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जब आतंकवाद के बारूद में मारे जाते हैं निर्दोष तो जरूरी हो जाता है युद्ध
नंदितेश निलय
Published by: शिव शुक्ला
Updated Fri, 09 May 2025 08:55 AM IST
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ऑपरेशन सिंदूर
- फोटो :
एक्स
विस्तार
साहिर की इस पंक्ति से हम अपने इस लेख की शुरुआत करते हैं, ‘हम अमन चाहते हैं’ तो क्या हम किसी युद्ध को नैतिक ठहरा सकते हैं? इस प्रश्न का जवाब आसान नहीं होता, लेकिन जब धर्म की आड़ में या आतंकवाद के बारूद में निर्दोष लोग मारे जाते हैं, तो फिर युद्ध लाजिमी हो जाता है, और भारत के लिए भी पहलगाम के बाद चुप रहना संभव नहीं था। ऑपरेशन सिंदूर हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने देश की जनता के भरोसे के रंग को फीका नहीं पड़ने दिया, और न ही उस रंग की अस्मिता को भी, जिसे आतंकवाद मिटाना चाहता था।
हालांकि, लियो टॉलस्टॉय ने अपने उपन्यास वार एंड पीस के जरिये हम सभी को सुझाव दिया है कि युद्ध या शांति की पहल के बीच में सिर्फ ‘समय और धैर्य’ का ध्यान रखना चाहिए। भारत ने असीम धैर्य का परिचय दिया भी। लेकिन हम महामारी के बाद के समय में एक ऐसी दुनिया फिर बनते देख रहे हैं, जो शांति के बजाय युद्ध की संभावनाएं कुछ ज्यादा पैदा कर रही है।
चाहे रूस-यूक्रेन हो, इस्राइल-हमास, फलस्तीन हो या फिर पाकिस्तान। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू से ही शांति की पहल के लिए काफी जोर दिया है, और माना कि संसार को बुद्ध की जरूरत है, न कि युद्ध की। लेकिन दुनिया अब भी बम धमाकों और असंख्य मौतों के प्रति उदासीन है। क्यों संसार का नेतृत्व यह नहीं समझा पा रहा कि कोई देश आतंकवाद को पनाह नहीं दे सकता? क्यों आतंकवाद पर कोई टैरिफ नहीं लग रहा और उस देश का बॉयकॉट क्यों नहीं हो रहा? यह चिंताजनक है।
बर्ट्रेंड रसेल ने अपने लेख एथिक्स इन वार में चार तरह के युद्धों की विस्तार से चर्चा की है: उपनिवेशीकरण के युद्ध, सिद्धांतों के युद्ध, आत्मरक्षा के युद्ध और प्रतिष्ठा के युद्ध। भारत ने उपनिवेशीकरण के युद्ध या यूरोप द्वारा अमेरिकियों के साथ किए गए व्यवहार को देखा है। ऐसे युद्धों में एक आबादी या नस्ल दूसरी आबादी या नस्ल के साथ अलग किस्म का व्यवहार करती है और पूरी आबादी को बाहर निकालना पसंद करती है। ऐसे युद्धों का कोई तकनीकी या नैतिक औचित्य नहीं है और जीवन के उद्देश्य के बारे में दार्शनिकों की मौलिक नैतिक खोज इसका कारण खोजने में विफल रहती है।
सिद्धांतों के युद्ध ने हालांकि हमें यह विश्वास नहीं दिलाया कि विचारों को बंदूक की नली के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया जा सकता है। फिर भी, ऐसे युद्धों में एक देश कम से कम दूसरे देशों के प्रति असहिष्णु या अमानवीय व्यवहार को अन्य व्यक्तियों के साथ दूर करने में विश्वास करता है।
तीसरी श्रेणी, आत्मरक्षा के युद्ध को युद्ध का एक स्वीकार्य संस्करण माना जाता है, क्योंकि किसी भी प्रकार की सरकार के लिए अपने नागरिकों को दूसरों से किसी भी तरह के खतरे या हमले से बचाना आवश्यक है। इस तरह के युद्ध हमेशा जायज होते हैं। भारत ने यही किया और ऑपरेशन सिंदूर एक नैतिक युद्ध बना।
और रसेल के अनुसार, अंतिम श्रेणी प्रतिष्ठा के युद्धों की है, जहां राष्ट्रीय गौरव के लिए युद्ध लड़े जाते हैं। और यहां जीत या हार के परिणाम नेताओं के दिमाग या दिल में नहीं आते, बल्कि सिर्फ और सिर्फ गौरव या प्रतिष्ठा के बारे में सोचते हैं।
अब नैतिक समाज का उद्देश्य मनुष्यों के जीवन को बचाना है, इस पृथ्वी को बचाना है। यदि जीवन का उद्देश्य जीना है, तो जीवित रहने की इच्छा को बनाए रखने से बेहतर कुछ नहीं है। परमाणु बम से ग्रस्त दुनिया ने शांति का सबसे अच्छा मॉडल महामारी के समय देखा था। शांति किसी एक के बजाय दोनों पक्षों को बचाती है और कोविड के समय में हर नागरिक न केवल खुद को, बल्कि साथी नागरिक को भी बचाने के लिए काम कर रहा था। मास्क शांति का प्रतीक बन गया। जब हम नैतिक दृष्टिकोण से विश्व के वर्तमान संकट का विश्लेषण करते हैं, तो हम आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मनुष्य का उपयोग उन लोगों द्वारा एक साधन के रूप में किया जाता है, जो हमलावर होने के साथ-साथ हथियार बेचने वाले भी हैं। अमेरिका और रूस कई वर्षों तक एक अलग किस्म के युद्ध में रहे और कई देश उनके उस न्यूक्लियर बम के कोल्ड वार के ध्रुवीकरण में फंसते नजर आए।
ऑपरेशन सिंदूर ने बहुत हद तक आतंकवादियों का खात्मा किया है, और भारत की आन-बान और शान की रक्षा भी की है। भूलिए मत कि युद्ध में सब कुछ जायज है, लेकिन भारत ने जिस तरह से संयम और सत्यता के साथ सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों के ठिकानों पर हमला किया; वह इस प्रहार को एक नैतिक युद्ध बना देता है। दुनिया के सभी देशों को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो आतंकवाद का तीव्रतम विरोध करे और शांति और सद्भाव के रंग से इस विश्व को रंग दे। मृत्यु नहीं, इस पृथ्वी को सिर्फ जीवन का रंग मिले। फिल्म इंटरस्टेलर का यह संदेश भला कौन भूल सकता है, ‘मानव जाति का जन्म जब पृथ्वी पर हुआ, तो मरने के लिए नहीं हुआ था!’
भारत और विश्व के तमाम देश हर उस नागरिक को बचाना चाहेंगे, जो निर्दोष है, जो शांति से जीवन जीना चाहता है। भारत के दर्शन की यह परीक्षा की घड़ी है, क्योंकि भारत युगों से शांति, सद्भाव और सुरक्षा का होस्ट रहा। उस अस्मिता के रंग की भी और उस भरोसे की भी।
साहिर लिखते हैं,
ये ज़र की जंग है न ज़मीनों की जंग है
ये जंग है बक़ा के उसूलों के वास्ते
जो ख़ून हम ने नज़्र दिया है ज़मीन को
वो ख़ून है गुलाब के फूलों के वास्ते
फूटेगी सुब्ह-ए-अम्न लहू-रंग ही सही
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़,
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही!