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जानना जरूरी है: भीष्म को कैसे मिला इच्छामृत्यु का वरदान… महाभारत युद्ध के बाद त्यागे थे प्राण
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सार
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संस्कृत के पन्नों से
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अमर उजाला
विस्तार
राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर विचरण कर रहे थे कि तभी उन्हें अत्यंत सुंदर स्त्री दिखाई पड़ी। पूछने पर उसने शांतनु को बताया, ‘मैं निषाद-कन्या सत्यवती हूं।’ सत्यवती पर मोहित शांतनु उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहते थे। उन्होंने उनके पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया। निषादराज ने कहा, ‘राजन! मैं आपसे इसका विवाह करा सकता हूं, पर मेरी एक शर्त है। आप प्रतिज्ञा करें कि विवाह के बाद सत्यवती के गर्भ से जन्म लेने वाला पुत्र ही आपके बाद हस्तिनापुर राज्य का अधिकारी होगा, और कोई नहीं।’राजा शांतनु, गंगापुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर चुके थे, इसलिए उन्होंने सत्यवती के पिता की शर्त नहीं मानी और वह लौट आए। परंतु काम के वशीभूत शांतनु को सत्यवती की याद सताती रही। वह निरंतर व्याकुल और दुखी रहने लगे। एक दिन देवव्रत ने अपने पिता शांतनु को इस हालत में देखा, तो उन्होंने कहा, ‘पिताजी! हस्तिनापुर सब ओर से सुरक्षित है, फिर आप दुखी रहकर क्या सोचते रहते हैं? आपका चेहरा पीला पड़ गया है। कृपया अपना कष्ट मुझे बताइए।
शांतनु ने कहा, ‘पुत्र! मैं सचमुच चिंतित हूं। हमारे कुल के एकमात्र तुम्हीं वंशधर हो और तुम सर्वदा सशस्त्र रहकर युद्ध के लिए तत्पर रहते हो। यदि तुम पर कभी कोई विपत्ति आई, तो हमारे वंश का नाश हो जाएगा। तुम अकेले ही सैकड़ों पुत्रों से श्रेष्ठ हो और मैं व्यर्थ में अनेक विवाह नहीं करना चाहता, किंतु वंश-परंपरा की रक्षा के लिए मैं चिंतित रहता हूं।’ यद्यपि शांतनु ने देवव्रत से झूठ कहा था, लेकिन देवव्रत ने राजा के मंत्री से मिलकर शांतनु के कष्ट का असल कारण और निषादराज की शर्त को जान लिया।
पूरी बात सुनकर देवव्रत, तत्काल सत्यवती के पिता से मिलने पहुंच गए और वहां जाकर उन्होंने अपने वृद्ध पिता के लिए निषादराज से सत्यवती के विवाह की याचना की। निषादराज ने देवव्रत का स्वागत किया और कहा, ‘शांतनु की वंश रक्षा के लिए आप अकेले ही पर्याप्त हैं। शांतनु के साथ संबंध टूट जाने पर इंद्र को भी पश्चाताप करना पड़ेगा। मेरे लिए यह संबंध अनमोल है। पर इसमें यह दोष है कि सत्यवती के पुत्र का शत्रु बड़ा प्रबल होगा। गंगापुत्र! जिसके आप शत्रु हो जाएंगे, वह तो जीवित ही नहीं रह सकता।
यही सोचकर मैंने आपके पिता को अपनी कन्या नहीं दी।’ यह बात सुनकर देवव्रत ने अपने पिता का मनोरथ पूर्ण करने के लिए घोषणा की, ‘निषादराज! मैं शपथ लेता हूं कि आपकी कन्या सत्यवती के गर्भ से जो पुत्र जन्म लेगा, वही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। यह मेरी कठोर प्रतिज्ञा है।’ देवव्रत की इस प्रतिज्ञा के बाद भी निषादराज का संदेह दूर नहीं हुआ। वह अब भी कुछ चाहता था। उसने कहा, ‘युवराज! आपने तो सिंहासन पर अपना अधिकार त्याग दिया, लेकिन संभव है कि आपका पुत्र सत्यवती के पुत्र से राज्य छीन ले।’ देवव्रत तुरंत निषादराज का आशय समझ गए। तब उन्होंने भरी सभा में फिर घोषणा की, ‘मैंने अपने पिता के सुख के लिए राज्य का परित्याग तो कर ही दिया है। अब संतान के लिए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि आजीवन विवाह नहीं करूंगा और अखंड ब्रह्मचारी रहूंगा।’
देवव्रत की यह कठोर प्रतिज्ञा सुनकर निषादराज रोमांचित हो गए और उन्होंने तुरंत शांतनु और सत्यवती के विवाह के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। तभी आकाश से देवताओं ने पुष्पवर्षा की और सबने कहा-इस कठिन प्रतिज्ञा के लिए गंगापुत्र देवव्रत आज से ‘भीष्म’ कहलाएंगे। इसके बाद देवव्रत भीष्म, सत्यवती को अपने साथ हस्तिनापुर ले आए और शांतनु के साथ उनका विवाह भी करवा दिया। भीष्म की यह प्रतिज्ञा सुनकर राजा शांतनु को कष्ट भी हुआ, लेकिन वह भीष्म की पितृभक्ति से प्रसन्न भी हुए। उन्होंने भीष्म को वर दिया, ‘मैं तुम्हें इच्छामृत्यु का वरदान देता हूं। तुम जब तक जीना चाहो, तब तक मृत्यु तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेगी।’ इसी वरदान के कारण महाभारत युद्ध में अर्जुन द्वारा बाणों से पूरी तरह बिंध जाने पर भी भीष्म की मृत्यु नहीं हुई और उन्होंने युद्ध के पश्चात सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने पर स्वत: अपने प्राण त्यागे थे।