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मुद्दा: इधर के रहे न उधर के... बांग्लादेश ने पाकिस्तान से ₹36 हजार करोड़ का मुआवजा मांगा, देशद्रोही का...
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भारत विभाजन के बाद न इधर के रहे न उधर के
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अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच संबंधों को बेहतर करने के लिए बीते दिनों राजनयिक स्तर पर ढाका में बातचीत हुई। बातचीत शुरू होते ही बांग्लादेश ने पाकिस्तान से 1971 के नागरिकों के कत्लेआम के लिए माफी मांगने और 36 हजार करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग रख दी। इस पर पाकिस्तान की विदेश सचिव आमना बलूच हक्की-बक्की रह गईं। खबरें आ रही हैं कि बांग्लादेश ने अपने यहां रह रहे लाखों बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने का मुद्दा भी उठाया।
भारत के विभाजन के वक्त 1947 में बिहार से कई उर्दूभाषी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में चले गए थे। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बिहारी मुसलमान वहीं रह गए थे। इन्हें ‘स्ट्रैंडेड पाकिस्तानी’ भी कहा जाता है। बांग्लादेश में रह रहे इन बिहारी मुसलमानों ने भारत के बजाय पूर्वी पाकिस्तान को इसलिए चुना था, क्योंकि यह बिहार के करीब था, वहां की संस्कृति, भौगोलिक स्थिति और आर्थिक अवसर उनके लिए अधिक परिचित थे। ये लोग मुख्य रूप से रेलवे, व्यापार और प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत थे। उनकी उर्दू भाषा और एक खास सांस्कृतिक पहचान ने उन्हें बंगाली भाषी पूर्वी पाकिस्तानी आबादी से अलग कर दिया था। इन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखा। बिहारी मुसलमान ढाका, चटगांव और खुलना जैसे शहरों में रहते हैं।
बांग्लादेश के लेखक सरवर हुसैन कहते हैं कि बांग्लादेश के 1971 के मुक्ति युद्ध में बिहारी मुसलमान पाकिस्तानी सेना के साथ खड़े थे और बड़ी संख्या में बंगाली विद्रोहियों के खिलाफ हिंसा में भाग ले रहे थे, लेकिन 16 दिसंबर, 1971 को बांग्लादेश के दुनिया के नक्शे पर आते ही बिहारी मुसलमानों के बुरे दिन आ गए। नए देश में बंगाली मुसलमानों ने बिहारी मुसलमानों को ‘देशद्रोही’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ के रूप में देखा।
हाल ही में जब पाकिस्तान की विदेश सचिव आमना बलूच बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस से मिल रही थीं, तब बिहारी मुसलमानों को जरूर उम्मीद रही होगी कि दोनों देश उनके भविष्य को लेकर कोई गंभीर चर्चा करेंगे। ये न तो पूरी तरह से बांग्लादेशी समाज का हिस्सा बन पाए हैं और न ही अपने को मुसलमानों का प्रवक्ता कहने वाला पाकिस्तान इन्हें अपने यहां लेने को तैयार है। हालांकि, इन बिहारी मुसलमानों की पाकिस्तान को लेकर निष्ठा रही है। ये पाकिस्तान के लिए पहले भारत को और फिर बांग्लादेश को खारिज कर चुके हैं।
बांग्लादेश में ज्यादातर बिहारी मुसलमानों के पास मतदान का भी अधिकार नहीं है। इन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलती। ये छोटी-मोटी नौकरी करके अपना गुजारा करते हैं। ये ढाका के मीरपुर के शरणार्थी शिविरों में मुख्य रूप से रहते हैं। इन शिविरों में बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वच्छ पानी, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है। इनके पुरखे पटना, बेगूसराय, जमालपुर, सहरसा आदि जगहों से पूर्वी पाकिस्तान चले गए थे।
अगर बात पाकिस्तान की करें, तो उसने 1971 की जंग के बाद करीब सवा लाख बिहारी मुसलमानों को कराची, लाहौर और हैदराबाद में बसाया था, जबकि सवा पांच लाख से अधिक लोगों ने पाकिस्तान जाने के लिए आवेदन किया था, लेकिन पाकिस्तान ने शेष बिहारियों को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। पाकिस्तान का दावा था कि सभी ‘पाकिस्तानी’ नागरिक वापस आ चुके हैं, जबकि हकीकत में बिहारी समुदाय के ज्यादातर लोग बांग्लादेश में ही रह गए। पाकिस्तान की मौजूदा आर्थिक स्थिति को देखते हुए लगता है कि वह बिहारी मुसलमानों को अपना नहीं सकेगा। उधर, बांग्लादेश भी बिहारी मुसलमानों को अपनाने के लिए तैयार नहीं है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इनकी स्थिति बेहद खराब है। हालांकि, सन 2008 में बांग्लादेश में कुछ बिहारी मुसलमानों को देश की नागरिकता दे दी गई थी।
बेशक, बिहारी मुसलमान भारत-पाकिस्तान विभाजन और बांग्लादेश की स्वतंत्रता के परिणामों का एक दुखद उदाहरण हैं। 1947 में अपने घरों को छोड़कर एक नए देश में बेहतर भविष्य की उम्मीद में गए ये लोग 1971 के बाद बांग्लादेश में ‘अटके हुए पाकिस्तानी’ बन गए। उनकी उर्दू भाषा, सांस्कृतिक पहचान और पाकिस्तानी सेना के साथ कथित संबद्धता ने उन्हें बंगाली समाज से अलग-थलग कर दिया। पाकिस्तान ने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से इस समुदाय को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप लाखों बिहारी आज भी बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में कठिन परिस्थितियों में रह रहे हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि बांग्लादेश में फंसे हुए बिहारी मुसलमानों को न तो पाकिस्तान अपनाने के लिए तैयार है और न ही बांग्लादेश अपना मानता है।