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संरक्षणवाद की होड़: निर्यात संकट पर साया, चीन के पंख कतरना चाहता है अमेरिका
अमर उजाला
Published by: पवन पांडेय
Updated Sat, 13 Dec 2025 07:51 AM IST
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विस्तार
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की कठोर टैरिफ नीतियों के साये में अब अगर मेक्सिको ने भी कदम बढ़ाया है, तो इससे वैश्विक व्यापार की दुनिया में संरक्षणवाद की आंधी तेज होने का ही संकेत मिलता है। दरअसल, एक जनवरी, 2026 से, मेक्सिको उन सभी देशों से 1,400 से अधिक उत्पादों पर पांच से 50 फीसदी तक का शुल्क लगाएगा, जिनके साथ उसका मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) नहीं है।इस फैसले के तहत, भारत और चीन सहित विभिन्न एशियाई देशों से आने वाली गाड़ियों पर आयात शुल्क को 20 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी किया गया है, जो भारतीय वाहन उद्योग के लिए भी एक बड़ा झटका है। दशकों तक मेक्सिको का आर्थिक मॉडल एशिया से औद्योगिक इनपुट आयात करने और अमेरिका व कनाडा को तैयार माल निर्यात करने पर आधारित रहा। लेकिन अब मेक्सिको के फैसले का कारण सस्ते चीनी सामानों की बाढ़ को रोकना बताया जा रहा है, जो सही भी हो सकता है। क्योंकि, चीन का उसके साथ व्यापार अधिशेष 100 अरब डॉलर की सीमा को भी लांघ चुका है। हालांकि, इसकी ज्यादा बड़ी वजह अमेरिका की तरफ से पड़ रहा दबाव ही लगता है।
अमेरिका चीन के पंख कतरना चाहता है, और मेक्सिको ने अपने इस फैसले से वॉशिंगटन को संकेत दिया है कि वह इस मामले में अमेरिका के साथ खड़ा है। दक्षिण अफ्रीका और सऊदी अरब के बाद मेक्सिको यात्री कारों के लिए भारत का तीसरा सबसे बड़ा निर्यात बाजार है। जनवरी से इन निर्यातों पर लग रहे नए टैरिफ से इनके अव्यवहारिक होने का खतरा मंडरा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक्स, परिधान, रसायन, इंजीनियरिंग वस्तुओं और धातुओं इत्यादि पर भी इस टैरिफ का असर पड़ने की आशंका है। ऐसे में, भारत वही कर रहा है, जो उसे करना चाहिए, यानी द्विपक्षीय व्यापार समझौते या फिर इसके होने तक आंशिक समझौते पर स्वीकृति बनाने का प्रयास।
कुल मिलाकर, लैटिन अमेरिका की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मेक्सिको का टैरिफ बढ़ाने का फैसला एक सीमा तक ही उसे फायदा पहुंचाएगा और इससे अमेरिका को भी चीन को नियंत्रित करने के अपने व्यापक प्रयास में एक अधिक सहयोगी साझेदार मिलेगा। लेकिन दीर्घकाल में यह उपभोक्ताओं को नुकसान भी पहुंचा सकता है। यही वजह है कि इसे लेकर मेक्सिको के भीतर से भी विरोध प्रकट हो रहा है। यह फैसला संरक्षणवाद की होड़ को बढ़ा सकता है, जो दुनिया को उस ओर धकेल रहा है, जहां विकासशील देश भी वैश्विक आर्थिक युद्ध का मोहरा बनते हुए एक-दूसरे के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं।