यों को मध्यम स्वर में और दैत्यों को चुपचाप, बिना बोले। इंद्र ने जब यह भेदभाव देखा, तो उन्हें संदेह हुआ कि विश्वरूप, असुरों के पक्ष में हैं।
इंद्र ने विचार किया, ‘ये हमारे पुरोहित होकर भी असुरों को यज्ञ का फल दे रहे हैं। ये हमारे शत्रुओं का कार्य सिद्ध कर रहे हैं।’ इसी संदेह और क्रोध में आकर इंद्र ने अपने वज्र से विश्वरूप के तीनों सिर काट डाले। यह अत्यंत निंदनीय कर्म था। विश्वरूप की मृत्यु के साथ भयानक धुएं के समान काले रंग की तीन मुखों वाली ब्रह्महत्या प्रकट हुई और इंद्र का पीछा करने लगी। भयभीत इंद्र वहां से भाग निकले। वह जहां भी जाते, ब्रह्महत्या उनका पीछा करती। जब वह रुकते, वह भी रुक जाती। आखिरकार इंद्र ने एक जलाशय में छलांग लगाई और वहीं छिपकर रहने लगे। वह तीन सौ दिव्य वर्षों तक जल में छिपे रहे।
इंद्र के लोप हो जाने से स्वर्ग में अराजकता फैल गई। देवता और ऋषि चिंतित हो उठे। तीनों लोक संकट में आ गए। सूखा, मृत्यु, विपत्ति और अनर्थ का माहौल बन गया। धर्म के अनुसार, जहां कोई ब्रह्महत्यारा राजा होता है, वहां पवित्र लोगों की अकाल मृत्यु होती है और प्रजा संकटों से घिर जाती है।
इस प्रसंग पर शौनक ऋषि ने सूतजी से प्रश्न किया, ‘इंद्र ने सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे, फिर उन्हें ऐसी विपत्ति क्यों मिली?’
सूतजी ने उत्तर दिया, ‘देवताओं, दानवों और मनुष्यों के सुख-दुख का कारण कर्म होता है। इंद्र ने घोर पाप किए-गुरु का अपमान, ब्राह्मण का वध और महर्षि गौतम की पत्नी से व्यभिचार किया। ऐसे पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
जो पाप अनजाने में हो, उसका प्रायश्चित संभव है, लेकिन जो जान-बूझकर किया जाए, उसका निवारण केवल मृत्यु है। धर्मशास्त्रों में ब्रह्महत्या का कोई स्पष्ट प्रायश्चित नहीं बताया गया। इंद्र ने जान-बूझकर विश्वरूप जैसे विद्वान ब्राह्मण की हत्या की थी, इसलिए उन्हें भोग के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।’
देवताओं ने गुरु बृहस्पति से आग्रह किया कि वे इंद्र की स्थिति पर ध्यान दें। बृहस्पति ने विचार किया, ‘ऐसा क्या किया जाए, जिससे देवताओं, ऋषियों और लोकों का कल्याण हो?’ अंततः वे इंद्र को ढूंढने जलाशय पर पहुंचे, जहां ब्रह्महत्या भयानक स्वरूप में विद्यमान थी। बृहस्पति ने इंद्र को पुकारा, जब इंद्र ने गुरु की आवाज सुनी, तो वह जल से बाहर आए। उनके चेहरे पर पश्चाताप का भाव था, आंखों से आंसू बह रहे थे। बोले, ‘गुरुदेव! मेरा क्या कर्तव्य है? मुझे मार्ग दिखाइए।’
बृहस्पति ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, ‘इंद्र! यह सब तुम्हारे पापों का फल है। जान-बूझकर किए गए पाप का कोई उपाय नहीं होता। तुम्हारे यज्ञों का पुण्य भी उस दिन समाप्त हो गया, जब तुमने ब्राह्मण विश्वरूप का वध किया। जिस तरह छिद्र वाले घड़े में पानी नहीं ठहरता, वैसे ही पापी का पुण्य नष्ट हो जाता है। तुम्हें अब अपने पापों का प्रायश्चित करते हुए इस जल में ही रहना होगा।’
इंद्र ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘गुरुदेव! मैं अब इस पद के योग्य नहीं हूं। कृपया किसी और को इंद्र बना दीजिए, जो देवताओं का कार्य कर सके।’ देवताओं ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वे सब अमरावती लौट आए। तभी वहां देवर्षि नारद उपस्थित हुए। उन्होंने पूछा, ‘आप सब चिंतित क्यों हैं?’ देवताओं ने इंद्र के कर्मों की पूरी कथा सुनाई। नारद बोले, ‘मैं यह सब पहले से जानता हूं। इंद्र का स्थान लेने के लिए श्रेष्ठ पात्र हैं-चंद्रवंशीय राजा नहुष। वह निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ कर चुके हैं और अत्यंत तेजस्वी हैं।’ यह सुनकर देवताओं और ऋषियों ने राजा नहुष को इंद्र के पद पर नियुक्त कर दिया। इस प्रकार इंद्र के पापों के कारण देवलोक का शासन उनके हाथ से निकलकर राजा नहुष को प्राप्त हुआ।